1971: देश ने देखा इंदिरा गांधी का मोहिनीअट्टम
२४ अप्रैल २०१९1971 के आम चुनाव से कोई डेढ़ साल पहले एक ऐसी घटना हुई जिससे कांग्रेस के विभाजन पर आधिकारिक मुहर लग गई. यह घटना थी अगस्त 1969 में हुआ राष्ट्रपति चुनाव. इस चुनाव में इंदिरा गांधी बाबू जगजीवन राम को कांग्रेस का उम्मीदवार बनाना चाहती थीं लेकिन लेकिन कांग्रेस संसदीय बोर्ड की बैठक में उनकी नहीं चली.
निजलिंगप्पा, एसके पाटिल, के कामराज और मोरारजी देसाई जैसे दिग्गज कांग्रेसी नेताओं की पहल पर नीलम संजीव रेड्डी राष्ट्रपति पद के लिए कांग्रेस के आधिकारिक उम्मीदवार बना दिए गए. यह एक तरह से इंदिरा गांधी की हार थी. संसदीय बोर्ड के फैसले के बाद इंदिरा गांधी भी नीलम संजीव रेड्डी की उम्मीदवारी की एक प्रस्तावक थीं लेकिन उन्हें रेड्डी का राष्ट्रपति बनना गंवारा नहीं था. इसी बीच तत्कालीन उपराष्ट्रपति वराहगिरी व्यंकट गिरि (वीवी गिरि) ने अपने पद से इस्तीफा देकर खुद को राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार घोषित कर दिया.
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स्वतंत्र पार्टी, समाजवादियों, कम्युनिस्टों, जनसंघ आदि सभी विपक्षी दलों ने वीवी गिरि को समर्थन देने का एलान कर दिया. चुनाव के ऐन पहले इंदिरा गांधी भी पलट गई और उन्होंने कांग्रेस में अपने समर्थक सांसदों-विधायकों को रेड्डी के बजाय गिरि के पक्ष में मतदान करने का फरमान जारी कर दिया. इंदिरा गांधी के इस पैंतरे से कांग्रेस में हड़कंप मच गया. वीवी गिरि जीत गए और कांग्रेस के अधिकृत उम्मीदवार संजीव रेड्डी को दिग्गज कांग्रेसी नेताओं का समर्थन हासिल होने के बावजूद पराजय का मुंह देखना पड़ा. वीवी गिरि की जीत को इंदिरा गांधी की जीत माना गया.
निर्धारित समय से एक साल पहले हुए चुनाव
इस घटना के बाद औपचारिक तौर पर कांग्रेस दोफाड़ हो गई. बुजर्ग कांग्रेसी दिग्गजों ने कांग्रेस (संगठन) नाम से अलग पार्टी बना ली. इंदिरा गांधी के लिए यह बेहद मुश्किलों भरा दौर था. उनकी सरकार अल्पमत में आ गई थी. अपने समक्ष मौजूदा राजनीतिक चुनौतियां का सामना करने के लिए इंदिरा गांधी ने बैंकों का राष्ट्रीयकरण करने और पूर्व राजा-महाराजाओं के प्रिवीपर्स के खात्मे जैसे कदम उठाकर अपनी साहसिक और प्रगतिशील नेता की छवि बनाने की कोशिश की.
अपने इन कदमों से वे तात्कालिक तौर पर कम्युनिस्टों को रिझाने में भी कामयाब रहीं और उनकी मदद से ही वे अपनी सरकार के खिलाफ लोकसभा में आए अविश्वास प्रस्ताव को भी नाकाम करने में सफल हो गईं. लेकिन इसी दौरान उन्हें यह अहसास भी हो गया था कि बिना पर्याप्त बहुमत के वे ज्यादा समय तक न तो अपनी हुकूमत को बचाए रख सकेंगी और न ही अपने मनमाफिक कुछ काम कर सकेंगी, लिहाजा उन्होंने बिना वक्त गंवाए नया जनादेश लेने यानी निर्धारित समय से पहले ही चुनाव कराने का फैसला कर लिया.
दिसंबर, 1970 में उन्होंने लोकसभा को भंग करने का एलान कर दिया. इस प्रकार जो पांचवीं लोकसभा के लिए चुनाव 1972 में होना था, वह एक साल पहले यानी 1971 में ही हो गया. इस चुनाव में इंदिरा गांधी ने अपनी गरीब नवाज की छवि बनाने के लिए "गरीबी हटाओ" का नारा दिया. बैंकों के राष्ट्रीयकरण और प्रिवीपर्स के खात्मे के कारण उनकी एक समाजवादी छवि तो पहले ही बन चुकी थी.
विपक्षी दलों के पास इस सबकी कोई काट नहीं थी. गैर कांग्रेसवाद का नारा देने वाले डॉ. राममनोहर लोहिया के निधन के बाद इंदिरा गांधी का मुख्य मुकाबला बुजुर्ग संगठन कांग्रेसियों से था. चूंकि राज्यों में संविद सरकारों का प्रयोग लगभग असफल हो चुका था, लिहाजा देश ने इंदिरा गांधी में ही अपना भरोसा जताया. चुनाव में कम्युनिस्टों को छोड़कर संगठन कांग्रेस समेत तमाम विपक्षी दलों की बुरी तरह हार हुई.
"गूंगी गुड़िया" ने सबके दांत खट्टे कर दिए
1971 के चुनावों में 14.36 करोड़ पुरुषों और 13.06 करोड़ महिलाओं के पास मतदान का अधिकार था. मतदान का प्रतिशत 55.27 रहा यानी करीब 15 करोड़ लोगों ने मताधिकार का उपयोग किया. इंदिरा गांधी के प्रधानमंत्री बनने के बाद जिन विरोधियों ने उन्हें "गूंगी गुड़िया" कहा था, इंदिरा गांधी ने इस चुनाव में अपने आक्रामक अभियान से उन्हीं के दांत खट्टे कर दिए.
उनकी पार्टी कांग्रेस को दो तिहाई से भी ज्यादा यानी 352 सीटों पर जीत मिली. वोटों में भी करीब तीन फीसदी का इजाफा हुआ. कांग्रेस को 43.68 फीसदी वोट हासिल हुए. उसके कुल 441 उम्मीदवार चुनाव मैदान में थे, जिनमें से सिर्फ चार की जमानत जब्त हुई. इस चुनाव में संगठन कांग्रेसियों के पैरों तले जमीन खिसक गई. उनके 238 उम्मीदवारों में से मात्र 16 जीते ओर उसमें भी 11 गुजरात से जीते थे. संगठन कांग्रेस के 114 उम्मीदवारों को जमानत गंवानी पड़ी. पार्टी को प्राप्त मतों का प्रतिशत 10.43 रहा.
जनसंघ को भी झटका लगा लेकिन वह 1967 के चुनाव में मिली 35 में से 22 सीटें जीतने में कामयाब रहा. उसे 7.35 प्रतिशत वोट मिले. सोशलिस्टों और स्वतंत्र की पार्टी की हालत तो और भी खराब रही. प्रजा समाजवादी पार्टी, सोशलिस्ट पार्टी और स्वतंत्र पार्टी तीनों को मिलाकर मात्र 13 सीटें मिलीं. तीनों का वोट प्रतिशत भी करीब 6.5 रहा. इन सबके विपरीत कम्युनिस्टों की सीटों में जरूर इजाफा हुआ. मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (माकपा) को 25 सीटों पर जीत मिली जबकि भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (भाकपा) भी अपनी 23 सीटें बचाए रखने में सफल रही. इन दोनों को मिलाकर करीब 10 फीसदी वोट मिले.
क्षेत्रीय ताकतों का उभार
इस चुनाव की खास बात यह रही कि आंध्र प्रदेश और तमिलनाडु में दो क्षेत्रीय शक्तियों ने असरदार उपस्थिति दर्ज की. आंध्र में तेलंगाना प्रजा समिति को 10 सीटों पर जीत मिली जबकि तमिलनाडु में द्रविड़ मुनेत्र कषगम (द्रमुक) के खाते में 23 सीटें आईं. इस चुनाव में 14 निर्दलीय भी जीते. चुनाव में कुल 2,784 उम्मीदवारों ने अपना भाग्य आजमाया था जिनमें से 1,707 की जमानत जब्त हो गई थी.
इंदिरा की आंधी में कई दिग्गज उड़ गए
इस चुनाव मे इंदिरा गांधी के करिश्मे के चलते विपक्ष के कई नेता बुरी तरह खेत रहे. जिन दिग्गज कांग्रेसियों ने इंदिरा गांधी के खिलाफ बगावत कर संगठन कांग्रेस नाम से अलग पार्टी बनाई थी उनमें से अधिकांश को हार का सामना करना पड़ा. मोरारजी देसाई को छोड़कर लगभग संगठन कांग्रेस के सभी बड़े नेता चुनाव हार गए.
आंध्र प्रदेश की अनंतपुर सीट से दिग्गज संगठन कांग्रेसी नीलम संजीव रेड्डी को एक अदने कांग्रेसी एआर पोन्नायट्टी ने हरा दिया. बिहार के बाढ़ लोकसभा क्षेत्र से संगठन कांग्रेस के टिकट पर चुनाव मैदान में उतरीं तारकेश्वरी सिन्हा को कांग्रेस के धर्मवीर सिंह ने हराया. अशोक मेहता, यमनालाल बजाज, सुचेता कृपलानी और अतुल्य घोष ये सब के सब कांग्रेस छोड़ संगठन कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़े और पराजित हुए.
रवि राय ओडिशा की पुरी सीट से हार गए. उन्हें कांग्रेस के जेबी पटनायक हराया. ओडिशा की ही संबलपुर सीट से किशन पटनायक भी हारे. राजस्थान के बाडमेर से जनसंघ के भैरोसिंह शेखावत भी हारे. भाकपा नेता एबी बर्धन भी 1971 का चुनाव हारे थे. भाकपा की ही रेणु चक्रवर्ती और अरुणा आसफ अली भी चुनाव हार गई थीं. रेणु को माकपा के मोहम्मद इस्माइल ने और अरुणा आसफ अली को बांग्ला कांग्रेस के सतीशचंद्र सामंत ने हराया था.
सवाल का अंत, युग की शुरुआत
गरीबी हटाओ का नारा खूब चला और देश की राजनीति में इंदिरा गांधी का दबदबा कायम हो गया. देश में यह सवाल उठना बंद हो गया कि नेहरू के बाद कौन? सबको जवाब मिल गया कि सिर्फ और सिर्फ इंदिरा गांधी. लेकिन इंदिरा का गांधी का असली करिश्मा इस आम चुनाव के बाद तब दिखा जब पाकिस्तान के खिलाफ बांग्लादेश का मुक्ति संग्राम जीतकर वे दक्षिण एशिया में एक सशक्त नेता के तौर पर उभरीं. अटल बिहारी वाजपेयी जैसे मुखर विपक्षी नेता ने भी उन्हें दुर्गा का अवतार कहा. लेकिन इन उपलब्धियों इंदिरा गांधी को थोड़े ही समय में निरंकुश बना दिया. वे चाटुकारों से घिर गईं. इसका नतीजा यह हुआ कि उनका करिश्मा 1977 में खत्म हो गया.
इंदिरा से चुनाव में हारे राजनारायण अदालत में जीते
इस चुनाव में इंदिरा गांधी एक बार फिर रायबरेली से चुनाव लड़ी और जीतीं. उन्होंने मशहूर समाजवादी नेता राजनारायण को मतों के भारी अंतर से हराया. लेकिन इस चुनाव में इंदिरा गांधी की यही जीत आगे चलकर उनके राजनीतिक पतन का कारण भी बनी.
राजनारायण ने इंदिरा गांधी के निर्वाचन की वैधता को इलाहबाद हाई कोर्ट में चुनौती दी. उनका आरोप था कि इंदिरा गांधी ने चुनाव जीतने के लिए सरकारी मशीनरी का दुरुपयोग किया. कोर्ट ने राजनारायण के आरोपों को सही पाया और इंदिरा गांधी के चुनाव को अवैध करार देते हुए उन्हें पांच वर्ष के लिए कोई भी चुनाव लड़ने के लिए अयोग्य करार दे दिया.
इस तरह चुनाव मैदान में हारे राजनारायण इंदिरा गांधी को अदालत में हराने में कामयाब हो गए. उसी दौरान जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में बिहार से शुरू हुआ आंदोलन भी तेज हो गया था. विपक्षी दलों ने भी इंदिरा गांधी पर इस्तीफे के लिए दबाव बनाना शुरू कर दिया था. लेकिन इंदिरा गांधी ने इलाहबाद हाई कोर्ट के फैसले को मानने के बजाय उसे सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दे दी और विपक्षी दलों पर अपनी सरकार को अस्थिर करने और देश में अराजकता फैलाने का आरोप लगाते हुए देश में आपातकाल लगा दिया. इस सबकी परिणति 1977 के आम चुनाव में इंदिरा गांधी और कांग्रेस के ऐतिहासिक हार के रूप में हुई.