जज के टीवी इंटरव्यू से सुप्रीम कोर्ट नाराज, छीना मुकदमा
२८ अप्रैल २०२३मामला पश्चिम बंगाल के मशहूर शिक्षा घोटाले से संबंधित है, जिसमें राज्य के पूर्व शिक्षा मंत्री, कई नेताओं और राज्य सरकार के कई अधिकारियों पर आरोप है कि उन्होंने पैसे लेकर राज्य के स्कूलों में शिक्षकों और अन्य पदों पर लोगों को नौकरियां दीं.
इस मामले में सीबीआई और ईडी जांच कर रही हैं और पूर्व शिक्षा मंत्री पार्था चटर्जी समेत कई लोग जेल में हैं. कलकत्ता हाई कोर्ट के जज न्यायमूर्ति अभिजीत गंगोपाध्याय इस मामले की सुनवाई कर रहे थे. उन्हीं के आदेश पर जांच सीबीआई को सौंपी गई थी.
क्या है मामला
सितंबर 2022 में न्यायमूर्ति गंगोपाध्याय ने एबीपी आनंदा टीवी चैनल को एक साक्षात्कार दिया था जिसमें उन्होंने कहा था कि न्यायपालिका का एक धड़ा बीजेपी से मिला हुआ है यह कहने के लिए तृणमूल कांग्रेस के महासचिव अभिषेक बनर्जी को तीन महीने की जेल की सजा होनी चाहिए.
उन्होंने यह भी कहा था कि उन्हें मालूम है कि इस साक्षात्कार पर विवाद होगा लेकिन वो जो भी कर रहे हैं वो 'बैंगलोर प्रिंसिपल्स ऑफ जुडिशल कंडक्ट' के अनुकूल है, जिसमें यह कहा गया है कि जजों को अभिव्यक्ति की आजादी होती है लेकिन उन्हें न्याय के दायरे में ही बात करनी चाहिए.
13 अप्रैल 2023 को न्यायमूर्ति गंगोपाध्याय ने ईडी और सीबीआई से कहा कि उन्हें जल्द ही बनर्जी से पूछताछ करनी चाहिए. उन्होंने यह भी आदेश दिया कि इस घोटाले की जांच कर रहे ईडी और सीबीआई के किसी भी अधिकारी के खिलाफ किसी भी पुलिस स्टेशन के अधिकारियों को एफआईआर नहीं लिखनी चाहिए.
इस आदेश के खिलाफ बनर्जी ने सुप्रीम कोर्ट में अपील की और अपनी अर्जी में सितंबर के टीवी साक्षात्कार के बारे में भी बताया और उसके लिखित प्रतिलिपि सुप्रीम कोर्ट को दी. 24 अप्रैल को सुप्रीम कोर्ट ने न्यायमूर्ति गंगोपाध्याय के इस तरह साक्षात्कार देने पर आपत्ति जताई थी.
सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा था कि जजों को उनके सामने लंबित मामलों को लेकर मीडिया को साक्षात्कार बिल्कुल भी नहीं देने चाहिए. हाई कोर्ट द्वारा लिखित प्रतिलिपि को प्रमाणित करने के बाद सुप्रीम कोर्ट ने आदेश दिया कि कलकत्ता हाई कोर्ट अब यह मामला किसी भी दूसरे जज को सौंप दे.
क्या मीडिया से बात नहीं कर सकते जज
भारत में जजों की कोई आचार संहिता नहीं है. कुछ अलग अलग घोषणापत्र हैं जिन्हें दिशानिर्देशों के रूप में माना जाता है. इनमें संविधान के तीसरे शिड्यूल में दी गई सुप्रीम कोर्ट के जजों द्वारा ली जाने वाली शपथ, रीस्टटेमेंट ऑफ वैल्यूज ऑफ जुडिशल लाइफ (1999) और बैंगलोर प्रिंसिपल्स ऑफ जुडिशल कंडक्ट (2002) शामिल हैं.
तीसरे शिड्यूल में दी गई शपथ तो एक लाइन की है. उसमें विस्तार से जजों के आचरण पर चर्चा नहीं है. लेकिन 'रीस्टटेमेंट ऑफ वैल्यूज ऑफ जुडिशल लाइफ' में मीडिया को साक्षात्कार देने से स्पष्ट रूप से मना किया गया है. साथ ही यह भी लिखा है कि जजों से उम्मीद यह की जाती है कि वो अपने फैसलों को खुद अपने लिए बोलने देंगे.
इसके अलावा यह भी लिखा है कि जज ना सार्वजनिक बहस में पड़ेंगे और राजनीतिक मुद्दों, लंबित मामलों या ऐसे मामले जिनकी न्यायिक समीक्षा की जरूरत पड़ सकती है, इन पर सार्वजनिक रूप से अपनी राय नहीं रखेंगे.
जिस बैंगलोर प्रिंसिपल्स ऑफ जुडिशल कंडक्ट का हवाला न्यायमूर्ति गंगोपाध्याय ने दिया था उसमें यह तो लिखा है कि जजों को अभिव्यक्ति की आजादी का अधिकार होता है लेकिन यह भी लिखा है कि जजों को सार्वजनिक तौर पर ऐसी कोई भी टिप्पणी नहीं करनी चाहिए जिससे किसी व्यक्ति या किसी मुद्दे की न्यायसंगत सुनवाई पर असर पड़े.
कई जानकार भी इस मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले को सही ठहरा रहे हैं. विधि सेंटर फॉर लीगल पॉलिसी के सह-संस्थापक आलोक प्रसन्ना कहते हैं कि ऐसा नहीं है कि जजों को साक्षात्कार नहीं देने चाहिए, बल्कि कई जज अक्सर साक्षात्कार देते रहते हैं.
प्रसन्ना ने डीडब्ल्यू से कहा, "लेकिन इन साक्षात्कारों में विचाराधीन मामलों पर टिप्पणी नहीं करनी चाहिए. कोई जज अगर ऐसा करता है तो वो आम लोगों के मन में अपनी और अदालत की निष्पक्षता पर संदेह के जन्म का कारण बनता है."