लेकिन म्यांमार की सैन्य सरकार तो इन तमाम अटकलों को धता बताते हुए कूटनीतिक शतरंज की कई लम्बी चालें चल गयी. आसियान के जनरल लाई को न बुलाने के जवाब में म्यांमार ने पहले तो आसियान पर भेदभाव और आसियान चार्टर के उल्लंघन का आरोप लगाया और उसके बाद आसियान शिखर वार्ता में भाग लेने से ही मना कर दिया. इस अप्रत्याशित कदम से आसियान सकते में आ गया है क्योंकि दक्षिणपूर्व एशिया के देशों के इस क्षेत्रीय संगठन ने पहले से ही म्यांमार में लोकतंत्र बहाली के मुद्दे पर रुक-रुक कर और गिने चुने ही कदम ही उठाए हैं. फरवरी 2021 में जब आंग सान सू ची की लोकतांत्रिक सरकार को सैन्य तख्तापलट के जरिये गिरा दिया गया था तब भी इस मामले से सीधे तरीके से निपटने में आसियान को दो महीने लगे थे.
वार्ताओं के तमाम दौर चले और म्यांमार के जनरलों से बातचीत और चिंतन-मंथन के बाद आसियान और म्यांमार की सरकार के बीच पांच बिंदुओं पर समझौता हुआ और इसे फाइव पॉइंट कंसेंसस की संज्ञा दी गई. लेकिन म्यांमार की सैन्य सरकार अपने वादे से मुकर गई. उसने एक भी मुद्दे पर ईमानदारी से आसियान प्रतिनिधियों का साथ नहीं दिया. अंतरराष्ट्रीय समुदाय और लोकतंत्र समर्थक गैर सरकारी संगठनों के तमाम विरोधों के बावजूद आसियान ने म्यांमार से बहुत सख्ती नहीं अपनाई. अप्रैल में फाइव पॉइंट कंसेंसस पर सहमति के बावजूद अक्टूबर तक म्यांमार की सैन्य सरकार के सहयोग की उम्मीद की गई.
आसियान की हिचक
अक्टूबर की आसियान शिखर वार्ता के पहले भी जब आसियान ने जनरल लाई के शिरकत करने पर पाबंदी लगाईं थी, तब भी बात न बिगाड़ने और वार्ता की गुंजाइश बनाये रखने के लिए म्यांमार को कोई गैरराजनीतिक प्रतिनिधि या वरिष्ठ सरकारी अफसर भेजने अनुमति दी गई थी. यही नहीं, आंग सान सू ची की समर्थक और सैन्य सरकार विरोधी निर्वासित सरकार, नेशनल यूनिटी गवर्नमेंट को भी आसियान ने आधिकारिक तौर पर न मान्यता दी और न ही आसियान शिखर वार्ता में शिरकत का मौका दिया. लेकिन इसके बावजूद म्यांमार की सैन्य सरकार ने सहयोग की कोई पहल नहीं दिखाई.
अगर म्यांमार के नजरिये से देखा जाय तो सम्मेलन में शिरकत न करके वो एक ओर आसियान और उसके डायलॉग पार्टनरों के हाथों होने वाली फजीहत से बच गया और दूसरी ओर आसियान को एक संदेश भी दे दिया कि अगर म्यांमार से दोस्ती और संबंध कायम रखने हैं तो सैन्य सरकार को मान्यता और सम्मान दोनों ही देना पड़ेगा. म्यांमार की सेना जिसे तातमदाव के नाम से जाना जाता है, के लिए कोई भी बाहरी हस्तक्षेप खतरनाक है. उनके लिए सत्ता बचाकर रखने से महत्वपूर्ण और कुछ नहीं है. रहा सवाल आसियान की दबी छुपी धमकियों का, तो उनका असर कुछ नहीं होगा यह तो सभी को पता है.
म्यांमार का सोचा समझा रिस्क
म्यांमार को बखूबी मालूम है कि उसे चीन और रूस का समर्थन प्राप्त है. पड़ोसी थाईलैंड और भारत भी स्थिरता के नाम पर म्यांमार में सैन्य शासन को स्वीकार कर ही रहे हैं. दिक्कत सिर्फ पश्चिमी देशों की है. पर अमेरिका और यूरोप का साथ तो म्यांमार को वैसे भी नहीं मिला. इससे साफ जाहिर है कि शिखर सम्मलेन में न आने और आसियान की दबाव की नीति का जवाब देने में म्यांमार ने एक सोचा समझा जोखिम लिया है और फिलहाल यह म्यांमार की सैन्य सरकार के फायदे में ही दिख रहा है.
जहां तक आसियान का सवाल है तो म्यांमार की अनुपस्थिति से आसियान की अहस्तक्षेप की नीति पर व्यापक बहस तो जारी रहेगी लेकिन इस घटना से थाईलैंड की अगुआई वाले रूढिवादी धड़े ने मलेशिया और इंडोनेशिया के रिफॉर्मिस्ट धड़े पर बढ़त तो बना ही ली है. आसियान और उसके समर्थकों को यही डर है कि व्यापक सुधारों की कवायद में आसियान के दो फाड़ न हो जाएं क्योंकि अगर इस समय ऐसा होता है तो फायदा महाशक्तियों को होगा, आसियान या उसके सदस्यों को नहीं.
म्यांमार में लोकतंत्र बहाली डंडे के जोर पर या एक सख्त और त्वरित टाइमफ्रेम के तहत लाना संभव नहीं है, यह आसियान को मालूम है. फिलहाल आसियान यही कोशिश करेगा कि बातचीत के जरिये म्यांमार को रास्ते पर लाया जाय. अपनी आदत के अनुरूप आसियान को बीच का और शांतिपूर्ण रास्ता निकालना होगा जिससे म्यांमार एक बार फिर दुनिया से अलग-थलग न पड़े और साथ ही वहां लोकतंत्र की लौ भी जलती रहे.
(राहुल मिश्र मलाया विश्वविद्यालय के एशिया-यूरोप संस्थान में अंतरराष्ट्रीय राजनीति के वरिष्ठ प्राध्यापक हैं)