अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही है सौ साल पुरानी पार्टी
१६ दिसम्बर २०२१भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस भारत में सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी है जिसकी स्थापना साल 1885 में हुई. उसके करीब 35 साल बाद भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी यानी सीपीआई की स्थापना हुई. सीपीआई की स्थपाना के दो महीने बाद शिरोमणि अकाली दल का गठन हुआ.
भारतीय स्वाधीनता संग्राम का यह वो दौर था जब महात्मा गांधी आंदोलन की रीढ़ बन चुके थे. सत्याग्रह और असहयोग आंदोलन न सिर्फ अंग्रेजी शासन के खिलाफ हो रहा था बल्कि भारतीय समाज में व्याप्त कुरीतियों को समाप्त करने, शोषक जमींदारों से मुक्ति, मंदिरों में दलितों के प्रवेश और गुरुद्वारों को कुछ लोगों की मुट्ठी से छुड़ाने के लिए भी शुरू हो चुका था.
तस्वीरेंः पाकिस्तान में भव्य मंदिर
सीपीआई की स्थापना रूसी क्रांति से प्रभावित थी जबकि शिरोमणि अकाली दल पर गांधी की अहिंसात्मक संघर्ष की नीति का प्रभाव था और जिस तरह से भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस आंदोलन की उपज थी, उसी तरह यह पार्टी भी गुरुद्वारों में भ्रष्ट महंतों के खिलाफ हुए संघर्ष और गुरुद्वारों की मुक्ति के लिए चले आंदोलन से जन्मी थी. गुरुद्वारों का संचालन उस वक्त निजी तौर पर होता था और उनका नियंत्रण भी कुछेक महंतों के हाथ में होता था.
महंतों के खिलाफ अभियान
इतिहासकार बिपिन चंद्र ने अपनी पुस्तक ‘भारत का स्वाधीनता संघर्ष' में लिखा है कि केश न रखने के कारण मुगल इन महंतों को हिंदू समझते थे और इस वजह से ये महंत मुगलों के कोपभाजन होने से बचते रहे. लेकिन समय के साथ ये महंत भ्रष्ट होते गए और गुरुद्वारों में आने वाले चढ़ावे को निजी संपत्ति मान उसका दुरुपयोग करते रहे.
1920 के दशक में इन महंतों के खिलाफ सिख सुधारकों ने गांधीवादी तरीके से अभियान चलाया और न चाहते हुए भी अंग्रेज सिख गुरुद्वारा अधिनियम, 1925 लाने पर मजबूर हुए. साल 1920 में गुरुद्वारों को महंतों से आजाद कराने के लिए 175 सदस्यीय एक टास्क फोर्स का गठन किया गया जिसे शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी नाम दिया गया.
संघर्ष का नेतृत्व करने, बड़ी संख्या में स्वयंसेवकों को आंदोलन से जोड़ने और आंदोलन को सुनियोजित तरीके से चलाने के लिए 14 दिसंबर 1920 को अकाली दल का गठन हुआ जो बाद में शिरोमणि अकाली दल बन गया. बिपिन चंद्र लिखते हैं कि महंतों के खिलाफ लोगों में गुस्से की कुछ तात्कालिक वजहें भी थीं. चूंकि इन्हें ब्रिटिश हुकूमत का पूरा समर्थन मिलता था इसलिए ये महंत भी सरकार का साथ देते थे.
साल 1920 में ही दो घटनाओं ने आग में घी डालने का काम किया. पहली घटना में अमृतसर के स्वर्ण मंदिर से एक फरमान जारी हुआ जिसमें विदेशों में रहकर अंग्रेजी सरकार के खिलाफ संघर्ष कर रहे गदर आंदोलन से जुड़े क्रांतिकारियों को विद्रोही घोषित कर दिया गया और दूसरी घटना यह हुई कि साल 1919 में अमृतसर के जलियांवाला बाग में नरसंहार करने वाले जनरल डायर को सरोपा भेंट करके उन्हें सिख घोषित कर दिया गया.
आंदोलन यूं तो अहिंसक रहा लेकिन 20 फरवरी 1921 को ननकाना साहब गुरुद्वारे में प्रवेश करने की कोशिश रहे अकालियों पर गोली चलाई गई जिसमें बड़ी संख्या में लोग मारे गए. हालांकि अकाली इस गुरुद्वारे में प्रवेश करने में सफल रहे. आंदोलन को अपना समर्थन देने के लिए खुद महात्मा गांधी ननकाना साहब पहुंचे और उनके साथ मौलाना शौकत अली के अलावा कई बड़े नेताओं ने इस आंदोलन के प्रति अपनी एकजुटता प्रदर्शित की. अकाली दल और और एसजीपीसी ने असहयोग आंदोलन को समर्थन दिया और स्वतंत्रता संघर्ष में कांग्रेस और गांधी जी के साथ रहे. साल 1925 में गुरुद्वारों का नियंत्रण एसजीपीसी के हाथ में आ गया.
भारत की पहली जीत
महात्मा गांधी ने आंदोलन के नेता बाबा खड़ग सिंह को अंग्रेजों द्वारा स्वर्ण मंदिर की चाबियां सौंपे जाने की घटना को अंग्रेजों से आजादी के लिए चल रहे संघर्ष में भारत की पहली जीत बताया. करीब बीस साल तक अकाली दल और कांग्रेस मिल कर अंग्रेजों के खिलाफ संघर्ष करते रहे. 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन से पहले तक कांग्रेस और शिरोमणि अकाली दल की दोहरी सदस्यता आम बात थी. यहां तक कि बाबा खड़ग सिंह भी 1922 में अकाली दल का अध्यक्ष बनने के बाद भी पंजाब में कांग्रेस के महत्वपूर्ण नेता रहे.
सिखों की लड़ाई लड़ने वाले शिरोमणि अकाली दल ने साल 1937 में पहली बार चुनावी मैदान में कदम रखा और पंजाब में 10 सीटें हासिल कीं. साल 1947 में जब मजहब के आधार पर देश का बंटवारा हुआ तो शिरोमणि अकाली दल के तत्कालीन प्रमुख मास्टर तारा सिंह ने इसका विरोध किया. पूर्व राज्यसभा सदस्य तरलोचन सिंह ने कुछ समय पहले संसद में कहा था कि यदि तारा सिंह ने विभाजन के समय पाकिस्तान में एक सिख राज्य के लिए जिन्ना के कुछ देने के बदले कुछ लेने की मंशा को खारिज न किया होता तो पूरा पंजाब पाकिस्तान में चला गया होता. दरअसल साल 1930 से 1965 तक सिख राजनीति के सर्वेसर्वा बाबा खड़ग सिंह के उत्तराधिकारी मास्टर तारा सिंह ही थे.
साल 1950 के दशक में देश भर में भाषाई आधार पर राज्यों के पुनर्गठन की मांग तेज हुई तो इस आंदोलन की आंच पंजाब पर भी आई. आंदोलन यहां भी चला लेकिन साल 1956 में राज्य पुनर्गठन आयोग की सिफारिश पर जिन राज्यों की स्थापना हुई, उसमें पंजाब का नाम नहीं था. पंजाब को साल 1966 में अलग राज्य का दर्जा मिला और अगले साल हुए विधानसभा चुनाव में शिरोमणि अकाली दल के नेता गुरनाम सिंह राज्य के पहले अकाली मुख्यमंत्री बने.
साल 1975 में लगे आपातकाल का सबसे पहला विरोध शिरोमणि अकाली दल की ओर से किया गया और प्रकाश सिंह बादल, गुरचरण सिंह टोहड़ा, जगदेव सिंह तलवंडी जैसे कई प्रमुख नेता गिरफ्तार किए गए थे. अकाली दल के इंदिरा गांधी से रिश्ते यहीं से बिगड़ने लगे. इंदिरा गांधी ने सत्ता में लौटने के बाद साल 1978 में बनी अकाली सरकार को भंग कर दिया.
आतंकवाद का दौर
1980 के दशक में पंजाब अलगाववाद और उग्रवाद के साये में रहा. साल 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद स्थितियां और बिगड़ गईं. अकाली दल को भी कट्टरपंथी राजनीति का सामना करना पड़ा लेकिन उग्रवाद के खात्मे के बाद स्थितियां बदलने लगीं और शिरोमणि अकाली दल एक बार फिर मुख्य धारा की राजनीति में सक्रिय हो गई. कभी कांग्रेस के साथ रहने वाली पार्टी अब कांग्रेस की मुख्य प्रतिद्वंद्वी पार्टी हो गई और साल 1996 में भारतीय जनता पार्टी के साथ गठबंधन करके राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन में शामिल हो गई जो पिछले साल कृषि कानूनों के खिलाफ शुरू हुए किसान आंदोलन की शुरुआत तक चलता रहा.
पंजाब में शिरोमणि अकाली दल कई बार सत्ता में रही है लेकिन साल 1970 में प्रकाश सिंह बादल के मुख्यमंत्री बनने के बाद से पार्टी में पूरी सत्ता उनके परिवार के ही पास केंद्रित हो गई है. साल 1992 में शिरोमणि अकाली दल ने विधानसभा चुनाव का बहिष्कार कर दिया, लेकिन साल 1997 में बीजेपी के साथ मिलकर भारी बहुमत से सत्ता में वापसी की. तब से लेकर साल 2021 तक पार्टी ने तीन बार सरकारें बनाईं और तीनों बार प्रकाश सिंह बादल ही मुख्यमंत्री बने.
प्रकाश सिंह बादल के बेटे सुखबीर सिंह बादल पिछली सरकार में राज्य के उप मुख्यमंत्री के साथ पार्टी के अध्यक्ष भी रहे. सुखबीर सिंह बादल की पत्नी हरसिमरत कौर केंद्र में नरेंद्र मोदी सरकार में मंत्री भी थीं लेकिन पिछले साल कृषि कानूनों क विरोध में उन्होंने इस्तीफा दे दिया और अकाली दल ने एनडीए से अलग होने की भी घोषणा कर दी. हालांकि कृषि कानूनों की वापसी के बाद पार्टी के एनडीए में शामिल होने के फिर कयास लगाए जा रहे हैं लेकिन जानकारों का कहना है कि ऐसा होना फिलहाल मुश्किल दिख रहा है.
सौ साल पुरानी यह पार्टी भले ही एक क्षेत्रीय दल के रूप में ही खुद को दर्ज करा सकी लेकिन राष्ट्रीय राजनीति में भी कई मौकों पर महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. फिलहाल परिवारवाद के संकट से जूझने के अलावा उसे कांग्रेस पार्टी के साथ साथ आम आदमी पार्टी से भी चुनौती का सामना करना पड़ रहा है. साल 2022 के चुनाव पार्टी के राजनीतिक भविष्य की दिशा तय करने वाले होंगे.