20,000 डॉल्फ़िनों का क्रूर शिकार
२१ अक्टूबर २००९इनसानों की दोस्त समझी जाने वाली डॉल्फ़िनों पर इतना ज़ुल्म होता है कि उन्हें एक खाड़ी में ले जाकर भाले मार मार कर उन्हें ख़त्म कर दिया जाता है. खाड़ी का पानी डॉल्फ़िनों के ख़ून से लाल हो जाता है. टोक्यो अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह में ऐसे ही गांव पर फ़िल्म "केव" दिखाई गई, जिसमें दिखाया गया है कि किस तरह डॉल्फ़िनों को छोटी खाड़ी में बंद कर रखा जाता है बाद में मछुआरे भालों से लगातार मार मार कर उनकी हत्या कर देते हैं. ताइजी शहर में ज्यादातर लोग डॉल्फिन और व्हेल का मांस खाते हैं.
हालांकि फिल्म में इस बात पर भी जोर दिया गया है कि डॉल्फिन के मांस में जहरीले पारे का अंश होता है लेकिन इस बारे में सरकार अपना बचाव करते हुए कहती है कि यदि मांस का सेवन बहुत ज्यादा नहीं किया जाए तो इससे कोई नुकसान नहीं होता. ताइजी के अधिकारियों का कहना है कि इस शहर के लोग 400 सालों से व्हेल और डॉल्फिन का मांस खाते आ रहे हैं. यह हमारी परंपरा है. अब तक लोगों की सेहत पर कोई बुरा असर नहीं पड़ा है. सरकारी आंकड़ों के अनुसार जापान में हर साल 20,000 डॉल्फिन का शिकार किया जाता है. इनमें से कुछ डॉल्फिनों को सजावट के लिए भी बेच दिया जाता है.
इस फिल्म को देखने के बाद जापानी दर्शकों की मिली जुली प्रतिक्रिया रही. एक ओर तो उन्हें निर्दोष डॉल्फिनों की हत्या का अफसोस था लेकिन वे इसे परंपरा के नाम पर जायज और सही भी बताते नज़र आए.
फिल्म केव के निर्देशक पिसीयोहोस को डर है कि कहीं अतिक्रमण के आरोप में फिल्म में इन दृश्यों को दिखाए जाने पर उन्हें गिरफ्तार न कर लिया जाए. पुलिस उनसे फिल्माए गए ऐसे दिल दहलाने वाले दृशयों की तहकीकात कर सकती है. इस खाड़ी को मछुआरों ने कांटेदार झाड़ियों और तारों से घेर रखा है. फिल्म निर्देशक पिसीयोहोस के पास यहां शूटिंग की इजाजत नहीं थी. उन्होंने अपने शूटिंग क्रू के साथ लुक छिप कर वहां की शूटिंग की है.
शिकार ग़लत नहीं
फिल्म के बारे में सायतामा की एक महिला जुनको इनोऊ को फिल्म का अंतिम दृश्य वाकई दिल दहला देना वाला लगा जब एक छोटी सी खाड़ी में बंद दर्जनों डॉल्फिनों को मछुआरे भाला और बरछी से मार रहे थे. यह दर्दनाक दृश्य देखने के बावजूद इनोऊ का मानना है कि सभी जगहों पर लोगों के खाने की आदतों में अंतर होता है. अगर जापान के लोगों को डॉल्फिन पसंद है तो डॉल्फिनों का शिकार पूरी तरह बंद नहीं होना चाहिए.
जापान के 42 साल के हिरोशी हाताजामा इस शिकार को जायज मानते हुए कहते हैं कि पश्चिमी देशों में लोग डॉल्फिन का मांस नहीं खाते. जापानियों के साथ ऐसा नहीं है. उनका कहना है, "हमें जिवित रहने के लिए जानवरों का मांस खाना जरूरी है. मेरी नज़र में यह मामला दो देशों के बीच अलग संस्कृति की वज़ह से है. हालांकि यह फिल्म बहुत अच्छी है लेकिन ये बेवजह डॉल्फिनों के लिए खास प्रचार करती हुई लग रही है."
डॉल्फिन को बचाने की कोशिश
1960 के दशक में डॉल्फिन पर प्रसारित शो फ़्लिपर में नायाब करतबों की वजह से दुनिया भर के लोग इस संवेदनशील मछली को चाहने लगे. पर शो में डॉल्फिन को प्रशिक्षण देने वाले रिचर्ड ओ-बेरी को अब बेहद अफसोस है कि मनोरंजन का जरिया बनी मददगार और संवेदनशील डॉल्फ़िनों को दुनिया भर में बंधक बनाकर रखा जा रहा है. बैरी बताते हैं कि मुझे इस ज़ुल्म का तब एहसास हुआ, जब 1970 में फ़्लिपर शो की एक डॉल्फिन कैथी ने जान बूझ कर सांस लेना बंद कर दिया और मेरी बाहों में दम तोड़ दिया. मानो वो अब ऐसी बंधक जिंदगी नहीं जीना चाहती हो.
ओ-बेरी अब इस संवेदनशील और जागरूक डॉल्फिन की रक्षा के लिए काम कर रहे हैं. उन्होंने भी जापान के ताइजी शहर में दुनिया में सबसे ज्यादा संख्या में हर साल डॉल्फिनों को मारे जाने का खुलासा किया था. इस मिशन की वजह से उन्हें कई बार गिरफ्तार कर जेल भी भेजा गया. एबीसी इंटरनेशनल रेडियो को दिए गए एक इंटरव्यू में बेरी ने कहा कि पश्चिमी ऑस्ट्रेलियाई शहर ब्रुमे ताईजी के पास का शहर है. इस शहर के पास ढेर सारी शक्तियां है, मेरा विश्वास है कि इस शहर की ओर से डॉल्फिनों का शिकार बंद करने की कोशिश की जा सकती है. डॉल्फिन प्रशिक्षक के रूप में अपने अतीत की ओर झांकते हुए ओ-बेरी कहते हैं, "मैं एक पेशेवर झूठे की तरह काम कर रहा था. यदि आप डॉल्फिन प्रशिक्षक हैं तो आपको भी मेरी तरह आम जनता,मीडिया या डॉल्फिन से जुड़े शोध से यहां तक कि कि खुद से भी झूठ बोलना पड़ता है."
डॉल्फिन बेहद संवेदनशील होती है जिसका व्यवहार मनुष्य के साथ हमेशा दोस्ताना रहा है. बच्चों की कई मानसिक बीमारियों के इलाज में भी डॉल्फिन की मदद ली जाती है.
रिपोर्टः एजेंसियां/सरिता झा
संपादनः ए जमाल