वैक्सीन के ट्रायल में औरतों की भागीदारी क्यों नहीं?
६ अगस्त २०२१कोविड टीकों के गंभीर दुष्प्रभाव बहुत ही दुर्लभ हैं. अधिकांश लोगों में वैक्सीन लगने के कुछ दिन बाद हल्का-फुल्का रिएक्शन देखने में या, जैसे कि हल्का बुखार या मांसपेशियों में दर्द. स्वास्थ्य विशेषज्ञों का कहना है कि ये हमारी देह के वे लक्षण हैं जिनसे पता चलता है कि वह अपनी प्रतिरोधक क्षमता तैयार कर रही है और हम आने वाले संक्रमणों से टीके की मदद से सुरक्षित रह पाएंगे.
अमेरिका में, स्वास्थ्य अधिकारियों का कहना है कि टीका लगवा चुके 0.001 प्रतिशत से भी कम लोगों में बहुत ज्यादा रिएक्शन देखा गया जैसे कि एलर्जी. लेकिन लोगों में साइड इफेक्ट होते हैं. और डाटा बताता है कि महिलाओं में पुरुषों के मुकाबले साइड इफेक्ट के मामले ज्यादा देखे जा रहे हैं. वैक्सीनेशन के पूरे इतिहास में यही ट्रेंड देखा जा रहा है.
जुदा है महिलाओं की प्रतिरोध प्रणाली
जून में स्विस सरकार ने एक डाटा रिलीज किया था जिसके मुताबिक टीकों से होने वाले 68.7 प्रतिशत साइड इफेक्ट महिलाओं की ओर से बताए गए थे. अमेरिका में पहली एक करोड़ 37 लाख खुराकों में से 79.1 प्रतिशत शिकायतें साइड इफेक्ट की थीं- इनमें से 61.2 प्रतिशत मामले महिलाओं के थे.
नॉर्वे में अप्रैल की शुरुआत में जिन सात लाख 22 हजार लोगों को टीका लगा उनमें 83 प्रतिशत शिकायतें साइड इफेक्ट की आईं. ये कुछ मुट्ठी भर नमूने हैं. महिलाओं को होनेवाले साइड अफेक्ट पर डाटा लगभग है ही नहीं.
लेकिन वियना की मेडिकल यूनिवर्सिटी में न्यूरोइम्यूनोलजिस्ट मारिया टेरेसा फेरेटी कहती हैं कि हमारे पास उपलब्ध डाटा चौंकाता नहीं है. फेरेटी ने विमिन ब्रेन प्रोजेक्ट नाम से गैरसरकारी संगठन शुरू किया था.
वह कहती हैं कि पुरुषों और महिलाओं में वैक्सीनेशन के प्रति अलग अलग प्रतिक्रिया होती है. उन्होंने डीडब्ल्यू को बताया, "दूसरे वायरसों के टीकों से हम जानते हैं कि टीका लगने के बाद महिलाओं के शरीर में ज्यादा एंटीबॉडी बनती हैं, इसका मतलब ये है कि उन्हें ज्यादा साइड इफेक्ट हो सकते हैं.”
1990 से 2016 के दरमियान, 26 साल के एक अध्ययन के मुताबिक टीकों से जो ऐनफलैक्टिक प्रतिक्रिया वयस्कों में होती हैं उनमें 80 प्रतिशत महिलाएं होती हैं. 2009 में स्वाइन फ्लू की महामारी के दौरान एच1एन1 वैक्सीन से महिलाओं में एलर्जी होने की घटनाएं चार गुना अधिक थीं. दूसरे शोधों से भी पता चलता है कि सेक्स हॉर्मोन मनुष्य की प्रतिरोध प्रणाली को प्रभावित कर सकते हैं.
एक मजबूत इम्यून रिस्पॉन्स के चलते ही महिलाओ में ऑटोइम्यून बीमारियों की आशंका, पुरुषों की तुलना में ज्यादा होती है. ऑटोइम्यून होने का मतलब जब शरीर जरूरत से ज्यादा प्रतिरोध दिखाने लग जाता है और उन चीजों पर ही हमला करने लगता है जिनकी उसे वाकई जरूरत होती है.
बायोलॉजिकल सेक्स और जेंडर ‘इंटरसेक्ट'
ये फर्क उस अपेक्षाकृत बड़ी तस्वीर का हिस्सा है कि कैसे जैविक सेक्स और जेंडर- दोनों हमारी सेहत पर असर डालते हैं. ये कहना है अमेरिका के जॉन्स होपकिन्स ब्लूमबर्ग स्कूल ऑफ पब्लिक हेल्थ में जेंडर और हेल्थ रिसर्चर रोजमेरी मॉर्गन का.
महिलाओ में वैक्सीन के सबसे बुरे साइड इफेक्ट दिखने की ज्यादा संभावना होती है, तो पुरुषों में कोविड के गंभीर मामलों में अस्पताल में भर्ती होने की आशंका ज्यादा होती है. और ज्यादा पुरुष कोविड से मरते हैं.
देखिएः कोविड इलाज पर कितना खर्च
जैविक फैक्टर हमारे प्रतिरोध तंत्र को प्रभावित करते हैं- जैविक तौर पर हम पुरुष के रूप में पैदा हुए हैं, स्त्री के रूप में या उभयलिंगी के रूप में. मिसाल के लिए पुरुषों की प्रतिरोध प्रणाली के अपने खास मुद्दे होते हैं जो स्त्री देह पर लागू नहीं होते हैं. उदाहरण के लिए, टेस्टोस्टेरोन इम्यूनो-सप्रेसिव हो सकते हैं.
लेकिन जेंडर- जिसे कि एक सामाजिक रचना माना जाता है, हमारे जेहन का एक ख्याल- वो भी लोगों के व्यवहार और हेल्थकेयर तक पहुंच को प्रभावित कर सकता है. जैसे पुरुषों में एक रवैया परवाह न करने का देखा जाता है जिसके चलते उनमें खराब प्रतिक्रिया होने की संभावना कम होती है.
मॉर्गन ने डीडब्ल्यू को बताया, "अध्ययन बताते हैं कि पुरुष मास्क कम पहनेंगे या हाथ नहीं धोएंगे. अगर ये चीजें उनके जैविक जोखिम से जोड़ दी जाएं तो यही वो जटिल इंटरसेक्शन है जिसकी वजह से पुरुषों को कोविड-19 की चपेट में आने की ज्यादा संभावना बन जाती है.”
इंटरसेक्स, नॉन-बाइनरी और ट्रांसजेंडरों में कोविड की आशंका पर डाटा सीमित है. लेकिन कुछ रिसर्चों से पता चलता है कि लैंगिक और यौनिक अल्पसंख्यकों के खिलाफ भेदभाव का मतलब ये हो सकता है वे कोविड से गैर-आनुपातिक तौर पर प्रभावित हैं. और दुनिया में हर कहीं ये मुमकिन है. रिसर्च के मुताबिक कुछ खास जनसमूह, जरूरी हेल्थकेयर से बाहर रखे गए हैं.
तस्वीरों मेंः कुत्तों को भी हो सकता है कोरोना
शोध से बाहर चुनिंदा समूह
फेरेटी का कहना है कि शोधकर्ताओं को वैक्सीन और दवाएं बनाते समय और उनके परीक्षणों के दौरान, कुछ लोगों को शामिल न करने और उनके साथ होने वाले भेदभाव के प्रभावों को भी ध्यान में रखना चाहिए- चाहे वो कोविड हो या कोई और बीमारी.
वह कहती है, "आप सोचेंगे कि वे इन चीजों का ध्यान रखते ही होंगे. लेकिन लगता यही है कि उन्होंने कभी इस पर ध्यान नहीं दिया है.”
जुलाई में नेचर कम्युनिकेशन्स जर्नल में प्रकाशित एक अध्ययन के मुताबिक कोविड-19 के इलाज से जुड़े करीब साढ़े चार हजार क्लिनिकल अध्ययनों में सिर्फ चार प्रतिशत ने सेक्स और/या जेंडर की भूमिका को मद्देनजर रखने की योजना का उल्लेख किया है.
इन अध्ययनों में टीकों और दवाओं के क्लिनिकल ट्रायल से लेकर मानसिक सेहत पर लॉकडाउन के असर और हेल्थकेयर तक पहुंच जैसी चीजों के पर्यवेक्षणों तक के अध्ययन शामिल थे.
केवल एक स्टडी ऐसी थी जिसमें विशेष रूप से ट्रांसजेंडर लोगों पर कोविड के असर का अध्ययन किया गया था. कुछ अध्ययनो में महिलाएं शामिल थीं और वे ज्यादातर कोविड और गर्भावस्था से जुडी थीं. दिसंबर 2020 तक प्रकाशित रैंडम और नियंत्रित 45 ट्रायलों मे से सिर्फ आठ में सेक्स और/या जेंडर का संदर्भ दिया गया था.
नीदरलैंड्स की रैडबाउड यूनिवर्सिटी मेडिकल सेंटर में जेंडर और हेल्थ रिसर्चर साबीने ओरटेल्ट-प्रिगियोने कहती हैं कि वैज्ञानिक तुरंत नतीजे प्रकाशित करने का दबाव महसूस कर सकते हैं. वह कहती हैं, "शोधकर्ताओं को कभी कभी ये चिंता होने लगती है कि अध्ययन में सेक्स अंतरों का विश्लेषण करने का मतलब भागीदारी बढ़ानी पड़ सकती है और लक्ष्यों को पूरा करने के लिए रिक्रूटमेंट में लंबा समय खर्च हो सकता है.”
सेक्स और जेंडर का ये ब्रेकडाउन, संक्रमण के मामलों और वैक्सीनों की सामान्य गिनती में भी अक्सर अनदेखा कर दिया जाता है. ग्लोबल हेल्थ 50/50 एनजीओ के सेक्स-विशेष रिसर्च के ग्लोबल ट्रैकर- सेक्स, जेंडर एंड कोविड-19 प्रोजेक्ट में दिखाया गया है कि जून 20201 में सिर्फ 37 प्रतिशत देशों ने मौत के डाटा में व्यक्ति के सेक्स का भी उल्लेख किया था और 18 प्रतिशत वैक्सीनेशन डाटा में सेक्स के अंतर स्पष्ट किए गए थे.
तस्वीरों मेंः वैक्सीन काम करती है
पुरुष यानी मनुष्य
मॉर्गन कहती हैं कि मेडिकल और क्लिनिकल रिसर्च में सेक्स और जेंडर एनालिसिस की ऐतिहासिक तौर पर कमी रही है. उनके मुताबिक 1993 मे अमेरिका में पहली बार महिलाओं को क्लिनिकल ट्रायल में शामिल किया गया था.
कहा जाता है कि शोधकर्ता इस बात से चिंतित हो जाते थे कि महिलाओं के हॉर्मोन कहीं नतीजों को खराब न कर दें. इसलिए मेडिकल रिसर्च के लिए वे पुरुष शरीरों को ही डिफॉल्ट यानी सर्वस्वीकृत मनुष्य मानकर इस्तेमाल कर लेते थे.
मॉर्गन कहती हैं कि और बाकी चीजों के अलावा इससे ये भी पता चलता है कि दवा और उपचार की खुराक सिर्फ पुरुषों को ध्यान में रखते हुए बनाई गयी है. और इसका मतलब ये भी है कि डॉक्टर पक्के तौर पर, महिला मरीजों या दूसरे अ-पुरुष समूहों को दवा की सही खुराक नहीं दे पाते हैं.
इसका मतलब ये भी है कि हम पक्के तौर पर नहीं कह सकते है कि संभावित साइड इफेक्टों के चलते ही, महिलाएं कोविड वैक्सीन लेने से हिचकती होंगी. हम निश्चित रूप से कुछ नहीं जानते हैं. मॉर्गन के मुताबिक खुराक के मामले में हमारे पास वही "वन साइज फिट्स ऑल” वाली अप्रोच है लेकिन वो जरूरी नहीं कि महिलाओं के लिए भी सही हो.
फेरेटी कहती हैं कि ये एक उथली सी दवा है- "शैलो मेडिसिन.” ये शब्दावली अमेरिकी कार्डियोलजिस्ट एरिक टोपोल ने ईजाद की थी. फेरेटी का कहना है कि इस धारणा को बदलने की जरूरत है. और हमें और अधिक गहराई में जाने की जरूरत है. "हम ये मान बैठे हैं कि सभी मरीज कमोबेश एक जैसे ही होते हैं, लेकिन ऐसा नहीं होता है.”
रिपोर्टः चार्ली एलेन शील्ड
देखिएः भारत में कोरोना की कितनी किस्में