मानवता और प्रकृति को बचाने के लिए उठाने होंगे ये कदम
९ सितम्बर २०२२'अर्थ फॉर ऑल: अ सर्वाइवल गाइड फॉर ह्यूमैनिटी' किताब में दो संभावित भविष्य दिखाए गए हैं. पहला है "टू लिटिल, टू लेट". इसमें 21वीं सदी में असमानता काफी ज्यादा बढ़ जाती है, पारिस्थितिक पदचिन्ह बढ़ते हैं यानी इंसानी जरूरतों को पूरा करने के लिए प्राकृतिक संसाधनों का इस्तेमाल काफी ज्यादा बढ़ जाता है. जैव विविधता को नुकसान पहुंचता है और पृथ्वी का तापमान पूर्व-औद्योगिक स्तर के मुकाबले 2.5 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ जाता है.
दूसरा है 'द जाइंट लीप (बड़ा बदलाव)'. इसमें हम वैश्विक तापमान को 2 डिग्री सेल्सियस से नीचे स्थिर रखते हैं और 2050 तक वैश्विक अर्थव्यवस्था में संरचनात्मक बदलाव करते हुए गरीबी को समाप्त करते हैं.
किताब के छह सह-लेखकों में से एक और बीआई नॉर्वेजियन बिजनेस स्कूल में जलवायु रणनीति के रिटायर्ड प्रोफेसर जॉर्गन रैंडर्स इन दोनों रास्तों के बीच के फर्क को किसी चौराहे की तुलना में चट्टान के किनारों की तरह देखते हैं. दूसरे शब्दों में कहें, तो अब संभलने के लिए ज्यादा वक्त नहीं है. अगर अब भी देर होती है, तो काफी ज्यादा नुकसान हो सकता है.
'अर्थ फॉर ऑल' में पर्यावरण को हो रहे नुकसान और बढ़ती असमानता से जुड़े संकट से एक साथ निपटने के लिए तुरंत उचित कदम उठाने की सलाह दी गई है. किताब में तर्क दिया गया है कि स्थिति काफी गंभीर हो चुकी है, लेकिन इसे सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के 2 से 4 फीसदी निवेश के जरिए हल किया जा सकता है. यह राशि जीवाश्म ईंधन पर दी जाने वाली सालाना सब्सिडी से भी कम है.
सामूहिक कार्रवाई की जरूरत
किताब की प्रस्तावना में कोस्टा रिका के राजनयिक और पेरिस जलवायु समझौता तैयार करने वालों में से एक क्रिस्टियाना फिगुएरेस वैश्विक नीति में बदलाव के मामले पर लिखते हैं, "सिस्टम में बड़े पैमाने पर बदलाव व्यक्तिगत रूप से शुरू होता है. इसकी शुरुआत इस बात से होती है कि हम किस चीज को प्राथमिकता देते हैं. हम किन चीजों के लिए खड़े होने को तैयार हैं और हम दुनिया में खुद को किस तरह दिखाना चाहते हैं."
रैंडर्स का भी मानना है कि सिर्फ कानून बनाने वाले लोग ही हमें चट्टान के किनारे से वापस नहीं ला सकते. सिर्फ कानून बनाकर इस समस्या को हल नहीं किया जा सकता. उपभोक्ताओं की गतिविधियां भी मायने रखती हैं. जैसे इलेक्ट्रिक कार खरीदना या गैस का इस्तेमाल करने की जगह हीट पंप खरीदना. हालांकि, उनका मानना है कि हमें 'सामूहिक कार्रवाई' को पूरी तरह अपनाने की जरूरत है.
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रैंडर्स कहते हैं, 'और सबसे जरूरी संदेश है सही लोगों को वोट करना. हमें उन नेताओं या राजनीतिक पार्टियों को सत्ता में लाना चाहिए, जो मजबूत सरकार की तरह काम करें और पर्याप्त टैक्स लगाकर ऐसे समाधानों पर खर्च कर सकें जिनकी हमें जरूरत है.'
आर्थिक बदलाव के लिए रोडमैप
किताब में इन समाधानों को पांच 'असाधारण बदलाव' के तौर पर पेश किया गया है: अंतरराष्ट्रीय वित्तीय प्रणाली में सुधार के माध्यम से गरीबी को समाप्त करना. यह सुनिश्चित करना कि देश के सबसे धनी 10 फीसदी लोगों की हिस्सेदारी राष्ट्रीय आय में 40 फीसदी से ज्यादा न हो. लैंगिक भेदभाव खत्म करते हुए महिलाओं को सशक्त बनाना. खाद्य प्रणाली में बदलाव करना और 2050 तक पूरी दुनिया में कार्बन उत्सर्जन को शून्य पर लाने के लिए स्वच्छ ऊर्जा के संसाधनों का इस्तेमाल करना.
इन लक्ष्यों को हासिल करने के लिए 15 नीतियों को लागू करने की सिफारिश करते हुए किताब में एक रोडमैप की रूपरेखा भी पेश की गई है. इनमें से कई नीतियां सीधे तौर पर जलवायु से संबंधित हैं. इनमें पर्यावरण को संरक्षित करने वाले क्षेत्र में रोजगार पैदा करने के लिए आईएमएफ के जरिए गरीब देशों को हर साल 10 खरब डॉलर की राशि देना, नवीकरणीय ऊर्जा के नए स्रोत स्थापित करने के लिए हर साल 10 खरब डॉलर से अधिक का वैश्विक निवेश बढ़ाना, हर चीज का विद्युतीकरण करना, जीवाश्म ईंधन के इस्तेमाल को चरणबद्ध तरीके से बंद करना और खेती के लिए नई जमीन तैयार करने पर रोक लगाना शामिल है.
पुस्तक के 'जायंट लीप' परिदृश्य में बताया गया है कि 2050 तक खाद्य प्रणाली फिर से उत्पादन वाली हो जाएगी. खाने की बर्बादी को कानून के जरिए नाटकीय रूप से कम किया जाएगा और स्थानीय खाद्य उत्पादन को आर्थिक रूप से प्रोत्साहित किया जाएगा.
वैश्विक असमानता से निपटना
रैंडर्स बताते हैं कि इस बड़े पैमाने पर बदलाव को सफल बनाने के लिए 'धन के फिर से बंटवारे के लिए असाधारण कार्रवाई' की जरूरत होगी, क्योंकि असमानता और धरती की बर्बादी आपस में जुड़ी हुई है. वह कहते हैं, "अगर आने वाले समय में भी इसी तरह के हालात (असमानता) बने रहते हैं, तो तापमान बढ़ता रहेगा."
किताब में बड़े स्तर पर समानता लाने की बात कही गई है. इससे 'जायंट लीप' के लिए वित्तीय सहायता पहुंचाने में मदद मिलेगी. लेखक का अनुमान है कि समानता लाए बिना जलवायु परिवर्तन से निपटना मुश्किल होगा, क्योंकि समाज गरीबी और अन्य तनावों में उलझा रहेगा.
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किताब में बताया गया है कि इसके लिए दुनिया में सबसे अमीर 10 फीसदी लोगों पर टैक्स की दर बढ़ानी होगी. पेरिस स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स की ओर से पेश की गई वर्ल्ड इनइक्वालिटी रिपोर्ट के मुताबिक फिलहाल वैश्विक आय का 52 फीसदी हिस्सा इन्हीं 10 फीसदी लोगों के पास जाता है और ये लोग औसतन 1,22,000 डॉलर कमाते हैं.
किताब में यह भी कहा गया है कि सामाजिक संसाधनों का इस्तेमाल करने या उन्हें प्रदूषित करने के लिए निजी क्षेत्र से शुल्क लिया जाना चाहिए. जैसे जमीन, पीने का पानी, और वातावरण. इन सबसे जो धन इकट्ठा हो, उसे नागरिक कोष में डाल देना चाहिए और जनसंख्या के मुताबिक सभी लोगों के बीच बांट देना चाहिए.
स्वच्छ ऊर्जा के लिए सब्सिडी
रैंडर्स कहते हैं कि धन या संसाधनों के संतुलित बंटवारे से ऊर्जा के स्रोत में बदलाव के लिए आर्थिक सहायता देने में मदद मिलेगी. यह बड़े पैमाने पर सब्सिडी के जरिए ही संभव हो सकेगा. उन्होंने कहा, "बाजार और स्वैच्छिक कार्रवाई पर भरोसा करने की जगह हम ऐसे सिस्टम की शुरुआत कर सकते हैं, जिसके पास पर्याप्त फंड हो और जो वाकई पर्यावरण के लिहाज से दुनिया को बेहतर बनाने के लिए सतत विकास परियोजनाओं पर खर्च करे."
साथ ही, यह सुनिश्चित करना होगा कि जलवायु को बेहतर बनाने वाले कार्यक्रमों को पर्याप्त धन उपलब्ध कराया जा रहा हो. रैंडर्स कहते हैं, "इन पांच समस्याओं को हल करने के लिए सभी तकनीकें मौजूद हैं. इसलिए आपको यह पूछने की जरूरत है कि हमने अभी तक ये कदम क्यों नहीं उठाए."
उनका मानना है कि इसकी मूल वजह यह है कि दुनिया के सबसे धनी लोगों द्वारा संसाधनों के अति-इस्तेमाल की वजह से यह संकट पैदा हुआ है. जब तक हम ऐसी स्थिति में नहीं आते, जहां अमीर लोग इस नुकसान की भरपाई के लिए भुगतान करें, तब तक हम किसी भी तरह की कार्रवाई को लेकर लोकतांत्रिक तरीके से समझौता नहीं कर सकते.
हर हाल में कार्रवाई की जरूरत
जलवायु को बेहतर बनाने की दिशा में यह कोई पहली बाधा नहीं है, जो रैंडर्स के सामने आई है. 1972 में वह 'द लिमिट्स ऑफ ग्रोथ' के सह-लेखक थे, जिसमें तर्क दिया गया था कि ऊर्जा और संसाधनों की भौतिक खपत अनिश्चित काल तक जारी नहीं रह सकती है. पर्यावरणविद् बिल मैककिबेन कहते हैं, "अगर हमने इस किताब पर ध्यान दिया होता, तो हम आज जिस स्थिति में हैं, उसमें नहीं होते."
पिछले 50 वर्षों में पर्याप्त कार्रवाई न होने की वजह से रैंडर्स की उम्मीदें थोड़ी कम हो गई हैं. वह कहते हैं कि इन सबके बीच अच्छी बात यह है कि 'अर्थ फॉर ऑल' से जुड़े अन्य शिक्षाविद मानते हैं कि पेरिस समझौते जैसी बड़ी उपलब्धियों से उम्मीद जगी है कि हमारा समाज बड़ी कार्रवाई करने में सक्षम है.
रैंडर्स कहते हैं कि यह पुस्तक सिर्फ पढ़ने के इरादे से नहीं लिखी गई है, बल्कि इसका मकसद नागरिक समाज समूहों को इस बात के लिए प्रेरित करना है कि वे इन विषयों को लेकर 'मजबूत वैश्विक गठबंधन' बना सकें.
वह कहते हैं, "हमें तत्काल कार्रवाई करने की जरूरत है. इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि चीजें हमारे मुताबिक हो रही हैं या नहीं. हमें लोगों को यह समझाने के लिए कड़ी मेहनत करनी होगी कि ये मुद्दे उनके लिए महत्वपूर्ण क्यों हैं. उन्हें यह समझाना होगा कि वे इस आंदोलन में शामिल हों, ताकि अमीरों को नुकसान की भरपाई करने के लिए मजबूर किया जा सके."
रिपोर्ट: हॉली यंग