पूर्वोत्तर राज्य मणिपुर में क्यों भड़की है हिंसा की आग
४ मई २०२३बुधवार रात से हिंसा और आगजनी भड़कने के बाद राजधानी इंफाल और राज्य के विभिन्न इलाकों में सेना के जवान फ्लैग मार्च कर रहे हैं. गृह मंत्री अमित शाह ने मणिपुर के मुख्यमंत्री एन बीरेन सिंह से फोन पर बात कर हालात की जानकारी ली. बीरेन सिंह ने आज सुबह एक वीडियो मैसेज जारी कर लोगों से शांति बनाए रखने की अपील की है. इस बीच मणिपुर के गवर्नर ने कोई और उपाय काम नहीं आने पर उपद्रवियों को देखते ही गोली मारने के अधिकार पुलिस को दे दिये हैं.
मैतेयी और आदिसवासी समुदाय का विवाद
राज्य के मैतेयी और आदिवासी समुदाय के बीच तनाव तो लंबे समय से चल रहा था. हाईकोर्ट के एक फैसले ने इस तनाव को और बढ़ा दिया है. गैर-आदिवासी मैतेयी समुदाय की आबादी राज्य में करीब 53 फीसदी है. यह समुदाय लंबे अरसे से अनुसूचित जनजाति का दर्जा देने की मांग कर रहा है. मैतेयी समुदाय की दलील है कि अनुसूचित जनजाति का दर्जा मिलने के बाद वे लोग राज्य के पर्वतीय इलाकों में जमीन खरीद सकेंगे.
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फिलहाल वे लोग मैदानी इलाको में तो जमीन खरीद सकते हैं, लेकिन पर्वतीय इलाको में जमीन खरीदने का उनको अधिकार नहीं है. इस समुदाय के लोग मणिपुर घाटी में रहते हैं। मौजूदा कानून के अनुसार, मैतेई समुदाय को राज्य के पहाड़ी इलाकों में बसने की इजाजत नहीं है.
इस समुदाय का कहना है कि अनुसूचित जनजाति का दर्जा नहीं होने के कारण पड़ोसी म्यांमार और बांग्लादेश से आने वाले लोगों की लगातार बढ़ती तादाद उनके वजूद के लिए खतरा बनती जा रही है. उधर आदिवासी समुदाय उसकी इस मांग का विरोध कर रहा है. आदिवासी संगठनों का कहना है कि ऐसा होने पर मैतेयी समुदाय उसकी जमीन और संसाधनों पर कब्जा कर लेगा.
अनुसूचित जाति का दर्जा
आदिवासी संगठनों को चिंता है कि अगर मैतेयी समुदाय को अनुसूचित जनजाति का दर्जा मिल गया को सरकारी नौकरियों और शैक्षणिक संस्थानों से आदिवासियों को वंचित होना पड़ेगा. आरक्षण का तमाम लाभ मैतेयी समुदाय को ही मिल जाएगा. राज्य की कुल आबादी में 40 फीसदी आदिवासी हैं. इनमें नागा और कुकी समुदाय भी शामिल है.
आदिवासी समुदाय को अनुसूचित जनजाति का दर्जा हासिल है. मैतेयी तबके की आबादी को ध्यान में रखते हुए ही वे उसे यह दर्जा देने का विरोध कर रहे हैं. राज्य में आदिवासी समुदाय के लोग कथित वन क्षेत्र से आदिवासियों को उजाड़ने, आरक्षित वनक्षेत्र, संरक्षित जंगल और वन्यजीव अभयारण्यों के सर्वेक्षण के खिलाफ पहले से ही आंदोलन कर रहे हैं.
अपनी मांग के समर्थन में मैतेयी संगठन ने हाईकोर्ट में एक याचिका दायर की थी. उस पर सुनवाई के दौरान अदालत ने बीते 19 अप्रैल को राज्य सरकार से इस मांग पर विचार करने और चार महीने के भीतर केंद्र को अपनी सिफारिश भेजने का निर्देश दिया था. हाईकोर्ट के इस निर्देश के बाद ही दोनों समुदायों के बीच हिंसा शुरू हो गई.
ताजा हिंसा
बीते सप्ताह चूड़ाचांदपुर जिले में मुख्यमंत्री एन.बीरेन सिंह के एक कार्यक्रमके दौरान हिंसा और आगजनी हुई थी. आदिवासियों ने मुख्यमंत्री के कार्यक्रम के लिए बने मंच को भी जला दिया था. उसके बाद हालात धीरे-धीरे सामान्य हो रहे थे. बुधवार को आदिवासी संगठनों ने मैतेयी समुदाय की मांग के विरोध में अखिल आदिवासी छात्र संघ मणिपुर के बैनर तले राज्य के सभी 10 पर्वतीय जिलों में आदिवासी एकता रैली का आयोजन किया था.
इस हिंसा की शुरुआत बिष्णुपुर और चूड़ाचांदपुर जिले की साम पर उस समय हुई जब एक भीड़ ने एक समुदाय के घरों में आग लगा दी. उसके बाद यह हिंसा तेजी से राज्य के दूसरे जिलों में भी फैल गई. चूड़ाचांदपुर में कूकी आदिवासी तबके के लोगों की आबादी सबसे ज्यादा है जबकि बिष्णुपुर में मैतेयी समुदाय के लोग रहते हैं.
हिंसा भड़कने के बाद राज्य के आठ जिलों में धारा 144 लागू कर इंटरनेट सेवाएं बंद कर दी गई और सेना को सड़कों पर उतार दिया गया. सेना और असम राइफल्स के जवानों ने हिंसाग्रस्त इलाकों से कम से कम आठ हजार लोगों को निकाल कर सुरक्षित स्थानों तक पहुंचाया है.
राजनीतिक पर्यवेक्षकों का कहना है कि फिलहाल दो मुद्दों ने राज्य में ताजा परिस्थित पैदा की है. इसमें पहला है राज्य सरकार की ओर से वन क्षेत्र और दूसरा है मैतेयी समुदाय को अनुसूचित जनजाति के दर्जे के मुद्दे पर हाईकोर्ट का फैसला.
सरकार की भूमिका
इस बीच, मणिपुर के मुख्यमंत्री एन.बीरेन सिंह ने राज्य में तमाम लोगों से शांति बनाए रखने की अपील की है. मुख्यमंत्री ने कहा है कि हिंसा की वजह दो समुदायों के बीच गलतफहमियां हैं. उन्होंने कहा, "लंबे समय से चली आ रही शिकायतों को सही तरीके से लोगों के साथ सलाह-मशविरा के जरिए हल कर लिया जाएगा."
पड़ोसी मिजोरम के मुख्यमंत्री जोरमथंगा ने मुख्यमंत्री बीरेन सिंह को भेजे एक पत्र में राज्य की स्थिति पर गहरी चिंता जताई है. उन्होंने संबंधित पक्षों से बात कर बेवजह होने वाली हिंसा पर तुरंत अंकुश लगाने की अपील की है.
राजनीतिक पर्यवेक्षक के. कुंजम सिंह कहते हैं, "भाजपा की अगुवाई वाली राज्य सरकार का रवैया भी इसके लिए कुछ हद तक जिम्मेदार है. वह चुनाव के समय तो तमाम आदिवासी संगठनों के नेताओं को दिल्ली बुला कर उनसे बातचीत में सभी समस्याएं हल करने के वादे करती हैं. लेकिन चुनाव बाद इसे भूल कर उनको उनके हाल पर छोड़ देती है. इसलिए आदिवासी संगठनों में बीजेपी और उसकी सरकार के प्रति भी भारी नाराजगी है. अगर इस समस्या को शीघ्र बातचीत के जरिए नहीं सुलझाया गया तो हालात बेकाबू होते देर नहीं लगेगी."
उनका कहना है कि राज्य के पर्वतीय और मैदानी इलाकों और उसके लोगों के बीच विभाजन रेखा बहुत साफ है. सरकार को इस खाई को पाटने की दिशा में ठोस पहल करनी चाहिए. ऐसा नहीं हुआ तो यह समस्या रह-रह कर सिर उठाती रहेगी