एक पुलिसवाले की सीक्रेट डायरी
४ जुलाई २०१६पुलिसवालों को केस डायरी रखनी होती है. लेकिन अपनी डायरी रखने का कोई उन्हें कोई हक नहीं है. इसलिए यह पुलिस वाला अपनी एक डायरी छिपाकर रखता है. उसमें हर रात कुछ न कुछ नोट करता रहता है. हम उसकी यह डायरी चुपके से ले आए हैं. किसी को बताना नहीं है, बस पढ़ लीजिए. फिर चुपके से लौटा देंगे.
ये रही एंट्रीः
भारत में कोई भारतीय पुलिस है नहीं. अलग अलग राज्यों की पुलिस है. पुलिस संविधान के अनुसार राज्य का विषय है.
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एक राज्य की पुलिस को दूसरे से कुछ खास लेना देना है नहीं, सिवा इसके कि दोनों के बॉस भारतीय पुलिस सेवा के अधिकारी हैं.
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पुलिस के दो कार्य हैं. विधि व्यवस्था और अनुसंधान. मतलब अपराध होने से रोकना और अपराध होने के बाद जांच करना. विधि व्यवस्था सामूहिक जिम्मेवारी है. ठीक नहीं रहने पर अधिकारियों को तकलीफ हो सकती है, नीचे ओहदे या बिना ओहदे वालों को इससे कोई खास फर्क नही पड़ता. अनुसंधान व्यक्तिगत जिम्मेदारी है, जाँच करने वाले को अदालत में गवाही देनी पड़ती है, उपर के अधिकारियों को नहीं.
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कहानी एक:
कभी ठिठुराती रात में सड़को पर घूमना, एक गाड़ी दिखेगी, बिना दरवाजों वाली (हालांकि बड़े शहरों में आजकल दरवाजों वाली भी होती है), यह जीप है, पुलिस जीप. इसमें मिलेंगे कुछ अनमने से पुलिस वाले. नाइट ड्यूटी. कोई देशसेवा समझने की जरूरत नहीं. ड्यूटी है, सैलरी मिलती है इसकी. और सैलरी भी कम नहीं है. साहब के दफ्तर में जो बाबू बैठता है न, सुबह दस से शाम पांच, उससे बस थोड़ी सी कम. चलो ठीक है, यहां ऊंघ ही तो रहे हैं. सुबह घर चले जाएंगे. अरे नहीं, ऐसी क्या जल्दी, थाना तो चौबीस घंटे खुला रहता है. और जाएं कहां, परिवार तो अपने शहर रख छोड़ा है. बच्चे पढ़ेंगे कि हमारे साथ इस थाने, उस थाने, शहर-जंगल घूमते फिरेंगे. मतलब, चौबीस घंटे ड्यूटी. तो, अब इतने आदमी कहां हैं कि आठ-आठ घंटे शिफ्ट करें. ऐसा है कि सरकार को कोई कमाई कर के तो देते नहीं कि सरकार ज्यादा आदमी रख खर्चा बढ़ा ले, बस बोझ हैं सरकार पर. और इनका खर्चा तो बढ़ा ही रहता है, सो थोड़ी कमाई कर लेते हैं. ट्रांसफर क्यों नहीं करा लेते, जहां परिवार साथ रख सको? पर उसमें तो खर्च है.
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कहानी दो:
दारोगा बाबू, सुना है जो लड़का पकड़ा कर अंदर गया, वो निर्दोष है. होगा साला निर्दोष. हमें क्या. अब हर कांड में दोषी निर्दोष देखते रहे तो हो गई थानेदारी. ज्यादा गहराई से जांच करेंगे, तो सरकार तनख्वाह थोड़े ही बढ़ा देगी. अनुसंधान में देरी के लिए एसपी साहेब सस्पेंड कर देंगे, थानेदारी जाएगी सो अलग. मीडिया वाले भी जीना हराम किए रहेंगे. और जो बेचारा पकड़ा गया...? बेचारा वेचारा नहीं, एक नम्बर का हरामी है, कुछ दिन अंदर रहेगा तो क्षेत्र में शांति रहेगी. पर... कोर्ट में केस का क्या...? अरे वो तो दस पंद्रह साल बाद, तब हम कौन सा यहीं रहेंगे? और असली अपराधी... पकड़ा गया तो कोई और केस सटा के अंदर कर देंगे.
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कहानी तीन:
सुना है कि एक केस में कुछ निकल कर आ रहा था, पर जल्दीबाजी में बंद कर दिए. अब जांच जल्दी करनी पड़ती है. एसपी साहब की डीजी साहब से मीटिंग थी, बोले कि मीटिंग से पहले समाप्त हो जाना चाहिए. अब अगर कम एविडेंस पर चार्जशीट करता तो कोर्ट में जांचकर्ता की जान फंसती. एसपी साहब डीजी साहब को और डीजी साहब मंत्री जी को आंकड़ा बता के अपना नम्बर बना लेंगे. अखबार में दूध का दूध पानी का पानी वाली खबर, बचने वाले छपवा लेंगे.
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कहानी चार:
छोटे आदमी को पकड़ लिया गया, बड़े को नही पकड़ा. वो तो स्टे ले लिए हैं, बड़े कोर्ट से. सम्मानित आदमी हैं. पुलिस पकड़ ही लेती तो अगले दिन बेल ले लेते. पुलिस क्यों रिश्ता खराब करे. मौके पर काम ही आऐंगे.
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कहानी पांच:
सर, सात आदमी आए थे, डकैती कर गए. रिपोर्ट लिख लीजिए. लिखो... चार आदमी आए थे. सर.... सात. अबे चुप..पांच से ऊपर डकैती का केस बनता है, चार में रॉबरी का. ज्यादा खतरनाक अपराध होने से थाने का इमेज खराब होती है. रिपोर्ट तो लिखते ही नही छोटी मोटी घटना की. पिछले साल भी हमारा थाना इसी प्रकार अपराधमुक्त रहा था. आंकड़ा कम, अपराध कम.
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मिस्टर x नें एक केस में गहन जांच की, सुना है बढ़िया काम किया. भई गजब का काम किया है, कोई नहीं कर सका. पर अच्छे फंसे हैं. सारे झमेले वाले काम अब उन्हीं को देने का तय हुआ है. अब लीजिए, रात दिन काम पर लगे हैं. कोई सिपाही तक इनके साथ नहीं रहना चाहता. बढ़िया काम करना है, मतलब कमाई तो है नहीं. समझाया था, ज्यादा होशियार मत बनो, सुना नहीं. सरकार में अच्छे काम का पुरस्कार है, और ज्यादा काम. जो ठीक से नही करता, उसको कोई देता भी नहीं, मौज में रहिए. और कीजिए गहन जांच, दुश्मनी भी लीजिए, परेशानी भी और कमाई ठेंगा. सुना है पगला गया है, किसी से कह रहा था, इस्तीफा देकर प्राईवेट नौकरी करेगा. कोई महामूर्ख ही इतने ठाठ की नौकरी छोड़ेगा.
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ऊपर की कहानियों में कोई प्रश्नचिन्ह नहीं है, सुविधानुसार पढ़ी जा सकती हैं। पुलिस में प्रश्न करना अलाउड नहीं है.
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जिनको डरना नहीं चाहिए, उन्हें उनके नाम से भी डर लगता है. जिनको डर लगना चाहिए, उनको रत्ती भर भी डर नहीं लगता.
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डिस्क्लेमर: यह लेखन व्यक्तिगत मनोरंजन के लिए है. इसका कोई सामाजिक सरोकार नहीं है.
(यह लेख एक पुलिस अफसर ने लिखा है, जिसकी पहचान जाहिर नहीं की जा सकती.)