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श्रीलंका के एक वीरान टापू की लोकसभा चुनावों पर छाया

१ अप्रैल २०२४

लोकसभा चुनावों के अभियान के दौरान बीजेपी और विपक्ष के बीच श्रीलंका के एक वीरान टापू कच्चतीवू को लेकर बहस छिड़ी हुई है. भारत ने 1974 में ही दो वर्ग किलोमीटर से भी छोटे इस टापू पर श्रीलंका के अधिकार को स्वीकार कर लिया था.

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प्रधानमंत्री मोदी
प्रधानमंत्री मोदी कच्चतीवू के मसले पर बीजेपी के अभियान का नेतृत्व कर रहे हैंतस्वीर: Altaf Qadri/AP Photo/picture alliance

भारत के विदेश मंत्री एस जयशंकर ने एक प्रेस वार्ता में कच्चतीवू का मुद्दा उठाया. उन्होंने दावा किया कि कांग्रेस के प्रधानमंत्रियों ने इस मुद्दे पर उदासीनता दिखाई और भारतीय मछुआरों के अधिकारों का समर्पण कर दिया. उन्होंने आरोप लगाया कि डीएमके भी इसमें शामिल रही है और वह कांग्रेस के साथ मिल कर इस स्थिति के लिए जिम्मेदार है.

जयशंकर से पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म एक्स पर यह मुद्दा उठाया था. मोदी ने सबसे पहले 31 मार्च को टाइम्स ऑफ इंडिया की एक रिपोर्ट साझा करते हुए एक्स पर लिखा कि कुछ नए तथ्य दिखा रहे हैं कि कांग्रेस ने कैसे "संवेदनहीन ढंग से" कच्चतीवू दे दिया.

उस रिपोर्ट में तमिलनाडु में बीजेपी के अध्यक्ष के. अन्नामलई द्वारा आरटीआई के माध्यम से हासिल किए गए कुछ दस्तावेजों का जिक्र था. अखबार ने दावा किया कि ये दस्तावेज दिखाते हैं कि भारत के "ढुलमुल" रवैये से 1974 में श्रीलंका को टापू पर मालिकाना अधिकार दे दिया गया.

क्या है कच्चतीवू विवाद

कच्चतीवू भारत और श्रीलंका के मुख्य भूभागों के बीच स्थित एक छोटा सा द्वीप है. कुछ रिपोर्टों के मुताबिक, इसका कुल इलाका दो वर्ग किलोमीटर से भी छोटा है. अंग्रेजों के भारत आने से पहले यह रामेश्वरम के रामनाथ साम्राज्य का हिस्सा था. बाद में यह मद्रास प्रेसीडेंसी का हिस्सा बन गया, लेकिन श्रीलंका भी इस पर स्वामित्व का दावा कर रहा था.

1974 तक दोनों देशों के बीच टापू के स्वामित्व को लेकर विवाद रहा, लेकिन 1974 में हुए एक द्विपक्षीय समझौते के तहत तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की सरकार ने श्रीलंका के दावे को स्वीकार कर लिया. उसके बाद से इस टापू के आसपास समुद्र में मछली पकड़ने के लिए दोनों देशों के मछुआरों के अधिकार को लेकर समय-समय पर विवाद उठता रहा है.

तमिलनाडु के ये मछुआरे बने कछुओं के रक्षक

1991 में तमिलनाडु की तत्कालीन मुख्यमंत्री जे. जयललिता ने केंद्र सरकार से अपील की थी वो कच्चतीवू को वापस ले ले. तमिलनाडु विधानसभा में टापू को वापस लेने के इरादों की घोषणा करते हुए प्रस्ताव भी पारित किए गए. 2008 में जयललिता इसके लिए सुप्रीम कोर्ट गईं.

2013 में इसी मांग को लेकर डीएमके के अध्यक्ष करुणानिधि भी सुप्रीम कोर्ट गए, लेकिन 2014 में यह न्यायिक लड़ाई खत्म हो गई जब केंद्र ने अदालत से कहा कि कच्चतीवू श्रीलंका का हिस्सा है. तमिलनाडु के मौजूदा मुख्यमंत्री एम के स्टालिन ने मोदी से भी इस बारे में अपील की और अन्नामलई ने कहा कि मोदी द्वीप को वापस भारत का हिस्सा बना सकते हैं. श्रीलंका हमेशा से यह टापू भारत को देने से इनकार करता रहा है.

चुनावी माहौल

बीजेपी लोकसभा चुनावों में तमिलनाडु में अच्छा प्रदर्शन करने की पूरी कोशिश कर रही है और कच्चतीवू का मुद्दा अब इसी कोशिश का हिस्सा बन गया है. हालांकि देखना होगा यह मुद्दा राज्य में कितना असर कर पाता है. कांग्रेस और डीएमके पर बीजेपी के हमलों के बीच एक और आरटीआई आवेदन का नतीजा सामने आया है.

इसमें कहा गया है कि 2015 में जब जयशंकर विदेश सचिव थे, तब विदेश मंत्रालय ने एक बयान में कहा था कि इस द्वीप को 1974 में श्रीलंका का हिस्सा मानने में भारत के किसी भी हिस्से का समर्पण नहीं किया गया था क्योंकि इस इलाके को कभी चिह्नित ही नहीं किया गया था.

इसी के साथ कांग्रेस के वरिष्ठ नेता पी चिदंबरम ने कहा है कि पिछले 50 सालों में दोनों देशों ने एक-दूसरे के मछुआरों को गिरफ्तार किया है और भारत में हर सरकार ने श्रीलंका से बातचीत कर भारतीय मछुआरों को छुड़ाया भी है. उन्होंने यह भी कहा कि यह बतौर विदेश मंत्री जयशंकर के कार्यकाल के दौरान भी हुआ है और तब भी हुआ था, जब जयशंकर एक विदेश सेवा अधिकारी और फिर विदेश सचिव थे.