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तिब्बत की निर्वासित सरकार की चुनौतियां

राहुल मिश्र
२१ मई २०२१

जब से दलाई लामा ने तिब्बत की निर्वासन सरकार की जिम्मेदारी छोड़ी है, निर्वासित तिब्बती लोकतंत्र की राह का परीक्षण कर रहे हैं. अभी हाल में हुए चुनावों के बाद पेन्पा शेरिंग तिब्बत के नए राष्ट्र प्रमुख चुने गए हैं.

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Schweiz Petition Tibeter
तस्वीर: Alessandro della Valle/Keystone/picture alliance

मानव सभ्यता के पिछले 5000 सालों से अधिक के इतिहास में राजनीतिज्ञों, शासकों, और नीतिनिर्धारकों ने तरह-तरह के प्रयोग किए हैं. राजनीतिशास्त्रियों ने इन व्यवस्थाओं के अध्ययन के लिए सिद्धांतों और नियमों का प्रतिपादन भी किया. लेकिन दुनिया की तमाम शासन प्रणालियों में लोकतंत्र शायद न सिर्फ सबसे पुरानी व्यवस्थाओं में से एक है बल्कि आज की आधुनिक विश्व व्यवस्था में यह खुद अपने आप में एक आदर्श बन गया है. एक ऐसा दर्जा जिसे पाने के लिए तानाशाहों ने अपनी दमनकारी व्यवस्थाओं को कभी गाइडेड डेमोक्रेसी कहा तो कभी एनलाइटेड डेमोक्रेसी. ऐसे देश जहां एक ही राजनीतिक पार्टी दशकों से राज कर रही है, वह भी खुद को लोकतंत्रों की कतार में दिखाना चाहते हैं.

यह दिलचस्प है कि चीन जैसी साम्यवादी व्यवस्थाओं से अलग दिखने और बर्ताव करने की कवायद में ताइवान जैसे देशों ने खासी लोकप्रियता भी हासिल की है. चीन-प्रशासित हांगकांग में पिछले दो से अधिक बरसों से कैरी लैम सरकार के खिलाफ चल रहे विरोध प्रदर्शनों और दुनिया के तमाम देशों के समर्थन के पीछे वजह यह नहीं है कि वहां के लोग भूखों मर रहे हैं. वहां एक बड़ा नीतिपरक सवाल जनता की समान भागीदारी से जुड़ा है. लोगों की भागीदारी की आकांक्षा ही लोकतंत्र को मजबूत करती है.

हिमाचल और तिब्बती संस्कृति का मिलन

तिब्बती समुदाय की लोकतंत्र की चाहत

लोकतंत्र के इसी आदर्श को जीने की कवायद तिब्बती समुदाय के लोग भी बरसों से करते आ रहे हैं. अपनी मातृभूमि से जुदा तिब्बत के लोगों के लिए दलाई लामा सबसे बड़े धर्मगुरु और तिब्बती लोगों के आध्यात्मिक मुखिया हैं. दलाई लामा की शुरू की गयी तिब्बत की निर्वासित सरकार तिब्बती लोगों के लिए सर्वमान्य सरकार है. हालांकि चीन के अधीन वाले तिब्बत को ही दलाई लामा अपनी मातृभूमि मानते हैं. दलाई लामा और उनके अनुयायी तमाम लोगों का सपना है कि एक दिन वह अपनी मातृभूमि वापस जा सकेंगे और उन्हें बिना किसी के अधीन रहे अपना धर्म, अध्यवसाय, और शासन व्यवस्था चुनने की आजादी होगी. यह सपना कहां तक और कब सच होगा, कहना मुश्किल है.

Indien Coronavirus | Dalai Lama erhält einen COVID-19-Impfstoff
बर्लिन के धर्मशाला में है तिब्बत की निर्वासित सरकारतस्वीर: Office of the his holiness the Dalai Lama/AP/picture alliance

तिब्बत की निर्वासित संसद के सदस्यों और सिक्यांग के चुनावों का आखिरी चरण 11 अप्रैल 2021 को पूरा हुआ. आंकड़ों के अनुसार इस चुनाव में लगभग 64 हजार तिब्बती लोगों ने 23 अलग अलग देशों से अपने मताधिकार का प्रयोग किया. अगर दुनिया भर में बसे तिब्बतियों की संख्या के हिसाब से इस आंकड़े को देखा जाए तो साफ है कि लगभग 77 प्रतिशत लोगों ने इस चुनाव में भाग लिया.

चुनाव विश्लेषक यह भी मानते हैं कि 17वीं संसद के चुनावों में अब तक का सबसे रिकार्ड मतदान हुआ. 2011 में दलाई लामा के राजनीतिक क्षेत्र से वानप्रस्थ के बाद हुआ यह तीसरा सीधा चुनाव है जिसमें तिब्बती जनता ने अपना प्रतिनिधियों को चुना है. इन चुनावों में 45 संसद सदस्यों का निर्वाचन हुआ. तिब्बती चुनाव आयोग के अनुसार यह 45 संसदीय सीटें तिब्बती लोगों की दुनिया के विभिन्न हिस्सों में तादाद और भौगोलिक कारकों पर आधारित है.

नई सरकार की चुनौती कोरोना का सामना

इस चुनाव में सिक्योंग पद पर पेन्पा शेरिंग विजयी हुए. तिब्बती शासन व्यवस्था में सिक्योंग का पद राष्ट्रपति के बराबर माना जाता है. 34,324 मतों के साथ उन्होंने जीत हासिलकी. केंद्रीय तिब्बत प्रशासन की जिम्मेदारी अब उनके कंधों पर होगी. अबतक डॉक्टर लोबसांग सांगे तिब्बत के राष्ट्रपति थे. उन्होंने तिब्बत की निर्वासित सरकार की बागडोर एक दशक तक सम्भाल कर रखी. नव-निर्वाचित राष्ट्रपति पेन्पा शेरिंग 26 मई को पदभार ग्रहण करेंगे. कोविड महामारी से जूझती दुनिया में तिब्बती समुदाय के लोग भी इस महामारी की चपेट में आ रहे हैं. चीन के अलावा दुनिया की लगभग हर बड़ी आर्थिक शक्ति इस महामारी के चलते धीमी और कमजोर पड़ी है.

जाहिर है, पेन्पा शेरिंग के सामने भी फिलहाल सबसे बड़ी चुनौती होगी दुनिया भर में तिब्बतियों की सुरक्षा और महामारी की वजह से उन पर आई आर्थिक मुश्किलों से निपटने में मदद करना. अमेरिका में ट्रंप के राष्ट्रपति काल में तिब्बत को अच्छा समर्थन मिला था. लोबसांग सांगे ने नवंबर 2020 में अमेरिका की यात्रा कर और व्हाइट हाउस में बैठक कर रिश्तों को नया आयाम भी दिया था. पेन्पा शेरिंग अमेरिका के साथ सम्बंधों को कैसे सुदृढ़ करते हैं और भारत-चीन के खराब सम्बंधों के मद्देनजर कैसे संतुलन साधते हैं, यह देखना दिलचस्प होगा.

(राहुल मिश्र मलाया विश्वविद्यालय के एशिया-यूरोप संस्थान में अंतरराष्ट्रीय राजनीति के वरिष्ठ प्राध्यापक हैं)

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