संसद की गरिमा के लिए पक्ष विपक्ष दोनों जिम्मेदार
१८ जुलाई २०१६जब भारतीय जनता पार्टी विपक्ष में थी, तब उसने जीएसटी विधेयक का जबरदस्त विरोध किया था लेकिन सत्ता में आते ही उसे इस विधेयक में समस्त गुण नजर आने लगे. लेकिन अब पहले इसका समर्थन कर रही कांग्रेस उसकी राह में रोड़ा अटका रही है. चूंकि सत्ता पक्ष को राज्यसभा में बहुमत हासिल नहीं है, इसलिए बिना विपक्ष में दरार डाले या उसका सहयोग लिए इस सदन में किसी भी विधेयक का पारित होना असंभव है. पहले तो भाजपा अपनी नाक ऊंची किए रही और उसने विपक्ष के साथ संवाद स्थापित करने की कोई कोशिश नहीं की, लेकिन अब स्थिति बदल रही है. कांग्रेस ने भी स्पष्ट कर दिया है कि जीएसटी विधेयक का उसका अंधविरोध नहीं है और वह गुण-दोष के आधार पर ही निर्णय लेगी. उसकी मांग है कि इस संबंध में राज्यों की आशंकाओं को दूर किया जाए.
जहां तक राजनीतिक मुद्दों का सवाल है, भाजपा को इस सत्र में कई पेचीदा और असुविधाजनक सवालों का सामना करना होगा. अरुणाचल प्रदेश में उसे मुंहकी खानी पड़ी है और लोकतांत्रिक मूल्यों में उसकी निष्ठा ही आलोचना के घेरे में आ गई है. इसके पहले भी उत्तराखंड में उसे इसी तरह करारी हार का सामना करना पड़ा था. इन दोनों राज्यों में राज्यपाल का इस्तेमाल करके कांग्रेस की सरकारों को हटाया गया और भाजपा की या भाजपा-समर्थक सरकार को सत्ता में लाया गया. इन दोनों मामलों में सुप्रीम कोर्ट ने ही संवैधानिक व्यवस्था के संरक्षण का काम किया और भाजपा की इस दलील की कलई खोल कर रख दी कि अदालतें अपने अधिकार क्षेत्र का अतिक्रमण कर रही हैं.
वर्षाकालीन सत्र में विपक्ष की ओर से अरुणाचल के मुद्दे के साथ-साथ कश्मीर का मुद्दा भी बड़े जोर-शोर से उठाया जाएगा. गोरक्षा के नाम पर हिंदुत्ववादी गुटों द्वारा दलितों पर किए जा रहे अत्याचारों का मुद्दा सत्र के पहले दिन बहुजन समाज पार्टी की अध्यक्ष मायावती ने राज्यसभा में उठाया और इस प्रकार के मुद्दे आगे भी उठते रहने की संभावना है.
लेकिन इसके साथ ही इस दुर्भाग्यपूर्ण तथ्य को भी याद रखे जाने की जरूरत है कि कहने को तो भारत एक संसदीय लोकतंत्र है, लेकिन हकीकत यह है कि इसमें संसद की गरिमा और महत्ता में लगातार कमी आती जा रही है और इस स्थिति के लिए कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी दोनों ही दोषी हैं. संसद की बैठकें लगातार छोटी होती जा रही हैं और इसकी पूरी जिम्मेदारी सरकार की है. कांग्रेस के नेतृत्व वाली मनमोहन सिंह सरकार हो या भाजपा के नेतृत्व वाली नरेंद्र मोदी सरकार, सभी ने संसद के प्रति अजीब किस्म की अवहेलना प्रदर्शित की है. वर्तमान संसद समेत पिछली तीन संसदों के सत्र पहली संसद की तुलना में एक-तिहाई समय ही चले. वर्तमान वर्षाकालीन सत्र भी केवल बीस दिन ही चलेगा. इसमें भी कोई गारंटी नहीं कि सार्थक बहस और विधायी कामकाज हो पाएगा क्योंकि सदनों में शोरगुल, हंगामा और कार्यवाही को ठप्प करना अब आम बात हो चली है.
ऐसे में भारतीय लोकतंत्र के भविष्य के प्रति चिंतित लोगों का यह सवाल पूछना लाजिमी है कि यह कैसा संसदीय लोकतंत्र है जिसमें संसद ही को हाशिये पर धकेला जा रहा है? देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने यह स्वस्थ परंपरा शुरू की थी कि जब भी वे दिल्ली में होते थे, वे संसद में जाकर अवश्य सदन में बैठते थे और सांसदों के सवालों का जवाब भी देते थे. लेकिन बाद के प्रधानमंत्री धीरे-धीरे इस परंपरा से हटते गए और अब तो हालत यह है कि प्रधानमंत्री का संसद के किसी सदन में उपस्थित होना एक महत्वपूर्ण घटना माना जाता है. उनकी सरकार पर आरोप लगते हैं, उससे सवाल किए जाते हैं, मांगें की जाती हैं लेकिन सरकार का मुखिया उन पर बोलने के लिए सदन में उपस्थित ही नहीं होता.
ब्रिटिश संसद में प्रधानमंत्री को हर हफ्ते एक नियत दिन पर सांसदों के सवालों के जवाब देना होता है, लेकिन भारतीय संसद में ऐसा कोई नियम या परंपरा नहीं है. लोकतंत्र में माना जाता है कि सरकार जनता के प्रति जवाबदेह है. लेकिन जब सरकार का मुखिया ही जनता के चुने हुए प्रतिनिधियों से मुंह चुराये तो फिर क्या उम्मीद की जा सकती है?