सत्ता-राजनीति की हिंसा में झुलसता केरल
९ अगस्त २०१७पर्यटन नक्शे में केरल भले ही "भगवान का अपना घर” कहलाता हो लेकिन राजनैतिक नक्शे में वो हिंसा और हत्या के लिए कुख्यात ही रहा है. वाम और संघ के हिंसक टकराव में मौतें दोनों ओर हो रही हैं दोनों ही पक्ष कटघरे में हैं. इस हिंसा का अभिकेंद्र कन्नूर जिला बना हुआ है जहां 60 के दशक से ही बीड़ी मजदूरों और ट्रेड यूनियनों को लेकर वाम और संघ के बीच खूनखराबा होता आ रहा है. अकेले कन्नूर में ही पिछले 25 साल में दोनों पक्षों के 43-43 कार्यकर्ता मारे गए हैं. द हिंदू अखबार में पुलिस हवाले से पिछले दिनों आई खबर के मुताबिक 2005 से अब तक केरल में कुल 52 हत्याएं दर्ज हुई हैं. जिनमें 26 संघ के और 21 सीपीएम के कार्यकर्ता थे. तीन वर्कर अन्य दलों के थे. 2006-11 में वाम सरकार के कार्यकाल सबसे ज्यादा 31 हत्याएं बताई गईं.
पुलिस इन हत्याओं का सिर्फ ब्यौरा जमा करने वाली एजेंसी बन कर रह गई है. हत्याओं के दशकों से चले आ रहे सिलसिले के बीच एक चिंताजनक सवाल है पुलिस और प्रशासन का राजनीतिकरण जो कि एक ओपन सीक्रेट है. ऐसा नहीं है कि केरल पुलिस के पास संसाधनों की कमी होगी लेकिन ये संसाधन इस्तेमाल करने के लिए जिस इच्छाशक्ति की जरूरत है वो उसके पास नहीं दिखती है, सरकार के पास तो क्योंकर होगी. इस बीच राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने राज्य सरकार और पुलिस महानिदेशक को नोटिस जारी करते हुए एक महीने में रिपोर्ट देने को कहा है.
इमरजेंसी के बाद संघ ने उत्तरी केरल में अपनी जमीन तलाशने की शुरूआत की थी. वंचितों के बीच उसने जगह भी बनाई लेकिन वामपंथी और कांग्रेसी सरकारों के सामने उसकी उपस्थिति नगण्य ही रही. इधर 2014 के बाद देश के बदले हुए राजनैतिक समीकरणों के बीच संघ और बीजेपी के नेताओं का जोश बुलंदी पर है. उन्हें लग रहा है कि केरल में वाम और कांग्रेस वर्चस्व को तोड़ने का ये मुफीद वक्त है. राजनैतिक हिंसाओं ने उसकी कामना की आग में घी का काम किया है. लिहाजा वो केरल सरकार पर चौतरफा हमलावर है. लगता है कि कार्यकाल पूरा करने से पहले पी विजयन सरकार को राष्ट्रपति शासन लगाकर सत्ता से बेदखल करने की तैयारी चल रही है. क्योंकि कुल मिलाकर इंप्रेशन ऐसा दिया जा रहा है कि संघ के कार्यकर्ता ही इस राजनैतिक हिंसा के शिकार बने हैं जबकि आंकड़ें बता रहे हैं कि खून बहाने में कोई किसी से उन्नीस नहीं है. केरल में कानून व्यवस्था की नाकामी का ये शोर उसी कदर उठ रहा है जैसा ईएमएस नंबूदिरीपाद के नेतृत्व वाली पहली निर्वाचित कम्युनिस्ट सरकार के दौरान उठा था जब 1959 में तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने उनकी सरकार को बर्खास्त कर राज्य में राष्ट्रपति शासन लगा दिया था.
केरल की हिंसा की डेमोग्राफी बताती है कि अधिकतर कमजोर तबकों के युवा इसका शिकार हैं. अस्मिता के प्रश्न, दमित आकांक्षाएं और विकास की चाहत को ठोस आधार देने की बजाय उन्हें उस हिंसा के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है जो उनकी बुनियादी तकलीफों को और सघन बना देती है. भूख की लड़ाई से बेहाल लोगों को लेकर राजनैतिक दलों की निजी सेनाएं तैयार होती जाती हैं और दबंगों, गुंडों और दंगाइयों की जमात पनपने लगती है. चुनावी हिंसा अब रोजमर्रा की सड़क-गली-कूचे की हिंसा में तब्दील हो गई है. सत्ता पर हर हाल में वर्चस्व बनाए रखने की लालसा ने राजनैतिक विमर्श और विचारप्रधान लड़ाइयों को किसी दूर अतीत की घटना बना दिया है. एक तरह से हत्यारे राजनीति की नई पटकथा लिख रहे हैं.
कहने को लोकतंत्र है लेकिन ये देखिए कि सत्ता-राजनीति किस कदर दोतरफा वार करती है. केरल में वाम बहुमत, केंद्र में बीजेपी के बहुमत से मुठभेड़ कर रहा है और चिंता की बात ये है कि इसमें गरीब पिछड़े समुदायों के युवा जान से हाथ धो रहे हैं. जाहिर है कौन ज्यादा ताकतवर है, ये उस बात की भी लड़ाई बन जाती है. केरल हिंसा के पैटर्न पर गौर करें तो लगता है जैसे कोई बड़ा अदृश्य मकसद है जिसके पूरा होने तक ये खूनी खेल जारी रहेगा. अन्य राज्यों में भी तो इसके छींटे दिखते हैं.
राजनैतिक शुचिता का ये क्षरण, सत्तर साल के भारतीय लोकतंत्र में एक बड़ी गिरावट का सूचक भी है. सत्ता की उठापटक और छीनाझपटी ने राजनैतिक लड़ाइयों को मानो रियासतों पर कब्जे के खूनी संग्राम में बदल दिया है. बात निराशाजनक लग सकती है लेकिन ये कहना ही पड़ेगा कि दूर दूर तक इस अंधेरे से निपटने की न कोई सूरत दिखती है न तैयारी. सत्तर साल की आजादी का जश्न और देश-प्रेम की अंतहीन हिलोरें ऐसे में व्यर्थ और नकली ही लगती हैं.
(भारत का कौन सा राज्य किस देश के बराबर है?)
ब्लॉगः शिवप्रसाद जोशी