विकास को रोकती सामाजिक चुनौतियां
२८ सितम्बर २०१३भारत ने 90 के दशक में आर्थिक सुधार शुरू किया. प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह उस समय देश के वित्त मंत्री थे. सुधारों से उम्मीद थी कि लोगों के आर्थिक हालात सुधरेंगे, लेकिन शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं पर ध्यान न देने की वजह से गरीबी, कुपोषण, भ्रष्टाचार और लैंगिक विषमता जैसी सामाजिक समस्याएं बढ़ी हैं. अब यह देश के विकास को प्रभावित कर रहा है. दो दशक के आर्थिक सुधारों की वजह से देश ने तरक्की तो की है, लेकिन एक तिहाई आबादी अभी भी गरीबी रेखा के नीचे जीवन बसर कर रही है. भारत इस अवधि में ऐसा देश बन गया है जहां दुनिया भर के एक तिहाई गरीब रहते हैं.
चीन की कामयाबी
चीन अपने यहां गरीबों की तादाद में भारी कमी करने में कामयाब रहा है, लेकिन भारत विकास के फायदे आम लोगों में समान ढंग से बांट नहीं पाया है. आर्थिक सुधारों के परिणामस्वरूप चीन का सकल घरेलू उत्पाद बढ़कर 12,000 अरब डॉलर हो गया है, जबकि समान आबादी के बावजूद भारत का जीडीपी इसका एक तिहाई ही है. प्रति व्यक्ति आय के मामले में दोनों देशों के बीच गहरी खाई है. 2001 से 2012 के बीच भारत में औसत आय 460 डॉलर से बढ़कर 1700 डॉलर हुई है जबकि चीन में इसी अवधि में यह 890 से बढ़कर 6800 डॉलर हो गया है.
पिछले सालों में भारत की विकास दर करीब 9 फीसदी रही है, लेकिन देहाती क्षेत्रों और अर्थव्यवस्था के ज्यादातर इलाकों में आय बहुत धीमी गति से बढ़ी है. क्षेत्रीय विकास विशेषज्ञ प्रोफेसर रविशंकर श्रीवास्तव कहते हैं, "हमारा विकास गरीबों का समर्थन करने वाला विकास नहीं था. विषमताएं बढ़ी हैं. लेकिन मुख्य बात यह है कि गरीबी पर विकास की प्रक्रिया का प्रभाव बहुत से दूसरे देशों के मुकाबले बहुत कम रहा है." नतीजतन कुपोषण और गरीबी में इस कदर बढ़ गई है कि सरकार को आबादी के बड़े हिस्से को खाद्य पदार्थों की गारंटी देने के लिए खाद्य सुरक्षा ऑर्डिनेंस लाना पड़ा. इस पर 1.3 अरब रुपये का खर्च आएगा.
विकास की रणनीति
हाल में जारी यूएन शिक्षा सूचकांक के अनुसार भारत 181 देशों में 147वें स्थान पर है. हालांकि पिछले सालों में ढेर सारे गैर सरकारी स्कूल, कॉलेज और यूनिवर्सिटी खुले हैं, लेकिन राजनीतिक इच्छा के अभाव और भ्रष्टाचार की वजह से स्तरीय शिक्षा को बढ़ावा नहीं मिला है. आईआईटी और आईआईएम को विश्व भर में जाना जाता है लेकिन वे भारत के वर्तमान विकास के लिए जरूरी इंजीनियर और मैनेजर प्रशिक्षित करने की हालत में नहीं हैं. देश में औद्योगिक उत्पादन बढ़ाने और नए रोजगार पैदा करने के लिए कामगारों और मैनेजरों के स्तरीय प्रशिक्षण की योजना जरूरी है.
शोध और विकास के क्षेत्र में भी भारत पर्याप्त खर्च नहीं कर रहा है. वह अपने प्रतिद्वंद्वियों चीन और दक्षिण कोरिया से बहुत पीछे है. भारत रिसर्च और डेवलपमेंट पर होने वाले वैश्विक खर्च का सिर्फ 2.1 प्रतिशत खर्च करता है जबकि यूरोप का हिस्सा 24.5 प्रतिशत है. श्रीवास्तव का कहना है कि विकास की प्रवृति ऐसी होनी चाहिए कि वह निचले तबके के लोगों की आय बढ़ाकर गरीबी का प्रभावशाली तरीके से मुकाबला कर सके. "यदि विकास का फोकस देश के गरीब इलाकों और बेहतर आय और स्तरीय रोजगार के जरिए लोगों को गरीबी से बाहर निकालने वाली रणनीतियों पर हो तो वह ज्यादा प्रभावी होगा."
नहीं रुकता भ्रष्टाचार
भ्रष्टाचार देश की एक बड़ी समस्या बनी हुई है. ट्रांसपैरेंसी इंटरनेशनल के अनुसार 176 देशों की सूची में भारत 94वें नंबर पर है. भ्रष्टाचार विरोधी अंतरराष्ट्रीय संस्था की ताजा रिपोर्ट के अनुसार दुनिया भर में रिश्तखोरी का स्तर काफी ऊंचा है. भारत में 70 फीसदी लोगों का मानना है कि पिछले दो साल में भ्रष्टाचार की स्थिति और बिगड़ी है. पिछले साल सामाजिक कार्यकर्ता अन्ना हजारे के नेतृत्व में विशाल भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन हुआ, लेकिन जन लोकपाल बनाने की मांग को राजनीतिक दलों का व्यापक समर्थन नहीं मिला. पार्टियां अपने को आरटीआई कानून से भी अलग रखना चाहती हैं.
भारत की प्रमुख कारोबारी संस्था फेडरेशन ऑफ इंडियन चैंबर्स ऑफ कॉमर्स एंड इंडस्ट्री (फिक्की) का कहना है कि भारत का 2011से 2012 के बीच भ्रष्टाचार के कारण सात अरब डॉलर का नुकसान हुआ. 2जी टेलीकॉम, कॉमनवेल्थ गेम्स और कोयला घोटालों से हुए नुकसान को इसमें शामिल नहीं किया गया है जो हजारों करोड़ के हैं. भ्रष्टाचार का अर्थव्यवस्था के विकास पर बहुत ही बुरा असर हो रहा है और जर्मनी जैसे देशों की विदेशी कंपनियों ने तो इस पर अब खुलेआम अपनी चिंताएं जतानी शुरू कर दी हैं.
गरीबी और बेरोजगारी
नए रोजगार बनाने और गरीबी को रोकने में सरकार की विफलता की वजह से देहातों से लोगों का शहरों की ओर बड़े पैमाने पर पलायन हो रहा है. इसकी वजह से शहरों के ढांचागत संरचना पर दबाव पैदा हो रहा है. आधुनिकता के कारण परंपरागत संयुक्त परिवार टूटे हैं और नौकरी के लिए युवा लोगों ने शहरों का रुख किया है, जिनका नितांत अभाव है. नतीजे में पैदा हुई सामाजिक तनाव और कुंठा की वजह से हिंसक प्रवृति बढ़ रही है, खासकर महिलाओं के खिलाफ हिंसा में तेजी आई है. दिसंबर 2012 में नई दिल्ली में एक छात्रा के गैंगरेप ने आर्थिक महाशक्ति के रूप में उभरते भारत में महिलाओं की समस्याओं को उजागर किया है.
हालांकि बलात्कार और छेड़ छाड़ से संबंधित कानूनों में सख्ती लाई गई है और सरकार ने महिला पुलिसकर्मियों की बहाली की दिशा में कदम उठाए हैं, पूरे भारत में महिलाओं के खिलाफ हिंसा में कमी नहीं आई है. नई दिल्ली में सेंटर फॉर वीमेंस डेवलपमेंट स्टडीज की निदेशक प्रोफेसर इंदु अग्निहोत्री इसकी वजह समाज में महिलाओं की हैसियत को मानती हैं, जो बहुत नीची है, "यह सभी कारकों में दिखती है, खास कर आर्थिक हिस्सेदारी में. उन्हें समाजिक बोझ समझा जाता है, उन्हें बाजार अर्थव्यवस्था में उपभोग की वस्तु समझा जाता है, जो समाज में उत्पादक योगदान नहीं देता. इसकी वजह से हिंसा बढ़ रही है."
समाज की बेरुखी
भारतीय समाज महिलाओं के मुद्दों को किस तरह नजरअंदाज कर रहा है, यह इस बात से पता चलता है कि सालों से चल रही बहस के बावजूद महिलाओं के लिए संसद में सीटों के लिए आरक्षण के मुद्दे पर राजनीतिक दलों के बीच सहमति नहीं बन पाई है. कुछ राजनीतिक दल इसका खुलकर विरोध कर रहे हैं, जबकि दूसरे अवसरवादी कारणों से इस पर जोर नहीं दे रहे हैं. इतना ही नहीं कोई भी राजनीतिक पार्टी संगठन की संरचना में महिलाओं का प्रतिनिधित्व बढ़ाने की कोई गंभीर कोशिश नहीं कर रही है.
भारत राजनीतिक और आर्थिक नेतृत्व में भी लैंगिक विषमता का सामना कर रहा है. आधुनिक कारोबार में पुरुषों और महिलाओं की भागीदारी का महत्व बढ़ गया है और बहुराष्ट्रीय भारतीय कंपनियां महिला मैनेजरों को आकर्षित करने के प्रयास भी कर रही हैं, लेकिन अभी भी शेयर बाजार में रजिस्टर्ड भारतीय कंपनियों के बोर्डरूम में महिला मैनेजरों की संख्या सिर्फ तीन फीसदी है. अग्निहोत्री लोगों की सोच में बदलाव की मांग करती हैं, "यदि महिलाओं की आर्थिक दशा सुधरती है तो उनकी मुश्किलें भी कम होंगी. ऐसा नहीं है कि कमाने वाली महिलाओं को तुरंत उसके अधिकार मिल जाते हैं, लेकिन जो महिलाएं कमाती हैं, उनके पास विकल्प होते हैं, अपने अधिकारों पर बल देने, अपनी आकांक्षाओं और इच्छाओं को आवाज देने और उन पर अमल करने का मौका होता है."
पिछले महीनों में भारत के आर्थिक विकास में तेजी से आई कमी का कारण वैश्विक आर्थिक संकट बताया जा रहा है, लेकिन विकास दर को बनाए रखने में विफलता की वजह प्रतिभाओं का इस्तेमाल न करना और कुशल कारीगरों की कमी भी है. भारत मुख्य रूप से गांवों में रहने वाली अपनी आबादी की क्षमताओं का इस्तेमाल करने और उन्हें शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाएं देने में नाकाम रहा है. उसे समझना होगा कि उसका आर्थिक स्वास्थ्य व्यापक रूप से उपलब्ध प्रतिभाओं के बेहतर इस्तेमाल पर ही निर्भर है.
रिपोर्ट: महेश झा
संपादन: अनवर जमाल अशरफ