सुनाने की कोशिश में कश्मीरी रैपर
१७ अक्टूबर २०१३23 साल के एमसी काश श्रीनगर में रहते हैं. सात लाख से ज्यादा सुरक्षा बल, पुलिसिया कार्रवाई, मानवाधिकारों का उल्लंघन और इसी तरह की दिक्कतें दूसरे स्थानीय लोगों की तरह ही उनकी नाराजगी भी बढ़ा रही हैं. 2010 में उनका पहला गाना "आई प्रोटेस्ट" खूब चला. वह पूरा साल बड़े विरोध प्रदर्शनों से गर्म रहा था, 120 लोगों की मौत हुई, उस दौरान एमसी काश के स्टूडियो पर भी पुलिस ने छापा मारा. वो कहते हैं कि उन्हें कई सबक मिले, "मैं जमीने के नीचे के एक स्टूडियो से दूसरे स्टूडियो में शिफ्ट हो रहा था... हम जैसे ही काम खत्म खत्म होता, स्टूडियो मालिक के कंप्युटर से सारी चीजें डिलीट कर देते. स्टूडियो मालिक जानते थे कि अगर इस लड़के को रिकॉर्ड किया तो सरकार का कोप उन पर बरसेगा."
लोगों के सामने गाना भी आसान नहीं था. कोई निजी या सार्वजनिक जगह नहीं थी, जहां गाया जा सके और जो सरकारी ठिकाने थे उन पर प्रशासन का सख्त नियंत्रण था. हालांकि काश इन सबसे रुकने वाले नहीं. कहते हैं, "कोई फर्क नहीं पड़ता, वे मेरे स्टूडियो पर छापा मार सकते हैं, मेरे घर पर छापे डाल सकते हैं लेकिन जब तक मैं अपने लोगों और अपने देश के लिए कुछ कर रहा हूं, जब तक मेरी अंतरात्मा संतुष्ट है, मैं खुश हूं और यही करता रहूंगा." काश का पूरा नाम रौशन इलाही है.
काश की लोकप्रियता ने दूसरे लोगों को भी उनकी राह पर चलने की प्रेरणा दी है. 23 साल के शायन नबी की शांत और नर्म छवि माइक के सामने आते ही गुस्से में ढल जाती है. 1980 के आखिरी और 1990 के शुरूआती सालों में कश्मीर में हिंसा के चरम दौर में उनका बचपन बीता. हालांकि वो अब बाहर निकले हैं, जब हिंसा दो दशक में सबसे निचले स्तर पर है. वो बताते हैं कि तीन चार साल पहले तक वो भी तमाशबीन ही थे. 2010 में उन्होंने बड़ी संख्या में कश्मीरी लोगों को प्रदर्शन करते देखा और इसी दौरान सुरक्षा बलों की कार्रवाई में कई युवाओे की मौत भी हुई.
शायन कहते हैं, "जब हर रोज युवाओं के मरने की खबर आ रही थी तो मैंने इतिहास पढ़ना शुरू किया और जो मेरे लोगों के साथ हो रहा था उसके विरोध में गाने लिखने लगा." शायन का मानना है, "अगर कश्मीर से बाहर के लोग मेरे संगीत के बारे में जानेंगे, वहां जो हो रहा उसके बारे में जानेंगे तो वो खुद को इस जगह से जोड़ सकेंगे, कम से कम वो भी मेरी तरह आवाज उठा सकेंगे."
आधुनिक दौर के रैप संगीत की जड़ें तो अमेरिका में हैं लेकिन कश्मीर में कविता और संगीत के जरिए विरोध की एक लंबी परंपरा है. 1947 में भारत पाकिस्तान के बीच बंटवारे से पहले कश्मीरी मुस्लिम कलाकार हिंदू शासकों का विरोध करने के लिए लड्डी शाह गाया करते थे, जो एक तरह की तुकबंदी वाली कविताएं ही थीं.
पुलिस आयुक्त अब्दुल गनी मीर इस बात से इनकार करते हैं कि उनके अधिकारी विरोध दबाने के लिए स्थानीय रैपरों पर रोक लगा रहे हैं. उन्होंने समाचार एजेंसी एएफपी से कहा, "समाज में बहुत सी चीजें हो रही हैं और उनकी पुष्टि करने का हमें हुक्म है. अगर पुलिस वाले उनके घरों में जा कर कुछ पुष्टि करना चाहते हैं, तो इसमें कोई नुकसान नहीं है और इसमें कोई परेशान करने वाली बात नहीं."
मानवाधिकार के लिए काम करने वाले प्रमुख कार्यकर्ता खुर्रम परवेज कहते हैं कि पिछले कुछ सालों में हिंसक विरोध को दबाने में भारतीय सेना के काफी हद तक सफल होने के बाद पैदा हुई "विरोध की जगह" कश्मीरी युवा भरने की कोशिश कर रहे हैं. यह युवा अपनी निराशा को हिंसा की बजाय संगीत में ढाल रहे हैं, ये अच्छी बात है, लेकिन परवेज इस आवाज को "दबाने की कोशिशों" की आलोचना करते हैं. उनका कहना है, "सरकार हर उस चीज के खिलाफ है जो लोगों को यहां साथ लाती है. कोई भी चीज जो लोगों को जोड़ती हो चाहे हो वो संगीत हो, कला या लेखन. सरकार को डर है कि अंतरराष्ट्रीय समुदाय यहां हो रहे उल्लंघनों से जुड़ जाएगा."
एनआर/एएम (एएफपी)