स्थिति सचमुच बेहद गंभीर है!
२० अक्टूबर २०१५पिछले तीन दशकों के दौरान सार्वजनिक जीवन में बहस-मुबाहिसे, मुक्त विचार-विमर्श और परस्पर विरोधी विचार रखने वालों के बीच संवाद में लगातार कमी आई है और इस समय "जिसकी लाठी, उसी की भैंस" वाली कहावत पर अमल हो रहा है. संकीर्ण राजनीतिक स्वार्थ सिद्ध करने के लिए समाज के विभिन्न हिस्सों के बीच हिंसक संघर्ष पैदा किया जा रहा है और टकराव की नई-नई स्थितियां खड़ी की जा रही हैं. स्पष्ट है कि देश में लोकतंत्र के भविष्य के लिए यह शुभ संकेत नहीं है.
चुनाव पर आधारित लोकतंत्र की आधारशिला बहुमत के आधार पर सत्ता मिलने के सिद्धांत पर टिकी है और यही इसमें आने वाली विकृतियों के लिए भी जिम्मेदार है. हर राजनीतिक दल किसी भी तरीके को अपनाकर चुनाव जीतना चाहता है. लोकतंत्र का बुनियादी सिद्धांत है कि जिस राजनीतिक दल का उम्मीदवार या नीतियां अधिक लोगों को अच्छी लगें, वही चुनाव में औरों से अधिक मत पाकर जीतता है.
लेकिन जनता से लगातार दूर होती जा रही राजनीतिक पार्टियां अब लोगों के बीच जाकर उन्हें अपनी विचारधारा और नीतियों के प्रचार द्वारा अपनी ओर नहीं खींचतीं. वे लोगों को जाति, धर्म, संप्रदाय, क्षेत्रीयता और अस्मिता के आधार पर गोलबंद करती हैं. इस प्रक्रिया में जहां एक जाति या धर्म या क्षेत्र के लोगों को उनकी अस्मिता के आधार पर एकजुट किया जाता है, वहीं उन्हें किसी अन्य जाति, धर्म या क्षेत्र के लोगों के खिलाफ भड़काया भी जाता है. देश में बढ़ रही हिंसा और असहिष्णुता के पीछे यह बहुत बड़ा कारण है.
इस समय देश में सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी ने पिछले तीन दशकों से उग्र हिंदुत्ववादी अभियान चलाया हुआ है जो कभी बाबरी मस्जिद के खिलाफ रामजन्मभूमि आंदोलन तो कभी लव जिहाद, धर्मांतरण और गौहत्या के मुद्दों को अपनी सुविधा के अनुसार उठाता रहता है. इसी तरह उसकी सहयोगी पार्टी शिव सेना ने महाराष्ट्र में कभी गैर-महराष्ट्रियों का विरोध करके और कभी पाकिस्तान के साथ संबंधों का विरोध करके अपनी संकुचित राजनीति को उभारा है. मुस्लिम-विरोध इन दोनों में समान है.
इस समय देश के कई राज्यों में हिंदुओं और मुसलमानों के बीच टकराव पैदा करने के सुनियोजित प्रयास किए जा रहे है. सिर्फ इस संदेह के आधार पर लोगों की हत्या की जा रही है कि उन्होने गौमांस खाया है या गाय-बैलों की तस्करी की है. इसी तरह हिंदू-विरोधी होने का आरोप लगाकर ऐसे विचारकों और लेखकों पर भी जानलेवा हमले किए जा रहे हैं जो दकियानूसी धार्मिक मान्यताओं को चुनौती देते हैं. इस कारण पिछले एक माह के दौरान भारतीय भाषाओं के लगभग चार दर्जन लेखक अपने पुरस्कार और सम्मान लौटा चुके हैं और इस तरह से अपना विरोध दर्ज कर चुके हैं. दलितों के खिलाफ हिंसा भी इस समय उभार पर है जिसके मूल में जाति-आधारित भेदभाव और उत्पीड़न है. लेकिन सरकार तथा अन्य राजनीतिक दलों के कान पर जूं तक नहीं रेंग रही.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी लगातार बोलते रहने के लिए प्रसिद्ध हैं. लेकिन इन घटनाओं पर लंबे समय तक खामोश रहने के बाद उनका एक बहुत ही ढीला-ढाला बयान सामने आया. उनकी पार्टी के नेता और सरकार के मंत्री लगातार भड़काऊ और आपत्तिजनक बयान देते रहते हैं लेकिन उन्हें संयम बरतने की कोई सलाह उनकी ओर से सार्वजनिक रूप से नहीं दी गई. पार्टी सूत्रों के हवाले से ऐसी खबरें जरूर छपती हैं कि उनके कहने पर पार्टी अध्यक्ष अमित शाह ने ऐसे नेताओं को जबान पर लगाम लगाने के लिए कहा है, लेकिन इन अपुष्ट खबरों को पुष्ट करने वाला सार्वजनिक बयान एक बार भी जारी नहीं किया गया.
जिन राज्यों में गौमांस खाने या गौहत्या करने के संदेह के आधार पर मुस्लिमों की हत्या की गई है, उनमें कांग्रेस की सरकार है. सिर्फ जम्मू-कश्मीर में भारतीय जनता पार्टी सरकार में शामिल है. लेकिन गैर-बीजेपी सरकारों की ओर से भी सांप्रदायिक सद्भाव बहाल करने, सहिष्णुता का माहौल बनाने और दोषियों को तत्काल पकड़ने की दिशा में कोई उल्लेखनीय कदम नहीं उठाए गए. जो भी किया गया वह बस खानापूरी के लिए था. ऐसे में आश्चर्य नहीं कि स्थिति से चिंतित होकर स्वयं राष्ट्रपति को तेरह दिन के भीतर दो बार बयान जारी करके लोगों से सहिष्णुता और विविधता के मूल्यों को बरकरार रखने का आग्रह करना पड़ा. राष्ट्रपति संविधान के संरक्षक हैं और इन संवैधानिक मूल्यों की रक्षा के लिए प्रयास करना उनका कर्तव्य है. वह तो अपना कर्तव्य निभाने की कोशिश कर रहे हैं, लेकिन राजनीतिक प्रतिष्ठान आंखे मूंदे हुए है.
ब्लॉग: कुलदीप कुमार