1. कंटेंट पर जाएं
  2. मेन्यू पर जाएं
  3. डीडब्ल्यू की अन्य साइट देखें
समाज

जब बीबीसी रेडियो बना पूर्वी जर्मनी का दुश्मन

२६ मई २०२०

1950 और 1960 के दशक में पूर्वी जर्मनी (जीडीआर) के निवासियों ने हजारों की संख्या में बीबीसी लंदन को चिट्ठियां लिख कर बताया कि वे किन हालात में जी रहे हैं. अभिव्यक्ति की आजादी के लिए जीडीआर में कोई जगह नहीं थी.

https://p.dw.com/p/3cljB
DDR-Geschichte(n) auf BBC-Radio - Moderator Austin Harrison
तस्वीर: BBC

बिना अभिव्यक्ति के या फिर मीडिया की स्वतंत्रता के लोकतंत्र नहीं बन सकता. 1949 में दो हिस्सों में बंटने के बाद जर्मनी के पूर्वी हिस्से को नाम मिला जर्मन डेमोक्रेटिक रिपब्लिक (जीडीआर). इसके सिर्फ नाम में ही लोकतंत्र था. यहां का मीडिया सरकार का ही एक अंग था. सरकार की किसी भी तरह की आलोचना करना या उसके फैसलों पर सवाल उठाना ना केवल वर्जित था, बल्कि खतरनाक भी था. नेतृत्व की नजरों में खटकने वाले अकसर सलाखों के पीछे पहुंच जाते थे. इसके बावजूद पूर्वी जर्मनी में कुछ लोग बीबीसी की मदद से नेतृत्व के खिलाफ अपनी आवाज उठा रहे थे.

4 अप्रैल 1949 को बीबीसी ने जर्मनी में रेडियो प्रोग्राम शुरू किया था. इसे "जर्मन ईस्ट जोन" प्रोग्राम कहा जाता था. बीबीसी उन लोगों तक पहुंचना चाहता था जो सोवियत के कब्जे वाले हिस्से में रह रहे थे. प्रोग्राम शुरू होने के छह महीने बाद जीडीआर बना. शुरुआत से ही यहां के लोग राजनीतिक और आर्थिक स्थिति से असंतुष्ट थे. बीबीसी उनके लिए अपनी शिकायतें बताने का एक जरिया बना. खास कर शो "लेटर्स विदाउट सिग्नेचर" के माध्यम से.

बीबीसी में पहुंची 40,000 चिट्ठियां

यह शो 1974 तक चला और इसमें से बीस साल ऑस्टिन हैरिसन ने शो को होस्ट किया. हर शो में वे कहते, "आप जहां भी हों, आपके मन में जो भी चल रहा हो, बस हमें लिख भेजिए." जवाब में बीबीसी को 40,000 चिट्ठियां मिलीं. क्योंकि पूर्वी जर्मनी से चिट्ठी भेजना संभव नहीं था, तो लोग किसी तरह उन्हें पश्चिमी जर्मनी के उन रेडियो चैनल तक पहुंचा देते जिन्होंने नाजी काल में लेखक थोमास मन के भाषणों का प्रसारण करने की हिम्मत दिखाई थी. यहां से लोगों की चिट्ठियां लंदन तक जाती. बीबीसी ने रेडियो का स्वरूप इस तरह से बदला कि अब वहां किसी नोबेल विजेता के शब्द नहीं, बल्कि आम लोगों की परेशानियां सुनने को मिल रही थीं.

इन चिट्ठियों को आज भी सुना जा सकता है. जर्मनी की राजधानी बर्लिन के म्यूजियम फॉर कम्यूनिकेशन में "40,000 लेटर्स" नाम से प्रदर्शनी चल रही है, जहां ऑस्टिन हैरिसन की आवाज आज भी उस वक्त की यादें ताजा कर रही है.

DDR-Geschichte(n) auf BBC-Radio - Briefe aus der DDR
बीबीसी को लिखे गए पत्रतस्वीर: BBC/Written Archives Centre

बर्लिन दीवार की "कैदी" की चिट्ठी

1961 में जब बर्लिन की दीवार खड़ी हुई, तब एक महिला ने लिखा कि कैसे भविष्य को ले कर वह "बेहद हतोत्साहित" महसूस कर रही थी. उन्होंने उस दौर की सोवियत नेता निकीता ख्रुश्चेव की आलोचना की और तत्कालीन पश्चिमी बर्लिन के मेयर विली ब्रांट से अपील की कि वे निकीता ख्रुश्चेव को निजी रूप से जा कर लोगों की पीड़ा समझाएं. पत्र के अंत में अपने नाम की जगह उन्हेंने लिखा "एक कैदी".

इस महिला की अगर पहचान हो जाती तो उन्हें और उनके परिवार को इसकी बड़ी कीमत चुकानी पड़ सकती थी. इसके बाद कई पत्रों में लोगों ने खुद को कैदी कहना शुरू कर दिया. कार्ल हाइंत्स बोर्खार्ट भी उन लोगों में से थे जिन्होंने चिट्ठियां लिखीं लेकिन वे उस महिला की तरह खुशकिस्मत नहीं थे. 1960 के दशक में उन्होंने कई चिट्ठियां लिखीं. एक पत्र में उन्होंने लिखा, "सरकार को ले कर कोई भी खुश नहीं है लेकिन डर के मारे कोई कुछ नहीं कहता."

प्रोपेगंडा का लगा आरोप

1970 में पूर्वी जर्मनी की खुफिया पुलिस श्टासी ने उनका पता लगा लिया और उन्हें "सरकार के खिलाफ काम करने" के जुर्म में दो साल की कैद सुनाई. उन पर सरकार के खिलाफ प्रोपेगंडा से जुड़े होने का आरोप लगा. लेकिन आज उस वक्त को याद करते हुए कार्ल हाइंत्स कहते हैं कि बीबीसी का वह शो प्रोपेगंडा मात्र नहीं था, बल्कि उसमें पश्चिमी जगत की आलोचना भी होती थी. इसमें ब्रिटेन की राजनीति और अमेरिका के वियतनाम में छेड़े गए युद्ध पर भी चर्चा होती थी.

कार्ल हाइंत्स बताते हैं कि शो में जीडीआर के कोने कोने से लोग चिट्ठियां लिखा करते थे. उसमें हर उम्र, हर तबके के लोग शामिल थे फिर चाहे किसान हों, कामकाजी लोग, टीचर या बच्चे. इन सब लोगों की एक आम शिकायत यह थी कि पश्चिम ने उन्हें नजरअंदाज कर दिया था. दीवार खड़ी होने के बाद उनकी चिंताएं और बढ़ गई थीं.

DDR-Geschichte(n) auf BBC-Radio - Karl-Heinz Borchardt
कार्ल हाइंत्स बोर्खार्टतस्वीर: BStU

आजादी पर हमेशा रहा खतरा

लेखक सुजाने शेडलिष ने इन पत्रों का जर्मन से अंग्रेजी में अनुवाद किया और 2017 में "लेटर्स विदाउट सिग्नेचर" के नाम से एक किताब प्रकाशित की. इसी किताब से प्रेरित हो कर बर्लिन के म्यूजियम में प्रदर्शनी लगाई गई. सुजाने शेडलिष का कहना है कि जो काम उस जमाने में रेडियो कर रहा था, वही काम आज सोशल मीडिया कर रहा है. मीडिया और अभिव्यक्ति की आजादी में वे इंटरनेट का बड़ा योगदान देखती हैं. उनका कहना है, "इंटरनेट के जरिए आप अपने विचार व्यक्त कर सकते हैं, खास कर ऐसी जगहों पर जहां सरकारें आपको यह छूट नहीं देती हैं." 

बर्लिन में लगी प्रदर्शनी में अतीत की यादें हैं, तो वर्तमान के किस्से भी हैं. सऊदी अरब के ब्लॉगर राइफ बदावी से ले कर पाकिस्तान की मलाला यूसुफजई तक यहां सब का जिक्र है. सुजाने शेडलिष कहती हैं, "आजादी के लिए आवाज हमेशा ही उठती रही है -  पहले रेडियो पर उठती थी, अब ऑनलाइन उठ रही है."

रिपोर्ट: मारसेल फुर्स्टेनाउ/आईबी

__________________________

हमसे जुड़ें: Facebook | Twitter | YouTube | GooglePlay | AppStore

इस विषय पर और जानकारी को स्किप करें

इस विषय पर और जानकारी