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सरोकारों का नहीं सत्ता राजनीति का उत्तराखंड

२९ मार्च २०१६

अलग राज्य के रूप में उत्तराखंड का 16वां साल चल रहा है. राजनीतिक उथल पुथल को देखते हुए हर किसी के मन में अब एक ही सवाल है कि पहाड की तकदीर कितनी बदली.

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उत्तराखंड में बाढ़ की विभीषिका
तस्वीर: AFP/Getty Images

उत्तराखंड हाईकोर्ट ने राष्ट्रपति शासन पर रोक लगा दी है और 31 तारीख को विधान सभा में शक्ति परीक्षण का आदेश दिया है. लेकिन राजनीतिक उठापटक के मद्देनजर लोग अब ये सोचने लगे हैं कि उत्तराखंड का गठन पहाड के लिये अच्छा हुआ या बुरा. ये सही है कि पहाड़ की अपनी सरकार है, मुख्यमंत्री है, राजधानी है, लंबा-चौडा अधिकारी और कर्मचारी तंत्र है, सत्ता के गलियारों में खूब शोरोगुल और गहमागहमी रहती है, पहाड़ पहाड़ की रट हर जगह सुनाई दे जाती है. लेकिन इस सब में एक आम आदमी के लिए क्या है ये एक कठिन सवाल है.

इन 16 वर्षों की उत्तराखंड की राजनीति पर एक निगाह डाली जाए तो बेचैन करने वाले ऐसे कई सवाल उठते हैं जिनके जवाब आसान नहीं हैं. 16 साल में आठ बार मुख्यमंत्री बदले गए और अब नौवें की तैयारी है. बीजेपी के 2000 के पहले और अंतरिम सत्ता काल में छह महीनों से भी कम समय में दो बार मुख्यमंत्री बदले गए और 2007 में पांच वर्ष के दूसरे सत्ता काल में तीन बार मुख्यमंत्री बदले गए. इसी तरह 2002 में कांग्रेस का पहला सत्ता काल तो एनडी तिवारी की अगुवाई में जैसे तैसे पूरे पांच साल चल गया लेकिन दूसरी बार जब 2012 में मौका आया तो दो दो बार मुख्यमंत्री बदले गए और चार साल होते होते आज हालत ये है कि राज्य में कोई सरकार ही नहीं रह गई है और पहली बार ये राज्य राष्ट्रपति शासन में डाल दिया गया है.

2012 के चुनाव में कांग्रेस ने निर्दलियों, बीएसपी और यूकेडी की मदद से सरकार बनाई. विजय बहुगुणा को आलाकमान ने सीएम पद सौंपा, हरीश रावत खेमा नाराज हो गया और दो साल बीतते बीतते बहुगुणा को हटना पड़ा और रावत को कुर्सी मिली. हरीश रावत के भी दो साल ही हुए थे कि बहुगुणा ने अपने खेमे को बगावत के लिए जमा किया. 18 मार्च को जब रावत सरकार अपना आखिरी बजट पास करा रही थी, ऐन उस दिन बहुगुणा ने अपने साथी विधायकों के साथ बजट का विरोध किया और बीजेपी का साथ लेकर बगावत कर दी. इसी बीच एक सीडी सामने आई जिसमें हरीश रावत को कथित रूप से विधायकों को रिश्वत देने वाला आपत्तिजनक बयान देते दिखाया गया और सरकार पर बन आई, जिसकी परिणति राज्य में राष्ट्रपति शासन के रूप में हुई.

उत्तराखंड के 16 साल क्षेत्रीय राजनीति के लड़खड़ाते जाने के साल भी हैं. इस लिहाज से देखा जाए तो क्षेत्रीयता की ऐसी राजनैतिक दुर्गति वाला उत्तराखंड अकेला राज्य होगा. वरना कमोबेश सभी राज्यों में क्षेत्रीय दलों और क्षेत्रीय राजनीतिक क्षत्रपों का बोलबाला ही रहा है. इतना बोलबाला कि नब्बे के दशक से मुख्यधारा की भारतीय राजनीति भी उसके इर्दगिर्द रहती आई है. इन वर्षों में अगर उत्तराखंड क्रांति दल का पतन हुआ तो बहुजन समाज पार्टी ताकतवर होकर उभर आई. कहने को पार्टी का वोट बैंक पहाड़ में न के बराबर है लेकिन उसकी राजनैतिक इंजीनियरिंग इतनी सशक्त रही है कि तराई मैदान के इलाकों से लेकर पहाड़ों के कुछ हिस्सों में भी वो अपनी पैठ बनाने में सफल रही है.

उत्तराखंड में हैरान तो वामपंथी दलों का रवैया भी करता है जो इन 16 साल में अपने लिए कोई जगह किसानों और मज़दूरों की इस पट्टी में नहीं बना पाया. तराई के इलाकों में सीपीएम ने हाल के वर्षों में कुछ छिटपुट आंदोलन जरूर चलाए लेकिन ये बड़ा राजनैतिक आंदोलन नहीं बन पाया. पहाड़ के इस भूभाग के लिए अलग राज्य और स्वायत्तता की सबसे पहले 1952 में मांग उठाने वाली सीपीआई भी अपनी जमीन तैयार नहीं कर पाई. अविभाजित उत्तर प्रदेश में भी वामपंथी दलों की पहाड़ी जनमानस में वैसी प्रतिष्ठा और मजबूती नहीं बन पाई जो कांग्रेस और बीजेपी के वर्चस्व को तोड़ने के लिए जरूरी थी. उत्तराखंड बनने के बाद एक बार फिर ये मौका था कि जनसंघर्षों और जनाकांक्षाओं को एकजुट कर नई राजनैतिक धारा विकसित की जाती, लेकिन इसमें भी वामपंथी दल सुस्त रहे. इस तरह से उत्तराखंड में वैकल्पिक राजनीति का कोई स्वरूप बन ही नहीं पाया.

सीधे तौर पर दिखती दो वजहें हैं. उत्तराखंड में सत्ता राजनीति और सत्ता के तंत्र के साथ उद्यमियों के गठजोड़ ने इतनी तेजी से जगह बनाई कि इसने आकांक्षा, स्वप्न और संघर्ष पर स्वार्थ, मुनाफे और ताकत का घेरा कस दिया. एक बहुत बड़ी धुंध उस प्रश्न के आसपास जमा हो गई जो उत्तराखंड के अस्तित्व को लेकर बना था कि आख़िर राज्य का निर्माण किसके लिए और आखिर क्यों. सीटों के नए सिरे से परिसीमन ने राज्य के पहाड़ी चरित्र को ही बदल दिया. वहीं उम्मीदवारों का राजनैतिक ग्राफ कुछ यूं रहा कि कल तक जो नेता ब्लॉक और पंचायत स्तर की राजनीति कर रहे थे, राज्य बनने के बाद रातों-रात उनकी रैंक बढ़कर विधायक और मंत्री पद तक पहुंच गई.

प्रदेश के किसी भी मुख्यमंत्री में पहाड़ के विकास को लेकर विजन और उसके अनुरूप दीर्घकालीन नियोजन करने की दूरदर्शिता नहीं दिखाई दी. उत्तराखंड में अब आम लोग अक्सर एक ही बात कहते सुनाई देते हैं कि ये राज्य तो नेताओं के लिए ही बना है, उन्हीं के लोग, उन्ही की मौज. बड़े फलक पर ये टिप्पणी इस देश की सत्ता राजनीति की संस्कृति पर भी लागू होती है.

ब्लॉगः शिवप्रसाद जोशी