भारत में पनबिजली की भारी कीमत चुकाते लोग
३१ मई २०२२नर्मदा देवी मलबे और धूल के एक ढेर की ओर इशारा करके दिखाती हैं, उत्तराखंड में उस जगह को, जहां पिछले साल तक उनका घर हुआ करता था. हाट गांव में उनके और उनके पड़ोसियों के गिरे हुए घरों का मलबा अब भी जहां तहां बिखरा हुआ है. पास के पनबिजली संयंत्र से निर्माण के दौरान निकलने वाले कचरे के नीचे उनके घर का मलबा दबा हुआ है. गांव और बिजली घर के बीच चारों तरफ मलबे के ढेर के बीच एक प्रमुख हिंदू मंदिर भी है.
नर्मदा देवी ने समाचार एजेंसी रॉयटर्स से कहा, "यही वो जगह है जहां मेरे घर का मलबा पड़ा है, उस कचरे के नीचे. यह कैसा विकास है, जिसमें गरीब लोगों को लूट कर दूसरे लोगों के घरों में बिजली की सप्लाई दी जाती है?"
जरूरी है पनबिजली
देवी का परिवार गांव के उन 240 से ज्यादा परिवारों में एक है जिन्होंने अलकनंदा नदी पर 444 मेगावाट की पनबिजली परियोजना के लिए अपना घर खोया है. विश्व बैंक के पैसे बन रही दर्जनों पनबिजली परियोजनाओं में से कुछ तो भारत के हिमालयी राज्य में पहले ही काम करना शुरू कर चुकी हैं जबकि कुछ पर अभी काम चल रहा है. इस परियोजना के जरिये देश का कार्बन उत्सर्जन घटाने की कोशिश है.
सरकार का कहना है कि सौर ऊर्जा और पवन ऊर्जा के साथ ही पनबिजली भारत के लिए बहुत जरूरी है. सरकार ने 2030 तक भारत की कुल ऊर्जा जरूरतों का आधा हिस्सा गैरजीवाश्म ईंधन के स्रोतों से हासिल करने की शपथ ली है.
पृथ्वी के बढ़ते तापमान को नियंत्रित करने के तरीके ढूंढने में जुटे देशों को पनबिजली के समर्थक बताते हैं कि यह भारी मात्रा में स्वच्छ बिजली मुहैया करा सकती है. इसके साथ ही मौसम पर निर्भर सौर ऊर्जा और पवन ऊर्जा से मांग पूरी नहीं होने की हालत में भी इससे ऊर्जा हासिल हो सकती है.
हालांकि हरित समूह और पनबिजली परियोजनाओं से प्रभावित होने वाले समुदायों का कहना है कि पनबिजली परियोजनाओं के कारण पर्यावरण और समाज को जो कीमत चुकानी पड़ रहीहै उसे उचित नहीं कहा जा सकता.
63 साल की देवा की कहना है कि जब सरकारी कंपनी टिहरी हाइड्रो डेवलपमेंट कार्पोरेशन यानी टीएचडीसी के कर्मचारी पिछले साल आए और स्थानीय जमीन खरीदने की बात कही तो जिन लोगों ने भी विरोध किया उन्हें वो ट्रकों में भर कर एक पुलिस स्टेशन ले गये और वहां कई घंटे रोके रखा. इस बीच उनके घर गिरा दिये गये. जो लोग पहले जमीन बेचने पर सहमत हो गये थे उनमें से हरेक को 10 लाख रुपये मुआवजे के तौर पर दिये गये. देवी अब अपने परिवार के साथ पास के गांव में रहती हैं.
टीएचडीसी के असिस्टेंट जनरल मैनेजर संदीप गुप्ता का कहना है कि हाट के निवासी अपनी मर्जी से यहां से दूसरी जगह जाने के लिये तैयार हो गये थे और उन्हें उचित मुआवजा मिला है. इसके साथ ही उन्होंने यह भी कहा कि इस परियोजना सरकारी एजेंसियों की निगरानी में चल रही है और वो लगातार देख रहे हैं कि इससे पर्यावरण को कोई नुकसान ना हो. गुप्ता ने कहा, "अब तक नकारात्मक असर की कोई खबर एजेंसियों ने नहीं दी है."
क्षमता का इस्तेमाल नहीं
जून 2021 की एक रिपोर्ट में अंतरराष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी आईईए ने पनबिजली को "स्वच्छ ऊर्जा के भूले बिसरे देव" कहा और देशों से आग्रह किया कि वो शून्य उत्सर्जन तक पहुंचने की कोशिश में इसे अपने ऊर्जा स्रोत के रूप में शामिल करें.
भारत में फिलहाल 46 गीगावाट क्षमता की पनबिजली परियोजनाएं चल रही हैं. सरकारी आंकड़ों के मुताबिक यह देश की क्षमता का महज एक तिहाई है. क्षमता बढ़ाने के लिए 2019 में सरकार ने आधिकारिक तौर पर 25मेगावाट से ऊपर की पनबिजली परियोजनाओं को अक्षय ऊर्जा स्रोत घोषित किया. इसके साथ ही बिजली कंपनियों के लिये पनबिजली को उनकी सप्लाई में शामिल करना जरूरी बना दिया गया. इससे पहले केवल छोटे पनबिजली संयंत्रों की ही अक्षय ऊर्जा में शामिल किया जाता था.
मेघालय में क्यों हो रहा है पनबिजली योजना का विरोध
आईआईटी रूड़की में पनबिजली और अक्षय ऊर्जा के प्रोफेसर अरुण कुमार का कहना है कि भारत के पनबिजली क्षेत्र को बढ़ाना केवल बिजली पैदा करने से कहीं ज्यादा आगे की बात थी. कुमार कहते हैं कि बड़ी परियोजनायें सैलानियों को आकर्षित तरने के साथ ही नौकरियां, बिजली, सड़क और रेलवे आसपास के समुदायों के लिए ला सकती हैं और "पिछड़े इलाकों का जीवन स्तर बेहतर बना सकती हैं."
हालांकि हिमांशु ठक्कर का कहना है कि ज्यादा पनबिजली संयंत्रों को बनाने में आर्थिक समझदारी नहीं है जबकि भारत सौर ऊर्जा और पवन ऊर्जा की परियोजनाओं से सस्ती बिजली हासिल कर सकता है. हिमांशु ठक्कर एशिया नेटवर्क ऑन डैम्स, रीवर्स ऐंड पीपल नाम के गैरसकारी संगठन के संयोजक हैं. ठक्कर ने बताया कि एक मेगावाट क्षमता का पनबिजली संयंत्र बनाने पर 10 करोड़ रुपये से ज्यादा का खर्च आता है जो इसी क्षमता के सौर और पवन ऊर्जा संयंत्र के मुकाबले करीब दो गुना ज्यादा है. उनका यह भी कहना है कि भ्रष्टाचार और नियमों में ढिलाई ही वो कारण हैं जिनकी वजह से भारत के अधिकारी पनबिजली पर इतना ज्यादा ध्यान दे रहे हैं. ठक्कर ने कहा, "किसी भरोसेमंद नियामक संस्था की निगरानी नहीं होने की वजह से खर्चों को बढ़ा चढ़ा कर दिखाने के यहां काफी अवसर हैं."
आपदा का बढ़ता जोखिम
जहां तक हाइड्रोपावर के हरित ऊर्जा स्रोत होने का सवाल है तो कुछ पर्यावरणवादी कहते हैं कि यह फायदे से ज्यादा नुकसान करता है. पनबिजली की परियोजनाएं जंगलों की कटाई करवाती हैं, नदियों का रुख बदलती हैं, भूजल को रिचार्ज करने की गति को धीमा या फिर रोक सकती हैं. इन सब का आसपास के समुदायों पर बुरा असर होता है इसके साथ ही उनका यह भी कहना है कि इसके नतीजे में मौसम के तेवर विनाशकारी हो जाते हैं.
उत्तराखंड के कॉलेज ऑफ फोरेस्ट्री, रानीचौरी में पर्यावरण विज्ञान पढ़ाने वाले एस पी सती 2013 के विनाशकारी बाढ़ की ओर इशारा करते हैं जिसमें सरकारी आंकड़ों के मुताबिक लगभग 6,000 लोगों की जान गई थी.
सिक्किम में तेज हो रहा है पनबिजली परियोजना का विरोध
भारत के सुप्रीम कोर्ट की ओर से नियुक्त एक कमेटी ने यह रिपोर्ट दी थी कि पनबिजली परियोजनाएं बाढ़ से होने वाले नुकसान को कई गुना बढ़ा देते ही हैं क्योंकि तेजी से नीचे आते पानी के साथ बड़ी चट्टानें, तलछट और रेत नीचे की धारा में जा कर मिलते हैं और निचले इलाके में रहने वाले समुदायों को निगल जाते हैं.
कमेटी ने अपनी रिपोर्ट में इस ओर भी ध्यान दिलाया था कि संयंत्र के निर्माण के दौरान खुदाई और विस्फोटकों का इस्तेमाल "भूस्खलन या ढलानों के ढह जाने" का भी कारण बन सकता है. सती का कहना है, "अगर आप संवेदनशीलता, नजाकत और इलाके की ढुलाई की क्षमता का ध्यान नहीं रखेंगे तो (पनबिजली से) बड़े हादसे का होना तय है."
हाट गांव के प्रमुख राजेंद्र प्रसाद हटवाल का कहना है कि यहां के निवासियों को अपना विरोध और स्थानीय सरकार पर दबाव बनाने की मुहिम जारी रखनी चाहिए जब तक कि पनबिजली परियोजना का विकास करने वाले उनके घरों को मलबा डालने की जगह बनाना नहीं रोक देते और उन्हें उचित मुआवजा नहीं देते.
वह यह भी सवाल उठाते हैं कि आखिर भारत पनबिजली की ओर इतना ज्यादा क्यों बढ़ रहा है? अमेरिका, ब्राजील और चीन जैसे देशों ने जलवायु परिवर्तन के कारण आने वाले सूखे की वजह से पनबिजली के संयंत्रों में बड़ी बाधाओं और संकट का सामना किया है.
एक और चिंता है उन हजारों पेड़ों की, जिन्हें पनबिजली संयंत्र के लिए काटा जाता है. हटवाल कहते हैं, "हम जलवायु परिवर्तन से लड़ने के लिए जंगलों को बचाने के बारे में इतना कुछ सुनते हैं, यह बहुत उलझन में डालने और निराश करने वाला है."
एनआर/वीके (रॉयटर्स)