जर्मनी क्यों नहीं बन पा रहा है सुरक्षा परिषद का स्थायी सदस्य
२३ सितम्बर २०२३जर्मनी 1973 में संयुक्त राष्ट्र में शामिल हुआ. हालांकि, सवाल यह है कि इतनी देर क्यों हुई? जबकि, संयुक्त राष्ट्र की स्थापना 1945 में हुई थी और इसके ठीक चार साल बाद ही पश्चिमी जर्मनी एक देश के तौर पर अस्तित्व में आ गया था. इसकी वजह है कि जर्मनी दो हिस्सों में बंटा हुआ था. पश्चिमी जर्मनी यानी फेडरल रिपब्लिक ऑफ जर्मनी और जर्मन डेमोक्रैटिक रिपब्लिक (GDR), जिसे साम्यवादी पूर्वी जर्मनी के रूप में जाना जाता था.
दशकों पुराना गतिरोध फिर से पैदा हो गया था, क्योंकि फेडरल रिपब्लिक की सरकार यह दावा करती थी कि वह जर्मनी की एकमात्र प्रतिनिधि है. वह खुद को जर्मन लोगों का एकमात्र वैध प्रतिनिधि मानती थी, क्योंकि सिर्फ उसके पास लोकतांत्रिक वैधता थी.
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संयुक्त राज्य अमेरिका, ब्रिटेन और फ्रांस वाले पश्चिमी देशों के गठबंधन ने द्वितीय विश्व युद्ध में जीत के बाद सिर्फ फेडरल रिपब्लिक ऑफ जर्मनी यानी पश्चिमी जर्मनी को संयुक्त राष्ट्र में शामिल करने का समर्थन किया था. जबकि, खुद को GDR यानी पूर्वी जर्मनी का संरक्षक मानने वाले सोवियत संघ ने इस बात का समर्थन नहीं किया. इस वजह से जर्मनी वर्षों तक संयुक्त राष्ट्र का सदस्य नहीं बन सका.
1970 के दशक की शुरूआत में सेंटर-लेफ्ट सोशल डेमोक्रेट (SDP) चांसलर विली ब्रांट के नेतृत्व में जर्मन सरकार ने अपना रुख बदला. उन्होंने GDR के साथ संबंधों को सामान्य बनाया और इस तरह पूर्वी जर्मनी और पश्चिमी जर्मनी का संयुक्त राष्ट्र में शामिल होने का रास्ता साफ हो गया. 18 सितंबर 1973 को वे 133वें और 134वें सदस्य के रूप में संयुक्त राष्ट्र में शामिल हुए.
सुरक्षा परिषद में स्थायी सीट पाने के लिए बेकरार है जर्मनी
3 अक्टूबर, 1990 को जर्मनी फिर से एक हो गया. इसी के साथ उनकी दोहरी सदस्यता भी समाप्त हो गई. तब से एकीकृत जर्मनी संयुक्त राष्ट्र का सदस्य है. साथ ही, जर्मनी के ऊपर पश्चिमी देशों के विशेषाधिकार खत्म हो गए. एकीकृत होने के बाद से जर्मनी ने संयुक्त राष्ट्र में अपनी भागीदारी काफी बढ़ाई है. यह संयुक्त राष्ट्र की सबसे ज्यादा आर्थिक मदद करने वाले देशों में से एक है. उसने कई शांति अभियानों में हिस्सा लिया है और संयुक्त राष्ट्र का एक महत्वपूर्ण मेजबान देश है. ‘इंटरनेशनल ट्रिब्यूनल फॉर लॉ ऑफ द सी' जर्मनी के हैम्बर्ग में स्थित है. वहीं संयुक्त राष्ट्र के कई संगठनों का मुख्यालय बॉन में स्थित है.
संयुक्त राष्ट्र के प्रति अपनी मजबूत प्रतिबद्धता और आर्थिक-राजनीतिक हैसियत के आधार पर जर्मनी कई वर्षों से संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद का स्थायी सदस्य बनना चाहता है, ताकि उसे भी वीटो पावर मिल सके. अब तक सिर्फ अमेरिका, चीन, रूस, यूनाइटेड किंगडम और फ्रांस ही संयुक्त राष्ट्र में किसी मुद्दे पर फैसला लेने वाली सबसे शक्तिशाली इकाई सुरक्षा परिषद के सदस्य हैं. स्थायी सीट के अन्य दावेदारों की तरह ही जर्मनी का तर्क है कि सुरक्षा परिषद की मौजूदा संरचना अभी भी द्वितीय विश्व युद्ध के तुरंत बाद की भू-राजनीतिक स्थिति को दिखाती है, न कि मौजूदा समय की भू-राजनीतिक स्थिति.
हेनिंग हॉफ, जर्मन काउंसिल ऑन फॉरेन रिलेशंस के सदस्य और विदेशी मामलों की पत्रिका ‘इंटरनेशनल पॉलिटिक्स क्वार्टरली' के कार्यकारी संपादक हैं. वह स्थायी सीट की मांग को "जर्मन विदेश नीति की अति-इच्छित वस्तु” कहते हैं. सामान्य शब्दों में कहें, तो जर्मनी स्थायी सदस्य बनने के लिए काफी ज्यादा उत्सुक है. हालांकि, इसकी संभावना ‘बेहद कम' है. वजह यह है कि मौजूदा सदस्य यह नहीं चाहते कि उन्हें जो विशेषाधिकार प्राप्त है, वह अन्य देशों को भी मिले.
कई बार जर्मनी ने खुद के बजाय पूरे यूरोपीय संघ के लिए एक स्थायी सीट की मांग करने की कोशिश की है. हालांकि, इसका मतलब यह होता कि यूनाइटेड किंगडम (यूरोपीय संघ का तत्कालीन सदस्य) और फ्रांस को अपनी-अपनी सीटें छोड़नी पड़ती. इस वजह से जर्मनी का यह प्रयास भी विफल हो गया.
हॉफ कहते हैं कि जर्मन सरकार दुविधा में फंस गई है. उन्होंने कहा, "एक ओर जर्मनी अपनी विदेश नीति के तहत यह मानता है कि वैश्विक शासन-प्रणाली जैसी कोई चीज स्थापित करने के लिए संयुक्त राष्ट्र पर पूरी तरह भरोसा करना चाहिए. वहीं दूसरी ओर आपको यह भी लगता है कि संयुक्त राष्ट्र की संरचना में वास्तव में सुधार की जरूरत है, लेकिन ऐसा होने की कोई संभावना नहीं है.”
संयुक्त राष्ट्र में प्रतिनिधित्व बढ़ाने की मांग
मौजूदा जर्मन सरकार का किसी भी गठबंधन समझौते में बहुपक्षवाद (तीन या उससे ज्यादा देशों को शामिल किए जाने का सिद्धांत) को लेकर अपना विचार है. इसमें संयुक्त राष्ट्र के संदर्भ में कहा गया है, "हम संयुक्त राष्ट्र (UN) को राजनीतिक, आर्थिक और कर्मचारियों के मामले में अंतरराष्ट्रीय स्तर की सबसे महत्वपूर्ण संस्था के रूप में मजबूत करने के लिए प्रतिबद्ध हैं. संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में सुधार हमारा लक्ष्य है, ताकि दुनिया के सभी हिस्सों का उचित प्रतिनिधित्व हो.”
जर्मनी वर्तमान में नामीबिया के साथ मिलकर तथाकथित संयुक्त राष्ट्र शिखर सम्मेलन की तैयारी कर रहा है, जो अगले साल होने वाला है. हॉफ ने कहा, "मुद्दा यह है कि संयुक्त राष्ट्र में उन शक्तियों को फिर से लाने की कोशिश की जाए, जो सुधार चाहते हैं और यह कोई छोटी संख्या नहीं है. इसे इस तरह से करना है कि जर्मनी जैसे यूरोपीय देश और नामीबिया जैसे पूर्व-औपनिवेशिक देश एक साथ आएं. साथ ही, इस सुधार एजेंडे को स्पष्ट रूप से परिभाषित करने और इसे आगे बढ़ाने का प्रयास करें.” हालांकि, हॉफ को ‘थोड़ा संदेह' है कि ऐसा होगा.
संयुक्त राष्ट्र का विकल्प क्या है?
संयुक्त राष्ट्र में बुनियादी सुधार के अब तक के सभी प्रयास विफल रहे हैं. अब एक अलग दिशा में काम चल रहा है. हॉफ कहते हैं, "विशेष रूप से चीन समानांतर संरचना बनाने की दिशा में बढ़ रहा है और फिर संयुक्त राष्ट्र के विकल्प के रूप में अपनी संरचनाओं को पेश करने की कोशिश कर रहा है. चाहे वे ब्रिक्स देश हों या G20.”
ब्रिटेन के पूर्व प्रधानमंत्री गॉर्डन ब्राउन ने ‘फॉरेन पॉलिसी' पत्रिका में लिखे अपने लेख के जरिए अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन के प्रशासन पर इसी तरह का काम करने का आरोप लगाया. उन्होंने लिखा कि वैश्विक स्तर पर एक साथ काम करने की जगह द्विपक्षीय या क्षेत्रीय समझौते किए जा रहे हैं. इससे अंतरराष्ट्रीय संस्थानों की क्षमता पर असर हो रहा है.
इन तमाम बातों के बीच हॉफ कहते हैं कि संयुक्त राष्ट्र का समर्थन करने वाली जर्मन विदेश नीति भी अब थोड़ी बदल रही है. हाल ही में हुआजी20 शिखर सम्मेलन इसका ताजा उदाहरण है. अब जर्मनी भी ऐसी संरचनाओं पर ज्यादा भरोसा कर रहा है. बहुपक्षवाद जर्मन विदेश नीति के प्रमुख शब्दों में से एक है और दशकों से है. हालांकि, ऐसा लगता है कि जर्मन सरकार भी अब सिर्फ संयुक्त राष्ट्र के बारे में नहीं सोच रही है.