"464 साल में निपटेंगे भारतीय मुकदमे"
२१ जनवरी २०१३रुश्दी के खिलाफ जो केस चल रहा था, उसमें दोनों पक्षों की मौत इंसाफ से पहले ही हो गई. जायदाद की मिल्कियत का मामला 1977 में शुरू हुआ और इसका नतीजा 35 साल बाद 2012 में आया.
वकीलों का कहना है कि ऐसे सैकड़ों केस हैं, जिसमें याचिकाकर्ता की मौत सुनवाई के दौरान ही हो गई है. कई बार तो आरोपियों को जेल में जितने दिन गुजारने पड़ते हैं, उनकी असली सजा उससे कहीं कम होती है.
मुकदमों का अंबार
भारतीय अदालतों में 2011 के अंत तक करीब सवा तीन करोड़ मामले लंबित पड़े हैं. सरकारी आंकड़ों के मुताबिक इनमें से 26 फीसदी मामले पांच साल से पुराने हैं. भारतीय लॉ कमीशन ने 2009 की रिपोर्ट में कहा, "मौजूदा व्यवस्था में एक मामले के फैसले में 10, 20, 30 या इससे भी ज्यादा साल लग जाते हैं."
दिल्ली बलात्कार कांड के बाद मामलों को जल्दी निपटाने की मांग तेज हुई है. दिल्ली की मानवाधिकार कार्यकर्ता वृंदा ग्रोवर का कहना है, "क्या आप सोच सकते हैं कि यौन अपराध के शिकार लोगों को किस बुरे सपने से गुजरना पड़ता है. उन्हें बार बार कचहरी के चक्कर लगाने पड़ते हैं. मैं एक केस को जानती हूं, जिसमें एक बच्चे के साथ यौन अपराध हुआ. तब वह बच्चा साढ़े चार साल का था. आज 10 साल बीत गए हैं, फिर भी इसका इंसाफ नहीं हो पाया है." उनका कहना है कि ट्रायल अदालतें बहुत लंबा वक्त लेती हैं और इन मामलों की जांच करके पूरे तंत्र को बदलने की जरूरत है.
भारत में धीमी न्याय व्यवस्था की सबसे बड़ी वजह है, जजों की कमी. इसके अलावा मामले हमेशा बाद के लिए टाल दिए जाते हैं. कानून मंत्रालय के मुताबिक भारत में 10 लाख लोगों पर सिर्फ 10 जज हैं. चीन में इतने लोगों पर 159 और अमेरिका में 107 जज हैं. भारत में करीब 25 फीसदी जजों की जगह खाली पड़ी है.
सरकार भी जिम्मेदार
भारतीय सुप्रीम कोर्ट के जज जस्टिस मदन बी लोकुर ने न्याय में देरी के लिए सरकार को भी जिम्मेदार ठहराते हैं. जस्टिस लोकुर के मुताबिक सरकार के सहयोग के अभाव से भी भारतीय न्याय तंत्र की चाल धीमी हुई है. उनके मुताबिक बजट से सिर्फ 0.4 फीसदी पैसा ही न्यायपालिका को दिया जाता है. जस्टिस लोकुर ने कहा, "क्या न्याय देना इतना गैरजरूरी है कि जीडीपी में न्यायपालिका के लिए सिर्फ 0.4 फीसदी ही बजट है." न्यायाधीश ने इस रकम को अपर्याप्त बताया.
सर्वोच्च अदालत के मुताबिक, "संरचना को बेहतर बनाने, अदालतों की संख्या बढ़ाने और नई तकनीक के इस्तेमाल के प्रस्तावों के सामने यह बजट आवंटन नाकाफी है. जस्टिस लोकुर ने कहा, "देश में अभी 14,000 अदालतें हैं, इनकी संख्या बढ़कर 18,847 हो जाएगी. ज्यादा जजों के अलावा हमें जमीन, नई अदालतों, मौजूदा अदालतों के आधुनिकीकरण, जजों के सपोर्टिंग स्टाफ और संसाधनों की भी जरूरत है. मौजूदा हालात में इस स्थिति से बाहर निकलना मुश्किल है ,वो भी तब जब सरकार के पास कई अन्य चुनौती भरे एजेंडे हैं."
सुप्रीम कोर्ट के आंकड़े बताते हैं कि 2011 में ट्रायल कोर्टों में दो करोड़ 70 लाख पुराने मामले को सुना गया, साढ़े चार लाख नए मामले दर्ज किए गए और प्रत्येक जज ने 650 मामलों को निपटाया लेकिन साल खत्म होते होते दो करोड़ 60 लाख मामले बचे रह गए.
ग्रोवर का कहना है, "अदालतों पर जरूरत से ज्यादा बोझ है." सरकार ने कहा है कि वह जजों की संख्या पांच गुना बढ़ाने की योजना है.
जजों की नियुक्ति
दिल्ली बलात्कार कांड के बाद बढ़ते दबाव को देखते हुए कानून मंत्रालय ने 2000 नए जजों की भर्ती का फैसला किया है. इसके अलावा फास्ट ट्रैक अदालतों को फिर से शुरू किया गया है. कानूनी जानकारों का कहना है कि सिर्फ कमी ही नहीं, बल्कि इंसाफ में देरी के लिए "टाले जाने की रणनीति" अपनाई जाती है. दिल्ली के 16 साल पुराने उपहार कांड की वकील नीलम कृष्णमूर्ति कहती हैं, "वकीलों और जजों पर आरोप लगाए जाते हैं कि वे मामलों को टालते हैं." उपहार सिनेमाहॉल में लगी आग में 54 लोगों की मौत हो गई थी.
कृष्णमूर्ति का कहना है, "आम तौर पर बचाव पक्ष मामले को आगे बढ़ाने की मांग करता है क्योंकि फैसला उनके खिलाफ जा सकता है. बाद में दोनों पक्षों के वकील और जज इस बात को मान लेते हैं."
उपहार कांड की सुनवाई ट्रायल कोर्ट में 10 साल तक चली, जिसके बाद लंबा वक्त दिल्ली हाई कोर्ट में बीता. यह मामला अभी भी सुप्रीम कोर्ट में चल रहा है. कृष्णमूर्ति ने कहा, "मैं अभी भी इंसाफ का इंतजार कर रही हूं."
गरीबों की मुश्किल
कई वकीलों का तो यहां तक आरोप है कि मामले लिस्ट कराने के लिए भी ताकत और पैसों का इंतजाम करना पड़ता है. राष्ट्रीय अपराध ब्यूरो के रिकॉर्ड के अनुसार 2011 में जेल में बंद तीन लाख 72 हजार कैदियों में से लगभग 65 फीसदी का मुकदमा चल रहा है और इनमें से 1486 लोग पांच साल से जेलों में पड़े हैं.
कानूनी अधिकार पर रिसर्च करने वाले वेंकटेश नायक का कहना है, "हाल के सालों में कानूनी प्रक्रिया को कंप्यूटरीकृत किया गया है और इसका फायदा दिख रहा है. लेकिन बहुत ज्यादा नहीं."
दिल्ली हाई कोर्ट के एक जज ने 2008 में अनुमान लगाया था कि अदालत के सभी लंबित मामलों को निपटाने में 464 साल लग जाएंगे. ग्रोवर का कहना है कि पुलिस की विवादित जांच प्रक्रिया और बिना ट्रेनिंग वाले वकीलों की वजह से मामले और जटिल हो रहे हैं. लॉ कमीशन ने मामलों में तेजी लाने के लिए कई उपाय सुझाए हैं, जिसमें छुट्टी के दिन काम करने का प्रस्ताव भी है.
ग्रोवर का कहना है, "हम रातोंरात बदलाव की उम्मीद नहीं कर रहे हैं लेकिन सिस्टम बदलने में राजनीतिक इच्छाशक्ति कहीं नहीं दिख रही है."
एजेए/ओएसजे (डीपीए)