अफगानिस्तान में नए हालात में बढ़ेगा जलवायु संकट
९ जुलाई २०२१अफगानिस्तान से अमेरिका और सहयोगी देशों के सैनिकों के जाने के बाद वहां भगदड़ मची है. बीस साल पहले सत्ता से बेदखल किए गए तालिबान ने एक के बाद एक देश के महत्वपूर्ण हिस्सों पर कब्जा शुरू कर दिया है. लड़ाई के डर से कई अफगान सैनिक पड़ोसी देशों में भाग रहे हैं तो कुछ को यूरोपीय या अन्य देश शरण दे रहे हैं. जो अफगान परिवार जा सकते हैं वो देश छोड़कर निकल रहे हैं क्योंकि यहां एक बार फिर गृहयुद्ध शुरू हो गया है. तालिबान ने वर्तमान सरकार द्वारा चुनाव में शामिल होने का प्रस्ताव ठुकरा दिया है और वह एक बार फिर शरिया (कट्टर इस्लामिक कानून) आधारित अफगानिस्तान चाहता है. ऐसे में सीमावर्ती इलाकों में शरणार्थियों का जमा होना शुरू हो गया है.
सुरक्षा से जुड़ा एक महत्वपूर्ण पहलू
अफगानिस्तान को जितना खतरा गृहयुद्ध से है उतना ही खतरा जलवायु परिवर्तन और बदलते मौसमी चक्र से भी है और इस पहलू की पिछले कई दशकों में अनदेखी की गई. बाढ़, भूस्खलन, एवलांच और सूखे के अलावा भूकंप जैसी प्राकृतिक आपदाओं का यहां बड़ा खतरा है. विशेषज्ञ रिपोर्ट बताती हैं कि जलवायु परिवर्तन से अगले 30 साल में जिन 170 देशों को सबसे अधिक खतरा है उनमें अफगानिस्तान सातवें नंबर पर है. आंकड़े बताते हैं कि 1980 और 2017 के बीच आपदाओं के कारण 90 लाख लोग विस्थापित हुए और 20 हजार की जान गई. इंटरनल डिस्प्लेसमेंट मॉनिटरिंग सेंटर यानी आईडीएमसी के मुताबिक साल 2020 के अंत में यहां 11.98 लाख से अधिक लोग आपदाओं के कारण विस्थापित थे जो किसी भी देश में ऐसे विस्थापितों की सबसे बड़ी संख्या है.
पिछले 20 साल में 65 लाख लोग बाढ़ से प्रभावित हुए और 50 लाख अब भी भूस्खलन और एवलांच संभावित इलाकों में रह रहे हैं. यानी पर्यावरण और जलवायु परिवर्तन से होने वाला खतरा और सुरक्षा कारणों से पैदा संकट लगातार बढ़ता रहा और देश के कई हिस्सों में इसकी मार आज कहीं अधिक है. अब गृहयुद्ध बढ़ने की स्थिति में क्लाइमेट चेंज के खिलाफ किसी भी मुहिम की उम्मीदों पर पानी फिर गया है क्योंकि वर्तमान सरकार के सारे संसाधन तालिबान से संघर्ष में खर्च होंगे.
महिलाओं और बच्चों पर सर्वाधिक चोट
जलवायु परिवर्तन का संकट देश में खाद्य सुरक्षा, बेरोजगारी और पलायन को बढ़ाएगा. बीमारियां बढ़ेंगी और शरणार्थी कैंपों पर दबाव भी. एमनेस्टी के मुताबिक करीब 40 लाख लोग अभी कैंपों में हैं और इनमें अधिकतर महिलाएं और बच्चे हैं. इन कैंपों में भीड़ बहुत है और ज्यादातर में शौचालय और बाथरूम जैसी बुनियादी सुविधा भी नहीं है. महत्वपूर्ण है कि अफगानिस्तान में बंदिशों के कारण महिलाएं परिवार के बाहर पुरुषों से बात तक नहीं कर सकती. मेडिकल सुविधाएं न के बराबर हैं और अगर डॉक्टर या नर्स पुरुष है तो कोई महिला उनसे मदद नहीं ले पातीं.
मानवाधिकार और गरीबी उन्मूलन के लिए काम कर रही संस्था एक्शन एड के कंट्री डायरेक्टर सुदीप्ता कुमार कहते हैं, "अफगानिस्तान में क्लाइमेट संकट के कारण विस्थापितों की संख्या लगातार बढ़ रही है. बढ़ते सूखे और बाढ़ की घटनाओं का महिलाओं और बच्चों पर कुप्रभाव सबसे अधिक है. हमारी रिसर्च बताती है कि अफगानिस्तान में क्लाइमेट चेंज से लड़ने के लिए कोई फ्रेमवर्क नहीं है जो इस वजह से हो रहे पलायन को रोक सके."
युद्ध के दौरान ही पैदा हुई एक पीढ़ी
महत्वपूर्ण है कि युद्ध से प्रभावित इस इलाके में पत्रकारों, नीति नियंताओं और सामाजिक कार्यकर्ताओं की प्राथमिकताएं क्लाइमेट चेंज नहीं रहीं. वो सीधे हिंसा से प्रभावित लोगों और उनके मुद्दों में ही उलझे रहे. लेकिन जलवायु-परिवर्तन इस दौरान अपना असर यहां दिखाता रहा और अफगानी जनता को प्रभावित करता रहा. फिर भी यहां के मीडिया में इस संकट की चर्चा नहीं के बराबर है.
काबुल के पत्रकार आसिफ गफूरी कहते हैं, "हमारे पत्रकार जो अभी काम कर रहे हैं, सभी तालिबान से युद्ध के दौरान ही पैदा हुए. इसलिए हमारी रिपोर्टिंग और खबरों में संघर्ष, अस्थिरता, युद्ध और उससे पैदा चुनौतियों को ही प्राथमिकता मिली है." गफूरी कहते हैं कि अब यहां मीडिया में क्लाइमेट चेंज के विनाशकारी प्रभावों और उससे जुड़े संकट को लेकर समझ बननी शुरू ही हुई थी लेकिन हालात दुर्भाग्य से फिर 1990 के दशक जैसे बन रहे हैं. डर ये है कि मानवाधिकार, स्वास्थ्य और पर्यावरण के मुद्दों पर काम कर रही अंतरराष्ट्रीय एजेंसियां तालिबान के हुकूमत के डर से यहां नहीं रुकेंगी.
सुरक्षा विशेषज्ञ अजय साहनी कहते हैं, "जैसे-जैसे वर्तमान सरकार का नियंत्रण खत्म होगा और देश में तालिबान का कब्जा हो जाएगा तो अंतरराष्ट्रीय एजेंसियां यहां काम नहीं करेंगी और निकल जाएंगी. आप मुझसे पूछ रहे हैं कि ऐसे हालात में क्या किया जा सकता है तो मैं सिर्फ ये कह सकता हूं कि हालात काफी मायूस करने वाले हैं और मुझे अभी कोई सूरत नहीं दिखती."