यूरोप में ब्लैकफेस परंपरा को तोड़ने पर जोर
७ दिसम्बर २०२२जर्मनी जैसे यूरोपीय देश में 6 दिसंबर को सेंट निकोलास का दिन होता है. वहीं नीदरलैंड्स में इन्हें सिंटरक्लास कहते हैं. ज्यादातर ईसाई धर्म को मानने वाले इन देशों में मान्यता है कि सेंटा क्लॉज से पहले यह सेंट आते हैं. इनके आने की धूम धाम से तैयारी नवंबर के मध्य से ही शुरु हो जाती है. खासकर बच्चे और उनके माता पिता अपने गांव-शहर में इनके आने का बड़ी बेसब्री से इंतजार करते हैं. कभी यह नाव से तो कभी घोड़े या गर्म हवा के गुब्बारों में बैठ कर पहुंचते हैं.
इनके साथ ही पहुंचते हैं छोटे छोटे हेल्पर जो पारंपरिक रूप से "स्वार्टे पीट" या ब्लैक पीट कहलाते थे. अपने चेहरे को काला रंग कर लोग इस चरित्र को निभाते आए हैं. त्योहार के मौसम में ये सड़कों पर लोगों को कुकीज बांटते, नाचते और मजाक करते दिखते हैं. 6 दिसंबर से एक शाम पहले यह जगह जगह जाकर बच्चों के लिए तोहफे रखते हैं.
ब्लैकफेस पर बवाल
जेरी आफ्रीयी जैसे एक्टिविस्ट्स को यह सब फूटी आंख नहीं सुहाता. वे बताते हैं कि नवंबर और दिसंबर महीने उनके लिए साल का सबसे मुश्किल वक्त होता है. कारण ये है कि इस दौरान गोरे डच लोग अपने चेहरे पर काला रंग पोत कर स्वार्टे पीट का रोल निभाते हैं. चरित्र में आने के लिए वे कई बार अफ्रीकी बालों वाली विग पहनते हैं, होठों को मोटा दिखाते हैं और पहले तो कानों में सुनहरी बालियां भी पहना करते थे.
आफ्रीयी जैसे अफ्रीकी मूल के व्यक्ति का मानना है कि इसे कब का बंद हो जाना चाहिए था. वे अपने अनुभव से बताते हैं कि ना केवल इससे काले लोगों का मजाक बनता है बल्कि इसे जारी रख कर नीदरलैंड्स अपने औपनिवेशिक अतीत का जैसे प्रदर्शन करता है. उनका मानना है कि नीदरलैंड्स को तो अपने औपनिवेशिक इतिहास का फिर से मूल्यांकन करना चाहिए. हालांकि हाल के सालों में नीदरलैंड्स में ऐसी सोच को काफी बल मिला है. लेकिन कई दूसरे लोग भी हैं जो इस परंपरा के प्रशंसक हैं और उन्हें इसमें कोई नस्लवाद नजर नहीं आता.
दशकों से रही है शिकायतें
मिचेल एसाजस कहते हैं कि डच ब्लैक समुदाय के अंदर पीट को लेकर दशकों से एक असहजता रही है. वह मानव विज्ञानी हैं और एम्सटर्डम में ब्लैक आर्काइव्स के संस्थापक भी. इतिहासकार एलिजाबेथ कोनिंग बताती हैं कि इससे जुड़ी शिकायतें तो आती रहीं लेकिन कभी उन्हें ज्यादा महत्व नहीं दिया गया.
मिसाल के तौर पर 1980 के दशक में टीवी पर आने वाले शो सेसेमी स्ट्रीट की डच-सूरीनामी अदाकारा गेर्डा हावरटोंग का ये डायलॉग देखिए: "मैं बार बार स्वार्टे पीट सुन सुन कर थक गई हूं." सन 2010 के दशक में जाकर पहली बार इसके खिलाफ विरोध प्रदर्शनों ने जोर पकड़ा. इस समय तक स्मार्टफोन और सोशल मीडिया आ जाने से काले पुते चेहरों की तस्वीरें दुनिया भर में आसानी से पहुंचने लगीं. इसके कारण विरोध को और बल मिला.
आफ्रीयी कहते हैं, "हमारा पूरा हक है कि हम पूरी तरह डच माने जाएं - जैसे कि इस देश में पैदा हुए हर उस बच्चे को है. हमें वही सम्मान मिलना चाहिए, वही मौके और सुनवाई के लिए वैसे ही मौके भी." सन 2011 में कुछ और लोगों के साथ मिलकर उन्होंने पहला बेहद सफल आंदोलन कियाऔर पीट के चरित्र के साथ जुड़े रेसिज्म के खिलाफ जागरुकता फैलाई. लेकिन इसी दौरान पुलिस ने उनको और उनके साथियों को गिरफ्तार कर लिया.
उनकी गिरफ्तारी जिस हिंसक अंदाज में हुई उसका किसी प्रत्यक्षदर्शी ने वीडियो बना कर वायरल कर दिया जिसके कारण विरोध प्रदर्शन की आग में जैसे घी पड़ गया. इसका विरोध करने वाले तमाम एक्टिविस्टों को जान की धमकियां भी मिल चुकी हैं. हाल ही में जब एनजीओ 'एमनेस्टी इंटरनेशल' ने 'किक आउट स्वार्टे पीट इनीशिएटिव' के साथ मिलकर जब प्रदर्शन किया तो उन पर स्थानीय भीड़ ने हमला कर दिया, कार तोड़ी और अंडे फेंके.
ब्लैक पीट की जगह लाए 'चिमनी पीट' को
स्वार्ते पीट के समर्थक कहते हैं कि उसका अफ्रीकी मूल से कोई लेना देना ही नहीं है इसलिए यह बहस ही बेमानी है. एक दूसरी मान्यता ये है कि वह असल में एक शैतान था जो कि पेगल लोककथाओं से निकला है. जर्मनी में भी क्रांपुस नामके एक शैतान चरित्र की मान्यता है. वो भी मिलता जुलता दिखता है और सेंट निकोलास के साथ आता है.
हालांकि इतना विवाद छिड़ने और विरोध प्रदर्शनों के चलते आजकल ज्यादातर स्कूलों, परेडों और टीवी में ब्लैक पीट को चिमनी पीट बना दिया गया है. माना जाता है कि उसके चेहरे पर कालिख लग गई है क्योंकि वो घर घर में तोहफे पहुंचाने चिमनी के रास्ते से आता है. कुछ जगहों पर निकोलास के इन मददगारों के चेहरे ग्रे, पीले और दूसरे रंगों में रंगे जाने लगे हैं.
2011 में विरोध प्रदर्शनों की शुरुआत के समय हर 10 में से नौ डच व्यक्ति को ब्लैक पीट में कोई समस्या नहीं लगती थी. यहां तक कि प्रधानमंत्री मार्क रुटे खुद भी कई बार इस तरह का हुलिया बना चुके हैं. आज की तारीख में करीब आधे डच लोगों को लगता है कि स्वार्टे पीट को बदलने की जरूरत है. आज भी देश के प्रधानमंत्री रूटे पीट के चरित्र पर कोई प्रतिबंध तो नहीं लगाना चाहते लेकिन मानते हैं कि ब्लैक लाइव्ज मैटर आंदोलन ने उनकी सोच जरूर बदली है. उनको लगता है कि आने वाले कुछ सालों में यह परंपरा अपने आप गायब हो जाएगी.
यह लेख मूल रूप से जर्मन में लिखा गया था.
आरपी/एनआर