बिना सुनवाई यूरोप की जेलों में सालों से बंद हैं जो लोग
१० जून २०२२अप्रैल 2021 में बर्लिन जिला अदालत में पेश किए गए 19 वर्षीय लड़के पर इत्र की दो बोतलें चुराने का इल्जाम था. ला वी एस्ट बेले ब्रांड के इत्र की इन दो बोतलों को उसने लैंकम स्टोर से चुराया था. जिस समय उसे गिरफ्तार किया गया वो क्रिस्टल मेथ नाम की नशीली दवा का बुरी तरह से आदी था और बर्लिन के रेलवे स्टेशनों पर ही उसका ठिकाना हुआ करता था. बेघर और नशे का लती होने के कारण मजिस्ट्रेट ने आदेश दिया कि जब तक उसका मुकदमा चले, उसे जेल में ही रखा जाए ताकि पेशी के दौरान कोर्ट में वो समय पर हाजिर हो सके.
पत्रकार और वकील रोनेन श्टाइनके अपनी पुस्तक "फॉर डेम गेज़ेट्स ज़िंड निश्ट आले ग्लाइश" (कानून के आगे सभी एक जैसे नहीं हैं) में लिखते हैं कि जर्मनी में हर साल हजारों की संख्या में ऐसे मामले सामने आते हैं. साल 2020 में जर्मनी में करीब 27,500 लोग ट्रायल से पहले ही हिरासत में लिए गए थे जिनमें से सिर्फ 3 फीसद लोगों के खिलाफ ही चार्जशीट दाखिल हुई. इससे संबंधित एक आंकड़ा यह भी है कि जनवरी 2021 में जर्मनी की जेलों में बंद 60 हजार लोगों में से 12 हजार सिर्फ शक के आधार पर जेलों में बंद थे, उन्हें किसी तरह की सजा नहीं हुई थी.
यूरोपीय संघ के दूसरे देशों में बिना सजा पाए कैदियों का अनुपात जर्मनी से भी ज्यादा है. पूरे यूरोपीय संघ में करीब एक लाख लोग बिना ट्रायल के ही जेलों में बंद हैं. कुछ जगहों पर तो ऐसे लोग करीब एक साल से बंद हैं.
मामूली अपराधों में पकड़े गए
ट्रायल से पहले हिरासत में जिन्हें रखा जाता है, उसका एक खास पैटर्न दिखाई पड़ता है. मसलन, जर्मनी में कुल कैदियों में से करीब 12 फीसद विदेशी हैं. संघीय आंकड़ों के मुताबिक, ट्रायल पूर्व हिरासत में रखे जाने वाले विदेशियों की संख्या करीब 60 फीसद है. हिरासत में रखे गए ज्यादातर कैदी बेरोजगार होते हैं और आधे से ज्यादा तो बेघर होते हैं.
जर्मनी में ट्रायल से पहले हिरासत में रखे गए करीब एक तिहाई लोग मामूली अपराधों में पकड़े गए होत हैं- मसलन, दुकान से कुछ चुरा लेना इत्यादि. फ्री यूनिवर्सिटी ऑफ बर्लिन में क्रिमिलन लॉ और जेंडर स्टडीज के प्रोफेसर क्रिस्टीन मॉर्गेन्स्टर्न ने यूरोप में प्रीट्रायल डिटेंशन पर अपनी पोस्टडॉक्टोरल थीसिस लिखी है. वो कहती हैं, "ये लोग खासतौर पर कॉफी या एनर्जी ड्रिंक्स की बोतलें चुराते हुए, मांस सलाद या फिर ऐसी ही कुछ छोटी-मोटी चीजें चुराते हुए पकड़े जाते हैं.”
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शोध बताते हैं कि यह स्थिति सिर्फ जर्मनी की ही नहीं है, हालांकि आंकड़े उतने व्यवस्थित नहीं हैं. मॉर्गेन्स्टर्न कहती हैं, "हमने अपने अध्ययन में पाया है कि यूरोप के दूसरे देशों में प्रीट्रायल डिटेंशन का पैटर्न लगभग यही है. यहां तक कि उन देशों में भी जो ज्यादा उदार नीतियां अपनाने का दंभ भरते हैं.”
परीक्षण से पहले हिरासत में रखे जाने संबंधी आदेश देने से पहले जजों को इस बारे में जरूर सोचना चाहिए कि क्या अभियुक्त सबूतों से छेड़छाड़ कर सकता है, क्या गवाहों को प्रभावित कर सकता है और सबसे अहम बात यह कि कहीं ऐसा तो नहीं कि रिहा कर देने पर वह भाग जाए? जर्मनी में ट्रायल से पहले हिरासत में रखने के आदेश के पीछे सबसे बड़ी वजह यही थी कि जजों को अभियुक्त के भागने की आशंका थी. 95 फीसद मामलों में इसी आशंका को ध्यान में रखते हुए ट्रायल से पहले हिरासत में रखे जाने के आदेश हुए हैं.
सैद्धांतिक रूप से, इस मामले में जजों को ठोस सबूतों के आधार पर अभियुक्त के बारे में व्यक्तिगत जानकारी के आधार पर फैसला करना चाहिए. क्रिमिनल डिफेंस वकील लारा वोल्फ कहती हैं कि वास्तविकता इससे बिल्कुल अलग है, "हम लोगों को भावनाओं, अनुमान और निजी सोच के आधार पर सलाखों के पीछे बंद कर देते हैं.”
अपनी डॉक्टोरल थीसिस में किए गए शोध के आधार पर वो कहती हैं कि व्यक्तिगत स्तर पर यह आसानी से पता लगाया जा सकता है कि कौन व्यक्ति हिरासत से रिहा होने के बाद भाग सकता है और कौन नहीं.
ज्यादातर जज गरीब लोगों को ही हिरासत में भेजते हैं
वोल्फ की थीसिस के मुताबिक, किसी ठोस सबूत के अभाव में जज अपने हिसाब से अपने अनुभव के आधार पर फैसले लेते हैं. कानूनी फैसलों से संबंधित तमाम केस स्टडी और जजों के इंटरव्यू के आधार पर यह कहा जा सकता है कि विदेशों से संपर्क होने की स्थिति में किसी अभियुक्त के भाग जाने का अंदेशा ज्यादा रहता है, वैसे ही जैसे अभियुक्त के बेघर, बेरोजगार और अशिक्षित होने की स्थिति में. 1980 के दशक के उत्तरार्ध में कुछ जजों ने सलाह दी थी कि हेट्रोसेक्सुअल संबंध रखने वालों की तरह होमोसेक्सुअल लोगों में भागने की प्रवृति घटती होती है, क्योंकि उनमें प्रतिबद्धता की कमी होती है. इसका नतीजा यह होता है कि गरीब तबके के लोग ट्रायल से पहले ही हिरासत में ले लिए जाते हैं.
वोल्फ ने जर्मनी में 169 मामलों का विश्लेषण किया जिसमें जजों ने अभियुक्तों के भागने की आशंका जताई थी लेकिन अभियुक्त को अदालती कार्यवाही की वजह से रिहा कर दिया गया था. वो कहती हैं, "मैं हैरान थी कि परिणाम कितने स्पष्ट थे.”
14 मामलों में अभियुक्त मुकदमे के लिए उपस्थित हुए. अपने इलाके में कुछ इसी तरह का शोध कर रहे एक वकील का कहना है कि उसने अपने अध्ययन में पाया कि 65 ऐसे मामलों में सिर्फ एक अभियुक्त फरार हुआ. वोल्फ कहती हैं, "इस तरह से कुछ चीजें ऐसी गलत हो रही हैं कि यह पूरी प्रक्रिया ही गैरकानूनी लगती है. मुझे अभी भी यह चौंकाने वाला लगता है कि हम लोगों को भावनाओं और ऐसे गलत अनुमानों के आधार पर लॉक अप में बंद कर देते हैं जिसकी कभी जांच ही नहीं होती.”
जर्मन जजेस एसोसिएशन और बर्लिन सीनेट डिपार्टमेंट फॉर जस्टिस, डाइवर्सिटी एंड एंटी डिस्क्रिमिनेशन ने इन अध्ययन के निष्कर्षों पर टिप्पणी करने से इनकार कर दिया है.
ट्रायल पूर्व हिरासत सजायाफ्ता कैद की तुलना में कहीं ज्यादा कठोर होती है. लोग दिन में 23 घंटे लॉक अप में बंद रहते हैं और बाहरी दुनिया से संपर्क के लिए उनके पास बहुत कम समय होता है. मॉर्गेन्स्टर्न कहती हैं कि ऐसे लोगों के लिए जेल में काम के लिए भुगतान और सामाजिक कार्यक्रम जैसी सुविधाएं नहीं होती हैं. दूसरी बात यह कि ये लोग इस गफलत में भी हर वक्त रहते हैं कि उन्हें ट्रायल के बाद सजा मिलेगी या फिर वो निर्दोष छूट जाएंगे. मॉर्गेन्स्टर्न कहती हैं, "किसी भी व्यक्ति के लिए यह बहुत ही असहज, अस्थिर और भयावह स्थिति होती है.”
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करीब आधे लोग निर्दोष
ट्रायल पूर्व स्थिति ऐसी होती है जो कई बार लंबी खिंच जाती है. इस तरह से हिरासत में लिए गए करीब 80 फीसद लोगों को कई बार तीन-तीन महीने तक लॉक अप में ही बिताने पड़ते हैं.
जर्मन कानून कहता है कि ट्रायल से पहले हिरासत में बिताया गया समय संभावित सजा के अनुपात में होना चाहिए. सजा मिलने के बाद हिरासत में बिताए गए दिनों को सजा की अवधि में से कम कर दिया जाता है.
लेकिन करीब आधे मामलों में लोगों को सजा नहीं होती है और उन्हें हिरासत में लंबा समय बिताना पड़ जाता है. अभियोजन के आंकड़ों से पता चलता है कि करीब तीस फीसद लोगों को हिरासत में रखने के कारण उनकी बाद की सजा निलंबित कर दी गई. दस फीसद लोगों पर सिर्फ जुर्माना लगाया गया और सात फीसद लोग इस आधार पर छोड़ दिए गए कि वो समाज सेवा करेंगे या फिर पुनर्वास कार्यक्रमों में मदद करेंगे या फिर उन पर लगे आरोप वापस ले लिए गए.
वैसे अदालतों के पास इसके कुछ वैकल्पिक उपाय भी हैं. यूरोपीय संघ की कानूनी व्यवस्था अभियुक्तों को उनके अपने देश में ले जाकर मुकदमा चलाने और हिरासत में रखने की बजाय प्रत्यर्पण करने की आजादी देती है लेकिन मॉर्गर्स्टर्न कहती हैं कि "इन विकल्पों का शायद ही कभी इस्तेमाल होता हो.”
ट्रायल पूर्व हिरासत की बजाय कुछ लोग इस बात के पक्षधर हैं कि अभियुक्तों की उनके घरों में ही इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों के जरिए निगरानी की जाए. इटली और बेल्जियम में इस तरीके का इस्तेमाल काफी आम है. लेकिन मॉर्गेन्स्टर्न कहती हैं कि इससे हिरासत में रह रहे अभियुक्तों की संख्या में कमी नहीं आई है. वो कहती हैं, "बेल्जियम में वैकल्पिक तरीकों का खूब प्रयोग होता है लेकिन इसके बावजूद हिरासत में लोग रखे जाते हैं. हम लोग इसे नेट वाइडेनिंग कहते हैं. ऐसी स्थिति में स्वतंत्रता के अधिकारों की बात बेमानी हो जाती है.”
जेलों में भीड़
ट्रायल से पहले ही हिरासत में रखे जाने की वजह से जेलों में भी काफी भीड़ हो गई है. यूरोपीय संघ के हर तीसरे देश की जेलों में क्षमता से ज्यादा कैदी रखे गए हैं. कोविड महामारी के दौरान इस वजह से कई समस्याएं आ गई थीं. डीडब्ल्यू की पड़ताल में पता चलता है कि छोटे कमरे और स्वच्छता की खराब स्थिति के कारण ऐसी जगहों पर कोरोना जैसी बीमारियों का प्रसार काफी तेजी से होता है.
यदि सभी ट्रायल पूर्व हिरासत में रखे गए लोगों को रिहा कर दिया जाए तो यूरोपीय संघ के सभी देशों में जेलों में भीड-भाड़ को खत्म किया जा सकता है. हालांकि कुछ मामलों में ट्रायल से पहले भी हिरासत में रखना जरूरी हो जाता है लेकिन इस स्थिति को यदि कम कर दिया जाए तो न सिर्फ जेलों पर बोझ कम होगा बल्कि वहां रहने वाले कैदी भी एक बेहतर वातावरण में रह सकेंगे.