कॉमनवेल्थ संगठन में नई जान फूंकने की कवायद कितनी कारगर?
२६ जून २०२२2007 के बाद पहली बार इस संगठन के राष्ट्रध्यक्षों की बैठक अफ्रीका में हो रही है. वह भी रवांडा में, जो कभी ब्रिटेन के अधीन नहीं रहा. लेकिन 2009 में इसने खुद ही कॉमनवेल्थ की सदस्यता ग्रहण कर ली थी. एशिया के अलावा अफ्रीका दूसरा महाद्वीप है जिसके सदियों पहले मानवीय और आर्थिक शोषण से ब्रिटिश साम्राज्य इतनी बड़ी ताकत हासिल कर सका था. वजह कोई भी हो, इंडो-पैसिफिक के जमाने में किसी को तो अफ्रीका की याद आई.
अपने विस्तारक्षेत्र के हिसाब से कॉमनवेल्थ एक प्रभावशाली तस्वीर पेश करता है. दुनिया की एक तिहाई आबादी इसके सदस्य देशों की है. ये देश कैरेबियन और अमेरिका (13), अफ्रीका (19), एशिया (8), यूरोप (3) और पैसिफिक (11) में फैले हुए हैं. यही नहीं, आज जब दुनिया में बहुपक्षवाद का जोर कम हो रहा है तो ऐसे में रवांडा और मोजाम्बिक का सदस्यता लेना और पूर्व फ्रांस-शासित देशों - गैबोन और टोगो का किगाली शिखर भेंट में सदस्यता की कोशिश एक दिलचस्प बात है.
रवांडा को शिखर भेंट की मेजबानी करने देने का निर्णय कॉमनवेल्थ के मानवाधिकारों और लोकतंत्र को लेकर प्रतिबद्धता पर निश्चित रूप से सवाल खड़े करता है. रवांडा को लेकर ब्रिटेन में हाल में उठे विवाद भी इस बात पर प्रकाश डालते हैं. रवांडा ब्रिटेन के अवांछित प्रवासियों का शरणस्थल रहा है जिसकी ब्रिटेन में बड़े पैमाने पर आलोचना हो रही है. हाल में ब्रिटेन और रवांडा के बीच एक डील हुई है जिसके तहत शरण मांगने वालों को रवांडा भेजा जाएगा. ब्रिटेन में घुसने की उन्हें इजाजत नहीं होगी. इससे कॉमनवेल्थ के नियमबद्ध और मूल्यपरक संगठन होने पर भी आंच आती है.
अपनी स्थापना के समय से ही कॉमनवेल्थ ब्रिटेन के इर्द गिर्द ही बुना गया है. यह स्थिति अभी तक वैसी ही है. आज जब ब्रेक्जिट से निकल कर ब्रिटेन अपने लिए नई जमीन तलाश रहा है तो ऐसे में कॉमनवेल्थ की प्रासंगिकता बढ़ गई है. शायद यही वजह है कि ब्रिटेन कॉमनवेल्थ देशों के साथ व्यापार बढ़ाने की कोशिश में है.
कॉमनवेल्थ की दिक्कत
इस बात में कोई दो राय नहीं है कि भारत, दक्षिण अफ्रीका, ऑस्ट्रेलिया, मलेशिया, सिंगापुर, कनाडा और न्यूजीलैंड जैसे देशों की वजह से आज भी कॉमनवेल्थ विश्व राजनीति में एक अहम भूमिका निभा सकता है. ब्रिटेन के प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन ने इन्ही बातों के चलते इसे "कॉमनवेल्थ एडवांटेज" की संज्ञा दी है.
लेकिन पारस्परिक सहयोग की यह बातें थोड़ी बेईमानी सी लगती हैं. खास तौर पर तब, जब दिखता है कि ब्रिटेन संगठन का नेतृत्व ऑस्ट्रेलिया, कनाडा, दक्षिण अफ्रीका या भारत को देने का इच्छुक नहीं है. यह ठीक वैसा ही लगता है जैसे बचपन के गली क्रिकेट में टीम का कप्तान, सलामी बल्लेबाज और गेंदबाज वही होता था जो बल्ला, गेंद, और स्टम्प लेकर आता था. अब ऐसे खेल में तो खिलाड़ी मजबूरी में ही खेलेंगे न. और वही हो रहा है.
दुनिया भर से 29 शासनाध्यक्ष इस बैठक में शामिल हुए जबकि ऑस्ट्रेलिया, दक्षिण अफ्रीका, ऑस्ट्रेलिया, भारत और न्यूजीलैंड जैसे 25 देशों से उनके मंत्रियों या वरिष्ठ अधिकारियों ने अपने अपने देशों का प्रतिनिधित्व किया. भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और दक्षिण अफ्रीका के राष्ट्रपति साइरिल राम्फोसा ने ब्रिक्स शिखर भेंट को कॉमनवेल्थ पर तरजीह दी. मोदी की ओर से विदेश मंत्री एस जयशंकर ने भारत का प्रतिनिधित्व किया.
इससे साफ है कि भारत और दक्षिण अफ्रीका जैसी शक्तियों की ब्रिक्स से ज्यादा नजदीकी है. कहीं न कहीं इन देशों को लगता है कि ब्रिक्स से उन्हें ज्यादा फायदा है. आश्चर्य की बात यह भी है कि ब्रिक्स में रूस और चीन दोनों ही देश प्रमुख भूमिका में हैं. और यही देश अमेरिका और यूरोपीय संघ की मुश्किलों का सबब बनते जा रहे हैं.
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आगे की राह
अगर ब्रिटेन चाहता है कि कॉमनवेल्थ अंतरराष्ट्रीय राजनीति में बड़ी भूमिका निभाए और उसकी खुद की भी धाक जमी रहे तो उसे कॉमनवेल्थ की उभरती शक्तियों को साथ लेकर और उनके हाथों में बागडोर देकर इस संगठन को मजबूती देनी होगी.
इसी से जुड़ा एक मुद्दा है ब्रिटेन की महारानी एलिजाबेथ द्वितीय को कई देशों द्वारा अपना सार्वभौम शासक मानने का. इस सन्दर्भ में महारानी के उत्तराधिकारी राजकुमार चार्ल्स का वक्तव्य महत्वपूर्ण है. उन्होंने कहा है कि यह सदस्य देशों का निर्णय है कि वो महारानी को अपना राष्ट्राध्यक्ष मानें या नहीं.
अपने भाषण में राजकुमार चार्ल्स ने बीती सदियों में ब्रिटिश साम्राज्य के दौरान अमल में लायी दासप्रथा और एशिया-अफ्रीका के देशों के शोषण पर खेद जताया है. यह अच्छा सन्देश है जिसके कूटनीतिक, आर्थिक और सामरिक क्षेत्रों में भी अमल की जरूरत है. साथ ही यह भी जरूरी है कि बीती बातों से अच्छे सबक लेकर आगे के राह देखी जाए.
भारत, दक्षिण अफ्रीका, कनाडा और आस्ट्रेलिया जैसे देशों को मौका देकर उनकी चिंताओं, नीतियों और एजेंडे पर ध्यान देकर और हो सके तो कॉमनवेल्थ सचिवालय को दूसरे देशों के साथ मिलकर चलाने से शायद सदस्य देशों में एक अच्छा और सकारात्मक सन्देश जाए और उन्हें लगे कि कॉमनवेल्थ उनकी आकांक्षाओं और अपेक्षाओं पर खरा उतरने में सफल हो सकता है.
डॉ. राहुल मिश्र मलाया विश्वविद्यालय के आसियान केंद्र के निदेशक और एशिया-यूरोप संस्थान में अंतरराष्ट्रीय राजनीति के वरिष्ठ प्राध्यापक हैं. आप @rahulmishr_ ट्विटर हैंडल पर उनसे जुड़ सकते हैं.