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संसद की महत्ता का सवाल

मारिया जॉन सांचेज
२२ नवम्बर २०१७

बहुत दिलचस्प नजारा है. गुजरात में नौ एवं 14 दिसंबर को विधानसभा चुनाव के लिए मतदान होना है और कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी एक-दूसरे पर संसद की अवमानना करने के आरोप लगा रही हैं.

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Indien Parlamentswahl 2014 Modi im Parlament 20.05.2014
तस्वीर: Reuters

अगर पिछले दशकों के इतिहास पर नजर डाली जाए तो स्पष्ट हो जाएगा कि इस मामले में कोई भी पार्टी पाक-साफ़ नहीं है और दोनों को ही संसद की गरिमा की कोई खास चिंता नहीं रही है. फिलहाल कांग्रेस का आरोप है कि गुजरात में चुनाव प्रचार के दौरान राफेल विमानों के सौदे के बारे में उठ सकने वाले असुविधाजनक सवालों से बचने के लिए सत्तारूढ़ भाजपा संसद का शरद सत्र बुलाने में देरी कर रही है और यह एक प्रकार से संसद की अवमानना है. भाजपा का कहना है कि कांग्रेस स्वयं अतीत में ऐसा कर चुकी है इसलिए उसे यह आरोप लगाने का कोई अधिकार नहीं है.

इन दिनों भाजपा कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी पर निशाना साधने का कोई मौका नहीं चूकती, इसलिए केंद्रीय मंत्री रविशंकर प्रसाद ने उनकी खिल्ली उड़ाते हुए यह भी कहा है कि पहले कांग्रेस अपने नेता का रिकॉर्ड देखे कि वे संसद में कितने दिन उपस्थित रहे. लेकिन रविशंकर प्रसाद इस मामले में अपनी पार्टी के सांसदों का रिकॉर्ड भूल गए. पिछली जुलाई में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भाजपा सांसदों को संसद में उपस्थित रहने का निर्देश देने के साथ-साथ चेतावनी भी दी थी कि उनकी हाजिरी का पूरा हिसाब रखा जाएगा. हुआ यह था कि कोरम पूरा न होने के कारण राज्य सभा में सरकार एक विधेयक पेश ही नहीं कर पायी थी और सत्तारूढ़ दल के 56 सदस्यों में से केवल 23 ही सदन में उपस्थित थे. इस नाकामी की कारण भाजपा की काफी किरकिरी हुई थी.

Indien Kongresspartei Rahul Gandhi
तस्वीर: picture-alliance/dpa

यूं स्वयं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने संसद की गरिमा बहाल करने के लिए कुछ नहीं किया है. देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने इस मामले में एक आदर्श स्थापित किया था लेकिन उनके बाद आने वाले प्रधानमंत्री उस पर चलने में असमर्थ रहे. नेहरू जब भी दिल्ली में होते थे, तब हमेशा संसद में उपस्थित रहते थे और सांसदों के सवालों और भाषणों का जवाब देते थे. उस समय संसदीय चर्चाओं का बौद्धिक स्तर भी बहुत ऊंचा हुआ करता था. लेकिन मोदी अक्सर संसद से अनुपस्थित रहते हैं. वे महत्वपूर्ण मुद्दों पर हुई चर्चा का जवाब भी अक्सर खुद नहीं देते और अनेक बार सदनों की कार्यवाही सिर्फ इसलिए लगातार स्थगित होती रहती है क्योंकि विपक्ष प्रधानमंत्री से जवाब देने की मांग करता है और प्रधानमंत्री जवाब देने के लिए अपने किसी मंत्री को खड़ा कर देते हैं. अक्सर वे अपनी बात कहने के लिए रेडियो कार्यक्रम "मन की बात” का इस्तेमाल करते हैं, संसद के मंच का नहीं.

लोकतांत्रिक संस्थाओं की अनदेखी करके उन्हें कमजोर करने की प्रकिया कांग्रेस ने शुरू की थी. जब कांग्रेस ऐसा कर रही थी, तब विपक्षी दल उसका विरोध करते थे. लेकिन स्वयं सत्ता में आने के बाद उन्होंने भी इस प्रक्रिया पर विराम लगाने के बजाय इसे और आगे बढ़ाया. जब कांग्रेस ने विरोध किया तो वही तर्क देकर उसका मुंह बंद किया गया जो अब दिया जा रहा है. तर्क यह है कि क्योंकि कांग्रेस ने खुद यही किया था, इसलिए उसे विरोध करने का नैतिक अधिकार नहीं है. यह एक विचित्र तर्क है क्योंकि सही बात कहने का हरेक को नैतिक अधिकार है. इसका उल्टा तर्क भी दिया जा सकता है कि जिस बात का भाजपा पहले विरोध करती थी, अब उसी को करने का उसे क्या नैतिक अधिकार है?

चुनाव प्रचार में केंद्रीय मंत्री और स्वयं प्रधानमंत्री व्यस्त हैं. यदि संसद का सत्र बुलाने में एक-दो सप्ताह की देरी भी हो जाए तो कोई पहाड़ नहीं टूटने वाला. लेकिन असली सवाल यह नहीं है. असली सवाल यह है कि क्या सत्तारूढ़ और विपक्षी पार्टियां संसद की गरिमा बहाल करने और उसकी महत्ता में वृद्धि करने के लिए तैयार हैं?