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सत्ता राजनीति की हिन्दी

२३ जून २०१४

सोशल मीडिया में हिन्दी की अनिवार्यता के फैसले से उठा तूफान फिलहाल शांत हो गया है. लेकिन ये मुद्दा तो बन ही गया है. एक भाषा एक राष्ट्र के हिन्दूवादी नारे के बीच भाषाई मेलमिलाप की ऐतिहासिकता खतरे में पड़ती दिखती है.

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तस्वीर: Fotolia/Dmitry Chernobrov

भारतीय गृह मंत्रालय के राजभाषा विभाग ने 10 मार्च को एक सर्कुलर निकाला था जिसके मुताबिक सोशल मीडिया के मंचों पर हिन्दी को बराबरी का महत्व देना होगा. चुनाव अभियान के बीच सर्कुलर दब गया लेकिन नतीजे आने के बाद "विभागीय रूटीन कार्रवाई" में आगे बढ़ा दिया गया. ये 27 मई की बात है जब नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री पद की शपथ ले चुके थे. बेशक सर्कुलर की भूमिका यूपीए सरकार के समय बनी थी लेकिन मोदी सरकार भी इसमें आधे की भागीदार बनी. नई सरकार के आते ही कोई ऐसी फाइल आगे बढ़ जाए जिसका संबंध भाषायी संवेदनशीलता से है तो कुछ हैरानी और संशय तो होता ही है. फैसला आते ही तमिलनाडु सहित देश के कई अहिन्दी भाषी इलाकों से तीखी प्रतिक्रियाएं आने लगीं. सरकार ने विवाद का अंत ये कह कर किया कि सोशल मीडिया से संबंधित राजभाषा विभाग का निर्देश सिर्फ हिन्दी पट्टी में लागू होगा.

हिन्दी का विवाद आज का नहीं है. 1965 में सरकार इसे राजभाषा का दर्जा देना चाहती थी लेकिन देश के अहिन्दी भाषी दक्षिण इलाकों में जबरदस्त आंदोलन फूटा था. तमिलनाडु उस उग्रता का केंद्र बना था. केंद्र के फैसले के विरोध में 1964 के अंत से वहां आंदोलन भड़क उठा. दंगे और आत्मदाह तक हुए. केंद्र को फैसला वापस लेना पड़ा लेकिन कांग्रेस के लिए एक दूरगामी क्षति का सबब बन गया. 1967 का विधानसभा चुनाव हार गई और तबसे अब तक तमिलनाडु में वो सत्ता में नहीं आ पाई.

Mädchenschule in Indien
भाषा को लेकर संघर्षतस्वीर: picture-alliance/ZB

बीजेपी के लिए ये चेतावनी और याददिहानी का वक्त है. एक भारत, श्रेष्ठ भारत के चुनावी नारे और आरएसएस की वैचारिकी से लैस होकर राजनीति तो की जा सकती है लेकिन देश नहीं चलाया जा सकता. "हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान" की अवधारणा सांस्कृतिक विविधता वाले विराट देश के लिए घातक है. एकतरफा सोच से अलग अलग भाषा समूहों और प्रांतों में रहने वाले नागरिकों के बीच अलगाव और टकराव बनता है. सब अपनी अपनी भाषा का लट्ठ लेकर उतरेंगे तो सोचिए क्या होगा. भाषा और साहित्य के चिंतक डॉक्टर रामविलास शर्मा ने कहा है कि, "इस कोलाहल में दो बातें हम भूल जाएंगे. पहली ये कि केंद्रीय भाषा के इस विवाद से देश की वास्तविक भाषा संबंधी स्थिति पर पर्दा पड़ जाता है. केंद्रीय भाषा के रूप में तो अंग्रेजी रहती ही है, विभिन्न प्रदेशों में भी वहां की भाषाओं के हक छीन कर राज्य भाषाओं के रूप में अंग्रेजी जमी रहती है. सबसे पहली आवश्यकता ये है कि भारतीय भाषाएं अंग्रेजी की दासता से मुक्त हों."

सभी भाषाओं को प्रोत्साहन देने के लिए सरकार को एक उदार और खुला रवैया अपनाना चाहिए. जिस भाषायी क्षेत्र से जो प्रतिनिधि संसद में आता है उसे अपनी भाषा में बोलने की सुविधा मिले, सरकार के फैसलों की कॉपी हर भाषा में हो और मीडिया को प्रेस रिलीज भी अपनी अपनी भाषाओं में मिले. 22 आधिकारिक भाषाएं देश में हैं तो इन सबका एक साथ निर्वहन करने में तो लगता नहीं कि इस देश की विराट सत्ता व्यवस्था और कार्य मशीनरी को कोई भारी दिक्कत आ सकती है. यूरोपीय संघ इसकी मिसाल है, जहां 24 आधिकारिक भाषाएं हैं.

इससे सीधे तौर पर तीन प्रमुख लाभ नजर आते हैं. पहला तो यही है कि अंग्रेजी का वर्चस्व कम होगा और दूसरा ये कि विभिन्न भारतीय भाषा संस्कृतियों का मुख्यधारा में आकर हीनताबोध खत्म हो जाएगा. तीसरा लाभ ये है कि भाषा के प्रति सम्मान बढ़ेगा और जब ऐसा होगा तो भाषा उपभाषा और उनकी बोलियों की हिफाजत भी हो पाएगी. आज के दौर की सबसे बड़ी चुनौतियों में भाषा को गायब होने से बचाने की चुनौती भी एक है. सत्ता और प्रशासन के स्तर पर नई कोशिशें इस तरह एक बड़े विहंगम और दूरगामी काम को अंजाम दे सकती हैं. लेकिन क्या सरकार में इतनी नैतिक इच्छाशक्ति है कि किसी एक भाषा को लेकर मताग्रही होने के बजाय वो तमाम भाषाओं की एक जीवंत आवाजाही को मुमकिन कर सके.

विख्यात अमेरिकी चिंतक और भाषाविद नॉम चोमस्की का कहना है, "भाषा मुक्त रचना की प्रक्रिया है. उसके नियम और सिद्धांत बेशक तय हैं, लेकिन पीढ़ियां उन्हें जिस तरह से इस्तेमाल करती हैं वो मुक्त और अनंत रूप से विविध है." ये बात भारत पर भी लागू होती है. देश की कोई भी भाषा चाहे वो हिन्दी हो या मराठी या तमिल, नितांत अलगाव में नहीं फलीफूली. यूरोप की भाषाओं की तुलना में ये भाषाएं एक दूसरे से ज्यादा निकट रही है. उनका अपना भाषायी, व्याकरणीय, लिपिगत और ध्वनि सौंदर्य रहा है और ये सारे सौंदर्य एक दूसरे से टकराते नहीं रहे हैं. वे एक दूसरे के पूरक बने रहे हैं. भाषाओं में यही आवाजाही इस देश की सांस्कृतिक बहुलता की अद्भुत मिसाल है. अनेकता में एकता का भारतीय फलसफा यूं ही नहीं कायम हुआ है.

ब्लॉगः शिवप्रसाद जोशी

संपादनः अनवर जे अशरफ