रेत खनन की वजह से पर्यावरण पर पड़ रहा गंभीर असर
२९ मार्च २०२४जर्मनी के उत्तरी सागर के द्वीपों पर इस साल सर्दियों में बहुत भारी बारिश हुई और कई तूफान आए. खासकर दिसंबर के अंत में आए तूफान इतने जबरदस्त थे कि उन्होंने वहां तटों को बचाने वाले रेत के ढेरों और नहाने के लिए बनाए गए समुद्र तटों को काफी हद तक बहा दिया. सिल्ट, बोरकुम और नॉर्डेनाई जैसे द्वीपों पर समुद्र तटों को फिर से बनाने की जरूरत है. इन द्वीपों पर हर साल लाखों पर्यटक आते हैं. गर्मी की छुट्टियों से पहले इन्हें ठीक करना होगा. यह काफी बड़ा और खर्चीला काम है.
समुद्र तटों को फिर से बहाल करने की प्रक्रिया को ‘बीच नरिशमेंट' कहा जाता है. इसमें जहाजों या ट्रकों की मदद से किसी दूसरी जगह से रेत लाकर किनारों पर डाला जाता है. जर्मनी के लोअर सैक्सनी राज्य में स्थित बोरकुम और नॉर्डेनाई जैसे द्वीपों के तटों को फिर से बनाने के लिए ऐसा ही किया जाएगा. लोअर सैक्सनी की राज्य सरकार ने इस क्षेत्र के तटों को बहाल करने के लिए सात लाख यूरो तक की राशि देने का वादा किया है, क्योंकि पर्यटन यहां की आय का मुख्य स्रोत है.
पर्यावरण पर क्या असर होगा?
उत्तरी सागर के समुद्र तटों पर डाली जाने वाली रेत शायद बहुत दूर से नहीं लाई जाएगी. पिछले सालों में रेत को किनारे से थोड़ा आगे या आस-पास के द्वीपों से लाया गया था. 2017 में एक अधिकारी ने स्थानीय मीडिया चैनल को बताया था, "रेत गायब नहीं हुई है, बस कहीं और चली गई है." उदाहरण के लिए, सिल्ट द्वीप पिछले 40 वर्षों से समुद्र तल से रेत निकालकर अपने समुद्र तटों का पुनर्निर्माण कर रहा है.
समुद्र तल से रेत निकालने के लिए विशेष जहाजों का इस्तेमाल किया जाता है. ये जहाज समुद्र तट से लगभग आठ किलोमीटर दूर तलछट से रेत और पानी निकालते हैं. फिर इस मिश्रण से रेत को अलग कर लिया जाता है. निकाली गई रेत को समुद्र तट पर और समुद्र के अंदर चट्टानों वाली जगहों पर डाला जाता है. इससे समुद्र में उठने वाली ऊंची लहरों की ताकत कम हो जाती है.
भले ही यह तरीका दुनिया के दूसरे कोने से रेत लाने से बेहतर हो, लेकिन इससे भी समुद्र और नदियों पर बुरे प्रभाव पड़ते हैं. इतनी सारी रेत निकालने से पानी के अंदर रहने वाले जीव-जंतु खत्म हो सकते हैं. पक्षियों और दूसरे जानवरों के प्राकृतिक आवास नष्ट हो सकते हैं.
इससे तटीय कटाव और भू-स्खलन भी हो सकता है. जलवायु परिवर्तन के कारण यह पहले से ही बढ़ रहा है और आने वाले समय में ज्यादा तेजी से बढ़ सकता है. जैसे ही समुद्र तल से रेत निकाली जाती है, इस खाली जगह को भरने के लिए तटीय रेत बहकर वहां पहुंच जाती है. इससे समुद्र तट और भी पीछे चला जाता है. साथ ही, यह उपाय स्थायी नहीं है. डाली गई रेत जल्द ही बह जाएगी और फिर से रेत डालने की जरूरत पड़ेगी.
समुद्र तल से रेत निकालने के बुरे प्रभावों से बचने के लिए रेत को अन्य जगहों से भी लाया जा सकता है. उदाहरण के लिए, फिलीपींस में मनीला और अमेरिका में मियामी जैसे शहरों में नदियों, झीलों या जमीन के अंदर मौजूद रेत खदानों या पत्थर खदानों से रेत लाई जाती है. हालांकि, विशेषज्ञों का कहना है कि समुद्र तट के लिए उसी तरह की रेत इस्तेमाल की जाए, जो वहां पहले से मौजूद रेत जैसी हो. ऐसा न करने से समुद्र तट की वनस्पति और जीवों पर गंभीर असर पड़ सकता है क्योंकि वे उसी तरह की रेत में विकसित होने के लिए अनुकूलित हो चुके हैं.
बहुत महत्वपूर्ण संसाधन है रेत
संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम के मुताबिक, पृथ्वी पर पानी के बाद रेत दूसरा सबसे ज्यादा इस्तेमाल किया जाने वाला संसाधन है. इसका इस्तेमाल सिर्फ समुद्र तटों को दोबारा बनाने में ही नहीं किया जाता, बल्कि कई तरह के निर्माण कार्यों में भी इसका इस्तेमाल होता है. सीमेंट और शीशा बनाने के लिए भी इसकी जरूरत होती है. बता दें कि रेत पत्थरों के कणों, खनिजों और दूसरे जैविक पदार्थों का प्राकृतिक मिश्रण है. यह झीलों, नदियों और समुद्र तलों में पाई जाती है.
सिंगापुर और चीन के हांगकांग व शंघाई जैसे प्रमुख शहरों में नई जमीन तैयार करने के लिए भी रेत का इस्तेमाल किया गया है. एक खास तरह की रेत ‘सिलिका' का इस्तेमाल सिलिकॉन बनाने में किया जाता है. किसी भी तरह के सर्किट और माइक्रोचिप्स बनाने में सिलिकॉन की जरूरत होती है.
जर्मनी हर साल जहाजों के जरिए भारी मात्रा में रेत आयात करता है. डेटा इकट्ठा करने वाले प्लेटफॉर्म स्टेटिस्टा के मुताबिक, साल 2022 में जर्मनी ने करीब 15 लाख मीट्रिक टन रेत का आयात किया. इसमें सामान्य और खास तरह की रेत शामिल थी. जर्मनी रेत आयात करने वाले दुनिया के शीर्ष 10 देशों में शामिल है. अमेरिका, बेल्जियम, नीदरलैंड्स, कनाडा और चीन भी दुनिया में सबसे ज्यादा रेत आयात करने वाले देशों में शामिल हैं.
क्या रेत का कोई विकल्प है?
पृथ्वी पर सहारा जैसा विशाल रेगिस्तान है, जिसका क्षेत्रफल लगभग 90 लाख वर्ग किलोमीटर है. लेकिन वहां की रेत का ज्यादातर हिस्सा औद्योगिक कार्यों के लिए इस्तेमाल नहीं किया जा सकता. इसकी वजह यह है कि रेगिस्तान की रेत हवा के कारण छोटे गोलाकार कणों में बदल जाती है और इनका इस्तेमाल निर्माण कार्य के लिए नहीं किया जा सकता. सिर्फ नदियों, झीलों और समुद्रतल में पाई जाने वाली नुकीली रेत के कण ही आपस में अच्छी तरह चिपक पाते हैं, जिससे मजबूत कंक्रीट और अन्य उत्पाद बनाए जा सकते हैं.
तेजी से बढ़ते शहरीकरण और डिजिटलीकरण की वजह से वैश्विक स्तर पर रेत की मांग बढ़ रही है. संयुक्त राष्ट्र के आंकड़ों के मुताबिक, पिछले दो दशकों में रेत खनन तीन गुना से ज्यादा बढ़कर हर साल 50 अरब मीट्रिक टन से अधिक हो गया है.
अमेरिका अब तक का रेत का सबसे बड़ा निर्यातक है. इसने 2022 में करीब 6.3 अरब टन रेत का निर्यात किया है. यह वैश्विक निर्यात का करीब 31.5 फीसदी हिस्सा है. वहीं, रेत निर्यात में नीदरलैंड्स की हिस्सेदारी 12.4 फीसदी, जर्मनी की 8.2 फीसदी और बेल्जियम की 5.9 फीसदी है.
बढ़ती मांग की वजह से भारत, वियतनाम और चीन जैसे देशों में रेत का अवैध खनन बढ़ा है क्योंकि यहां पर्यावरण और श्रम कानून ज्यादा सख्त नहीं हैं. हालांकि अमेरिका, मलेशिया, यूरोप और कनाडा जैसे प्रमुख निर्यातक देशों में अनुमति प्राप्त खदानों से भी रेत निकालने से जैव विविधता को नुकसान हो सकता है. समुद्री धाराएं और जल स्तर पर असर पड़ सकता है.
रेत खनन से कटाव बढ़ सकता है, तटीय भूमि नष्ट हो सकती है और चरम मौसमी घटनाएं बढ़ सकती हैं. खनन से जलमार्ग प्रदूषित होते हैं, जबकि रेत को एक जगह से दूसरी जगह ले जाने से कार्बन उत्सर्जन भी होता है.
हालांकि, रेत खनन को कम करने के कई विकल्प मौजूद हैं. उदाहरण के लिए, कांच को पीसकर इसे फिर से इस्तेमाल किया जा सकता है. इन छोटे कणों को निर्माण कार्यों और समुद्र तटों को दोबारा बनाने में इस्तेमाल किया जा सकता है. साथ ही, कोयला जलाने से निकलने वाली राख का इस्तेमाल सीमेंट के साथ किया जा सकता है. इससे रेत की जरूरत कम हो सकती है.
संयुक्त राष्ट्र का कहना है कि अगर रेत निकालना वाकई जरूरी हो, तो इसे ‘सामाजिक और पर्यावरण के अनुकूल तरीके' से निकाला और ले जाया जाए. इसके अलावा, नष्ट होने की कगार पर पहुंच चुके पारिस्थितिक तंत्रों को ‘प्रकृति आधारित समाधानों' की मदद से बहाल किया जाए.