आर्थिक तौर पर समृद्ध होता चीन, सऊदी अरब के लिए बड़ा आकर्षण
१७ जून २०२३सऊदी अरब की राजधानी रियाद में इस हफ्ते दो दिवसीय अरब-चीन व्यापार सम्मेलन के दौरान शक्ति संतुलन में उस वक्त बदलाव के संकेत दिखे जब चीन और सऊदी अरब ने दस अरब डॉलर के निवेश के समझौते की घोषणा की.
सऊदी अरब की सरकारी न्यूज एजेंसी एसपीए का कहना है कि इस सौदे में तकनीक, नवीनीकरण, कृषि, रियल एस्टेट, खनन, पर्यटन और हेल्थकेयर जैसे कई क्षेत्रों से संबंधित करीब 30 समझौते शामिल हैं.
इस दसवें अरब-चीन व्यापार सम्मेलन में 26 देशों के करीब 3500 कारोबारियों, इनोवेटरों और सरकार से जुड़े अधिकारियों, नेताओं ने भाग लिया जिसमें चीन का अब तक का सबसे बड़ा प्रतिनिधिमंडल भी शामिल था.
अभी तक, सऊदी अरब मध्य पूर्व में अमेरिका का सबसे बड़ा साझेदार रहा है लेकिन चीन के साथ इन सौदों से ये पता चलता है कि अब इस इलाके में अमेरिका का प्रभाव कमजोर पड़ रहा है.
यह नया सहयोग उस घटना के तीन महीने बाद आया है जब चीन ने सऊदी अरब और ईरान के बीच वर्षों से चली आ रही शत्रुता के बीच समझौते की मध्यस्थता की. यमन और सीरिया के बीच चल रहे छद्म युद्ध में सऊदी अरब और ईरान एक-दूसरे के विरोध में खड़े थे.
इलेक्ट्रिक गाड़ियों के संबंध में सहयोग
इस सऊदी-चीन निवेश की आधे से ज्यादा नगदी से चीन की लग्जरी इलेक्ट्रिक वाहन निर्माता ह्यूमन होराइजंस सऊदी अरब में नई कार उत्पादन सुविधाओं का निर्माण करेगी. इस सौदे के बारे में सऊदी अरब के ऊर्जा मंत्री प्रिंस अब्दुलअजीज बिन सलमान ने प्रतिनिधियों को बताया, "हमें चीन से प्रतिस्पर्धा नहीं करनी है, हमें चीन के साथ सहयोग करना है.”
चीन और सऊदी अरब के मजबूत होते संबंधों को लेकर पश्चिमी देशों की आशंका को दूर करते हुए उन्होंने कहा, "दरअसल, मैं इन बातों को नजरअंदाज कर देता हूं.... एक व्यवसायी के तौर पर.... आप वहीं जाएंगे, जहां आपको मौके मिलेंगे.”
कुछ दिनों पहले ही अमेरिकी विदेश मंत्री एंटनी ब्लिंकेन ने सऊदी अरब के विदेश मंत्री से कहा था कि अमेरिका चीन के साथ तनाव के बीच सऊदी अरब पर अपना पक्ष लेने का दबाव नहीं बना रहा है.
अमेरिका और चीन के बीच भू-राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता का जिक्र करते हुए सऊदी नेताओं का कहना है कि वो इस "जीरो-सम गेम" में नहीं पड़ना चाहते. वहीं विश्लेषकों का भी मानना है कि सऊदी अरब इन स्थितियों का अपने लाभ के लिए इस्तेमाल कर कर सकता है.
यूएस नेशनल वॉर कॉलेज में नेशनल सिक्योरिटी सट्रैटजी विभाग में असोसिएट प्रोफेसर डॉन सी. मर्फी कहते हैं, "मध्य पूर्व के देशों में चीन के बढ़ते प्रभाव की वजह से इन देशों को अमेरिका के साथ अब ज्यादा मोल-भाव करने का मौका मिल रहा है. हालांकि मुझे नहीं लगता, ये देश इस उम्मीद में भी हैं कि जिस तरह की सुरक्षा इन्हें अमेरिका प्रदान करता है, वैसा चीन भी करेगा. इसे सिर्फ चीन की आर्थिक और राजनीतिक मौजूदगी के रूप में ही देखा जाना चाहिए.”
ऊर्जा व्यापार से विजन 2030 तक
चीन और सऊदी अरब के बीच दशकों से मजबूत आर्थिक संबंध रहे हैं और इसकी वजह सऊदी अरब के तेल के लिए चीन की कभी ना मिटने वाली भूख है. सऊदी अरब के सरकारी आंकड़ों के मुताबिक, साल 2022 में दोनों देशों के बीच 106 अरब डॉलर से भी ज्यादा का व्यापार हुआ जो कि पिछले साल की तुलना में 30 फीसदी ज्यादा था. इसकी तुलना में अमेरिका के साथ सऊदी अरब का व्यापार महज 55 अरब डॉलर का ही था.
चीन अपनी जरूरत का करीब आधा तेल मध्य पूर्व से ही आयात करता है और इस तरह वह सऊदी अरब और ईरान के तेल का सबसे बड़ा खरीदार है. सऊदी अरब विजन 2030 योजना के जरिए ऊर्जा उत्पादन से अपनी अर्थव्यवस्था को विविधता देने की कोशिश कर रहा है और इसके लिए बड़े आधारभूत निर्माण के ठेकों के लिए चीनी कंपनियां तैयार बैठी हैं.
एक चीनी कंपनी तो पहले ही मक्का में लाइट-रेल सिस्टम बना चुकी है जिसकी वजह से इस पवित्र शहर में दुनिया भर से आने वाले लाखों लोगों को फायदा मिल रहा है. 18 किलोमीटर लंबी इस लाइन में नौ स्टेशन हैं और यह मध्य पूर्व की पहली रेल लाइन है जिसे किसी चीनी कंपनी ने बनाया है.
ईरान-सऊदी अरब संबंधों का सुधरना एक निर्णायक बिंदु
मार्च में, मध्य पूर्व में चीन का दबदबा उस वक्त दिखा जब सऊदी अरब और ईरान ने सात साल से चली आ रही शत्रुता को खत्म करते हुए आश्चर्यजनक रूप से संबंध सुधारने से जुड़ा समझौता किया और इस समझौते की मध्यस्थता चीन ने की.
इन दोनों देशों के बीच शत्रुता खत्म होने का असर सीरिया और यमन पर भी पड़ा और उन दोनों ने भी अपने संबंध बहाल करने की दिशा में कदम उठाए. अमेरिका इसकी आलोचना कर रहा है.
यही नहीं, अमेरिका के लिए एक और शर्मिंदगी वाली स्थिति फलिस्तीनी नेता महमूद अब्बास के बीजिंग पहुंचने पर बनी. वह इस समय बीजिंग में हैं. अब्बास की यह यात्रा फलस्तीन और इस्राएल के बीच लंबे समय से रुकी हुई शांति वार्ता को दोबारा शुरू कराने में चीन की ओर से सहयोग की इच्छा जताने के बाद हुई है.
इस बीच, अमेरिका-सऊदी अरब संबंधों में तब खटास शुरू हो गई जब 2018 में अमेरिका निवासी पत्रकार जमाल खशोगी की इस्तांबुल में सऊदी दूतावास के भीतर हत्या हो गई थी.
इसके बाद, 2021 में जो बाइडन के अमेरिका के राष्ट्रपति बनने और इस अमेरिकी खुफिया आकलन कि खशोगी की हत्या की स्वीकृति सऊदी क्राउन प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान ने दी थी, दोनों देशों के संबंध और खराब हो गए. हालांकि इस रिपोर्ट को प्रिंस मोहम्मद बिन सुल्तान खारिज कर चुके हैं.
यमन के विनाशकारी संघर्ष, मानवाधिकार और तेल कीमतों जैसे मामलों में सऊदी हस्तक्षेप की वजह से संबंधों की खाई और चौड़ी होती गई.
ब्रिक्स प्रतिद्वंद्विता और डी-डॉलराइजेशन की अपील
यही नहीं, सऊदी अरब यूएई, मिस्र, बहरीन और ईरान के साथ ब्रिक्स नाम के उस भूराजनीतिक ब्लॉक का भी हिस्सा बनने को आतुर है जिसका नेतृत्व चीन कर रहा है. हालांकि इस ब्लॉक में रूस, भारत, ब्राजील और दक्षिण अफ्रीका भी शामिल हैं. अमेरिका को इस वजह से भी इस इलाके में प्रतिद्वंद्विता का सामना करना पड़ रहा है.
यूक्रेन युद्ध के बाद रूस पर पश्चिमी देशों के लगाए गए प्रतिबंधों के कारण रूस के सेंट्रल बैंक में रखे करीब 300 अरब अमेरिकी डॉलर के फॉरेन रिजर्व सीज हो गए. इस वजह से कई गैर-पश्चिमी अमीर देशों ने अंतरराष्ट्रीय व्यापार में अमेरिकी डॉलर और अमेरिकन बैंकिंग सिस्टम पर निर्भरता को कम करने की दिशा में सोचना शुरू कर दिया.
ब्रिक्स देशों ने तो स्विफ्ट नाम से अपना बैंक पेमेंट सिस्टम बना लिया है और अब ये देश एक वैकल्पिक मुद्रा के बारे में भी सोच रहे हैं. इस बीच, सऊदी अरब के नेताओं ने भी इच्छा जताई है कि वो अपने तेल के लिए चीन से उसी की मुद्रा रेन्मिबी में ही पेमेंट लेना चाहते हैं.
कई विश्लेषकों का मानना है कि इस कदम से अमेरिकी आधिपत्य को और नुकसान होगा लेकिन मर्फी इसे बहुत महत्वपूर्ण नहीं मानतीं क्योंकि रेन्मिन्बी को अंतरराष्ट्रीय मुद्राओं में कंवर्ट नहीं किया जा सकता.
डीडब्ल्यू से बातचीत में वो कहती हैं, "चूंकि आपके पास चीन और सऊदी अरब के बीच अपेक्षाकृत संतुलित व्यापार है और काफी ज्यादा है.....उन्हें पता है कि इसमें बहुत जोखिम नहीं है और इससे चीन को एक सकारात्मक संदेश भी भेज रहे हैं कि सऊदी अरब चीन के साथ संबंधों को कितना महत्व देता है.”