सेना और राजनेताओं के टकराव से कैसे बचेगा पाकिस्तान?
२५ सितम्बर २०२०पाकिस्तान में विपक्षी पार्टियां अपने आस्तीन चढ़ाकर सेना से दो दो हाथ करने के मूड में दिख रही है. पिछले दिनों सत्ताधारी दल पाकिस्तान तहरीक ए इंसाफ को छोड़कर सभी अहम विपक्षी पार्टियों ने एक गठबंधन बनाया है और देश भर में अगले महीने से बड़े विरोध प्रदर्शनों और रैलियों की तैयारी हो रही है.
इस्लामाबाद में हुई विपक्षी दलों की बैठक को लंदन से पूर्व प्रधानमंत्री नवाज शरीफ ने भी संबोधित किया. उन्होंने देश की मौजूदा समस्याओं के लिए इमरान खान सरकार को नहीं, बल्कि "उन्हें सत्ता में बिठाने वालों" को जिम्मेदार बताया. उनका इशारा पाकिस्तान की सेना की तरफ था. उन्होंने कहा, "आज देश जिन हालात का सामना कर रहा है, उसकी बुनियादी वजह वे लोग हैं जिन्होंने जनता की राय के खिलाफ अयोग्य हुकमरानों को देश पर थोपा है.."
यह पहला मौका नहीं है जब शरीफ और अन्य विपक्षी राजनेताओं ने सेना पर 2018 के आम चुनावों में धांधली का आरोप लगाया है. यह पहला मौका नहीं है जब राजनेताओं ने सैन्य जनरलों पर लोकतंत्र को कमजोर करने का आरोप लगाया है. लेकिन विपक्ष की हालिया बैठक में सेना विरोधी आवाजें बहुत मुखर सुनाई दीं. बैठक में मौजूद सभी पार्टियां इस बात पर सहमत थीं कि सेना अपनी संवैधानिक भूमिका से बाहर जा रही है. नवाज शरीफ की राय में, "सेना आज देश से ऊपर हो गई है."
पाकिस्तान में सेना और राजनेताओं के बीच टकराव की स्थिति ऐसे समय में बन रही है जब देश की अर्थव्यवस्था बदहाल है और मानवाधिकारों की स्थिति चिंतातनक है. जलवायु परिवर्तन और कोरोना वायरस ने इन समस्याओं को और बढ़ाया है. सांसदों और सैन्य अधिकारियों के बीच बेहतर तालमेल देश को संभालने में मदद कर सकता है. लेकिन सवाल यही है कि क्या पाकिस्तान को एक नई सामाजिक व्यवस्था की जरूरत है जिसमें पाकिस्तान की सेना और चुनी हुई सरकार एक साथ काम कर सकें.
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भरोसे की कमी
पाकिस्तान की सिविल सोसायटी चाहती है कि 1973 के संविधान में सेना की जिस भूमिका का जिक्र है, वह उसी के दायरे में रहे. मानवाधिकार समूह पाकिस्तानी सेना पर गैरकानूनी रूप से सामाजिक कार्यकर्ताओं, पत्रकारों और राजनीतिक कार्यकर्ताओं को हिरासत में लेने और मीडिया की सेंसरशिप का आरोप लगाते हैं.
वे चाहते हैं कि नागरिक प्रशासन से जुड़े सभी मामले चुनी हुई सरकार के अधीन होने चाहिए जिनमें घरेलू नीतियों से लेकर अर्थव्यवस्था और विदेश नीति, सब कुछ शामिल है. पाकिस्तानी मानवाधिकार आयोग के महासचिव हैरिस खालिक कहते हैं, "पाकिस्तान में नागरिक और राजनीति समाज, दोनों की जिम्मेदारी है कि वे संविधान, लोकतंत्र, संघवाद और संसद की सर्वोच्चता की रक्षा करें और उन सभी कदमों का विरोध करें जो देश की अखंडता और सुरक्षा को नुकसान पुहंचाते हैं."
संवैधानिक रूप से यह बात सही है. लेकिन जमीन पर हालात बिल्कुल अलग हैं. 1947 में बंटवारे के बाद पाकिस्तान बनने के बाद से सुरक्षा से जुड़े मुद्दे पाकिस्तान की सियासत में अहम भूमिका निभाते रहे हैं. रिटायर्ड जनरल और रक्षा विश्लेषक गुलाम मुस्तफा सेना और विपक्षी पार्टियों के बीच संवाद की पैरवी करते हैं लेकिन उनका मानना है कि नवाज शरीफ इसके लिए तैयार नहीं हैं. उन्होंने डीडब्ल्यू से बातचीत में कहा, "नवाज शरीफ तानाशाही तरीके से काम करते हैं. वह राष्ट्रीय सुरक्षा संस्थानों की तरफ से दी जाने वाली सलाह पर ध्यान नहीं देना चाहते."
वह कहते हैं, "इसी तरह, (पूर्व राष्ट्रपति आसिफ अली जरदारी और उनके बेटे बिलावल भुट्टो के नेतृत्व वाली) पीपल्स पार्टी को भी सुरक्षा से जुड़े मुद्दों को गंभीरता से लेना चाहिए. इन्हीं कदमों से मेलमिलाप की तरफ जाया जा सकता है. सेना दोस्ताना माहौल चाहती है."
वहीं इस्लामाबाद में रहने वाले राजनीतिक विश्लेषक कमर चीमा कहते हैं कि सेना और राजनीति दलों को करीब लाने का काम प्रधानमंत्री इमरान खान का है. उनका कहना है, "खान संसद के नेता हैं. उन्हें लोकतांत्रिक समूहों के लिए जगह तैयार करनी होगी, विपक्ष के साथ बात करनी होगी. वह तो उनसे बात ही नहीं करना चाहते हैं." चीमा की राय में, "असल में प्रधानमंत्री ने गैर निर्वाचित अफसरों को ज्यादा अहमियत दे दी है. यह लोकतांत्रिक तरीका नहीं है."
चीमा मानते हैं कि सेना देश में लोकतांत्रिक व्यवस्था को मजबूत करना चाहती है लेकिन उसे राजनेताओं पर भरोसा नहीं है. वह कहते हैं, "मिसाल के तौर पर शरीफ सेना की शक्तियों को कम करना चाहते हैं. इसी से अविश्वास पैदा होता है." वह कहते हैं कि सेना यह नहीं चाहती कि चुनी हुई सरकार भारत से संबंध सामान्य करने के लिए कोई "तुरत फुरत कदम" उठाए, जैसा कि नवाज शरीफ ने 2013 से 2017 के बीच बतौर प्रधानमंत्री अपने तीसरे कार्यकाल में करने की कोशिश की थी.
लाहौर में रहने वाले विश्लेषक हबीब अकरम कहते हैं कि सेना को जनता का समर्थन हासिल है, इसलिए यह कहना सही नहीं होगा कि यह संघर्ष जनता और सेना के बीच है. वह कहते हैं, "सेना तय करती है कि मुख्यधारा की राजनीति में क्या चलेगा. बहुत से पाकिस्तानी सेना का समर्थन करते हैं और राजनेताओं को भ्रष्ट बताते हैं."
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पाकिस्तान के लिए नई व्यवस्था?
जनरल मुस्तफा मानते हैं कि नए संविधान के जरिए राजनीतिक संकट को सुलझाया जा सकता है. वह कहते हैं, "हमें नई संवैधानिक व्यवस्था की जरूरत है. संसदीय तर्ज वाली सरकार शायद पाकिस्तान के लिए उपयुक्त नहीं है. इसकी बजाय हमारे यहां राष्ट्रपति वाली शासन व्यवस्था होनी चाहिए." वह कहते हैं कि नई व्यवस्था के तहत एक परिषद बनाई जानी चाहिए जो राष्ट्रीय महत्व के सभी मुद्दों पर चर्चा करे.
लेकिन देश के लोकतांत्रिक समूह कहते हैं कि नई राजनीतिक व्यवस्था की मांग अलोकतांत्रिक है. इमरान जफर पूर्व सांसद हैं और पाकिस्तान पीपल्स पार्टी के नेता हैं. वह कहते हैं कि सेना के लिए किसी संवैधानिक भूमिका की जरूरत नहीं है. डीडब्ल्यू से बातचीत में उन्होंने कहा, "1973 के संविधान में पाकिस्तानी सेना की भूमिका का स्पष्ट उल्लेख है. उसका काम देश की रक्षा करना है. उसे देश के संवैधानिक दायरे में रहना होगा. अगर कुछ लोग संविधान के साथ खिलवाड़ करने लगें, तो यह पाकिस्तान के लिए बड़े संकट वाली बात होगी "
टकराव की स्थिति से बचने के लिए कई लोग बीच का रास्ता अपनाने का सुझाव देते हैं. पाकिस्तानी मानवाधिकार आयोग के महासचिव खालिक कहते हैं, "मुझे नहीं लगता है कि पाकिस्तान को नई व्यवस्था की जरूरत है. पाकिस्तान को जो चाहिए वह है संसद की सर्वोच्चता जो संविधान के मुताबिक होनी चाहिए."
विश्लेषक चीमा संवाद पर जोर देते हैं. वह कहते हैं, "चुने हुए प्रतिनिधियों और गैर निर्वाचित संस्थानों के बीच खाई बढ़ती जा रही है. पाकिस्तान को एक राष्ट्रीय संवाद शुरू करना चाहिए." वह कहते हैं, "बात सिर्फ संविधान की नहीं है. सेना को लगता है कि राजनेता जब भी सत्ता में आते हैं तो वे अपने वादों को पूरा नहीं करते हैं और सत्ता से चिपकना चाहते हैं. लेकिन राजनेताओं का कहना है कि सेना उन्हें काम ही नहीं करने देती है."
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