घातक हमले भी नहीं डिगा पा रहे लड़कियों के हौसले
१७ मई २०२१राजधानी काबुल के एक स्कूल के पास हुए बम धमाके में फरजाना असगरी की 15 साल की छोटी बहन की मौत हो गई. फरजाना अपनी छोटी बहन की कब्र पर खड़े होकर सिसक रही हैं. दोनों बहन इसी स्कूल में पढ़ती थी. सैयद उल शहादा स्कूल के पास हुए धमाके में 80 लोगों की मौत हो गई थी और 160 लोग घायल हुए थे. धमाका ऐसे वक्त हुआ था जब लड़कियां स्कूल से घर जाने के लिए निकली थीं. फिर भी छात्र, परिवार और शिक्षक जिन्होंने थॉमसन रॉयटर्स फाउंडेशन से बात की सभी ने शिक्षा के प्रति अपनी प्रतिबद्धता जाहिर की है.
देश में तालिबान के 1996 से 2001 के शासन के दौरान लड़कियों के स्कूल जाने पर रोक थी. फरजाना अपनी तीन बहनों के साथ इसी स्कूल में पढ़ाई करती हैं, वह भी धमाके के दौरान फंस गई थी, लेकिन वह स्कूल के फिर से खुलने पर लौटने के लिए दृढ़ संकल्प वालों में से हैं. वह कहती हैं, "मैं दोबारा जाऊंगी, एक और हमला होता है तो भी मैं जाऊंगी." 18 साल की फरजाना कहती हैं, "मैं निराश होने वालों में से नहीं हूं. हमें ज्ञान और शिक्षा हासिल करने के लिए डरना नहीं चाहिए."
शिक्षा के लिए बेताब हैं लड़कियां
फरजाना के 53 साल के पिता मोहम्मद हुसैन कहते हैं कि वे डरे हुए हैं लेकिन लड़कियों को घर पर नहीं रखेंगे. उनके लिए यह फैसला कड़ा है. हुसैन कहते हैं, "मेरी सात बेटियां हैं और मैं सभी को शिक्षित होता देखना चाहता हूं." अमेरिका और कई अन्य पश्चिमी देशों ने लड़कियों की शिक्षा को अफगानिस्तान में विदेशी सैनिकों की मौजूदगी को सालों की प्रमुख सफलताओं में से एक के रूप में माना है. लेकिन सुरक्षा स्थिति बिगड़ती जा रही है क्योंकि विदेशी सेना देश से लौटने की तैयारी कर रही है. विदेशी सेना की वापसी के कारण लड़कियों की शिक्षा के क्षेत्र में जो कामयाबी हासिल हुई है उस पर खतरा मंडराता जा रहा है. तालिबान का कहना है वह लड़कियों की शिक्षा के लिए राजी है लेकिन वह शरिया या फिर इस्लामी कानून का हवाला देता है.
दो दशक में महिलाओं ने काफी तरक्की की
दोहा में शांति वार्ता में कुछ महिला वार्ताकारों में से एक फौजिया कूफी कहती हैं कि अफगानिस्तान ने पिछले दो दशक में परिवर्तनकारी बदलाव देखे हैं. कूफी कहती हैं, "मैंने तालिबान के साथ वार्ता में इसी अफगानिस्तान के बारे में ध्यान आकर्षित करने की कोशिश की थी. मैंने उन्हें आधुनिक वास्तविकताएं अपनाने के लिए कहा था." वे कहती हैं कि लड़कियों के शिक्षा केंद्रों पर हमले बढ़े हैं. 1996-2001 तक तालिबान ने अपने शासन के दौरान इस्लामी कानून का एक ऐसा रूप लोगों पर थोपा जो महिलाओं के अधिकारों के प्रति पूरी दुनिया में सबसे कठोर कानूनों में से था. महिलाओं को अपने शरीर और चेहरे को पूरी तरह से बुर्के से ढकना अनिवार्य था. यूएस एजेंसी फॉर इंटरनेशनल डेवलपमेंट (यूएसऐड) के मुताबिक अफगानिस्तान में 35 लाख लड़कियां स्कूल जाती हैं. संयुक्त राष्ट्र के मुताबिक चार दशकों के युद्ध के बाद अफगानिस्तान की साक्षरता दर 43 प्रतिशत है, लेकिन सिर्फ 30 फीसदी महिलाएं ही साक्षर हैं.
ह्यूमन राइट्स वॉच में महिला अधिकार डिवीजन की अंतरिम सह-निदेशक हीथर बर कहती हैं कि 8 मई जैसा हमला गंभीर प्रभाव डालता है. बर कहती हैं, "जब हम लड़कियों और उनके-माता से पूछते हैं कि लड़कियां स्कूल क्यों नहीं जाती तो हमें अक्सर स्कूलों पर हमले के बारे में कहा जाता." वे कहती हैं, "यह वास्तव में दिखाता है कि कैसे कई माता-पिता हैं जो अपनी बेटियों को पढ़ाने के लिए बेताब हैं. लेकिन वे इस डर से अपनी इच्छा को मार देते हैं कि उनकी बेटी स्कूल जाएगी और घर नहीं लौटेगी."
16 साल की हमीदा नवी सदा काबुल के जिन्ना अस्पताल में भर्ती है. स्कूल के बाहर हुए धमाके में उसके दाहिने हाथ में चोट लगी थी, अब उसके हाथ पर प्लास्टर लगा है. धमाके वाले दिन का मंजर उसे आज भी याद है. फिर भी अपनी शिक्षा जारी रखने का उसका संकल्प अटल है. वह कहती है, "यह हमला अफगानिस्तान की नई पीढ़ी के खिलाफ था. वे नई पीढ़ी को अंधकार में धकेलना चाहते हैं लेकिन हम उज्ज्वल भविष्य की ओर जाएंगे." नवी सदा को अब भी नहीं पता है कि उसके साथ पढ़ने वाली कितनी लड़कियां बच पाई या नहीं.
एए/सीके (थॉमसन रॉयटर्स फाउंडेशन)