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यूनेस्को से अलग हुए अमेरिका और इस्राएल

१ जनवरी २०१९

2019 की शुरूआत के साथ ही इस्राएल और अमेरिका ने संयुक्त राष्ट्र की सांस्कृतिक एजेंसी यूनेस्को से नाता तोड़ लिया है. दोनों के आरोप यूनेस्को की कार्य प्रणाली पर कुछ सवाल खड़े करते हैं.

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Kandidaten neue UNESCO-Welterbestätten | Palästina Altstadt von Hebron
तस्वीर: picture alliance/dpa/A. al Haslhamoun

संयुक्त राष्ट्र के शिक्षा, विज्ञान और संस्कृति संगठन, यूनेस्को से बाहर निकलने का एलान इस्राएल और अमेरिका 2017 में ही कर चुके थे. 31 दिसंबर 2018 को नोटिस पीरियड खत्म हुआ और 2019 की शुरूआत के साथ ही एलान अमल में आ गया. अमेरिका के विदेश मंत्रालय ने यूनेस्को छोड़ने से पहले एक बयान जारी कर कहा, "दुर्भाग्य से, यूनेस्को ने इस्राएल के खिलाफ सुनियोजित तरीके से भेदभाव को अपनाया है और यहूदी लोगों और इस्राएल राष्ट्र से घृणा करने वाले लोग यूनेस्को का इस्तेमाल कर इतिहास को फिर से लिख रहे हैं."

अपनी स्थापना के एक साल बाद ही इस्राएल 1949 में यूनेस्को में शामिल हुआ. दुनिया भर में यूनेस्को को विश्व ऐतिहासिक धरोहर कार्यक्रम के लिए जाना जाता है. वर्ल्ड हेरिटेज प्रोग्राम का मकसद सांस्कृतिक इलाकों और वहां की संस्कृति को सुरक्षित रखना है. इसके अलावा, एजेंसी प्रेस की आजादी व महिलाओं को शिक्षित करने को बढ़ावा देती है. साथ ही कट्टरपंथ व यहूदी घृणा के खिलाफ भी काम करती है. इस्राएल में नौ वर्ल्ड हेरिटेज साइट्स हैं. इनमें हैफा का बहाई गार्डन, मृत सागर के पास मसादा का बाइबलकालीन इलाका और तेल अवीव की व्हाइट सिटी शामिल है. पूर्वी येरुशलम की ओल्ड सिटी इसमें शामिल नहीं है. यूनेस्को ने फलस्तीनी इलाके में तीन जगहों को विश्व धरोहरों में शामिल किया है.

इस्राएल के यूनेस्को छोड़ने का असर पहले से घोषित विश्व धरोहरों पर नहीं पड़ेगा. इनका संरक्षण स्थानीय प्रशासन करता है. विश्व धरोहर संधि के तहत इस्राएल इन धरोहरों के लिहाज से पार्टी बना रहेगा.

कुछ इस्राएली संरक्षक यूनेस्को छोड़ने के फैसले से मायूस है. हाल बरसों में नई विश्व धरोहरों के लिए कई आवेदन भरने वाले आर्किटेक्ट गियोरा सोलार कहते हैं, "मुझे नहीं लगता कि यह एक चतुराई भरा कदम था. यह एक राजनीतिक फैसला है. मैं खुद भी यूनेस्को में होने वाली वोटिंग से सहमत नहीं हूं, लेकिन उसे छोड़ने से यह राजनीतिक मामला बन गया है. हम ऐसा कर खुद को सजा दे रहे हैं. यूनेस्को इस्राएल के खिलाफ नहीं है, बल्कि वे देश हैं जो (इस्राएल) विरोध में वोट देते हैं."

(आखिर क्यों इतना अहम है येरुशलम?)

विवादों से पटे प्रस्ताव

2011 में यूनेस्को, संयुक्त राष्ट्र की पहली ऐसी संस्था बनीं, जिसने फलस्तीन को पूर्ण सदस्य के तौर पर मान्यता दी. उस फैसले के तुरंत बाद तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा के प्रशासन ने यूनेस्को को दी जाने वार्षिक राशि बंद कर दी. यूनेस्को के कुल बजट में अमेरिका की हिस्सेदारी 22 फीसदी थी. अमेरिका के राष्ट्रीय कानून के तहत फलस्तीन को पूर्ण सदस्य मानने वाली यूएन एजेंसी के फंड में कटौती करना बाध्यकारी है. अमेरिका के साथ ही इस्राएल ने भी यूनेस्को को पैसा देना बंद कर दिया.

2016 में यूनेस्को के साथ इन दोनों देशों के रिश्ते और खराब हो गए. उस वक्त यूनेस्को ने एक प्रस्ताव पास किया. इस्राएली अधिकारियों ने आरोप लगाया कि प्रस्ताव येरुशलम की एक पवित्र जगह को यहूदी धर्म से जुड़ा नहीं मानता है. प्रस्ताव के तहत पवित्र इलाके टेंपल माउंट कॉमप्लेक्स (अंग्रेजी नाम), हरम अल-शरीफ (अरबी नाम) से स्वीकार किया गया, लेकिन हिब्रू भाषा से जुड़े नाम को स्वीकृति नहीं मिली. यूनेस्को ने उस इलाके में इस्राएल को कब्जा करने वाली ताकत के तौर पर पेश किया और फलस्तीनी इलाकों में उसकी कार्रवाई पर सवाल उठाए.

उस वक्त प्रस्ताव की आलोचना करते हुए इस्राएली प्रधानमंत्री बेन्यामिन नेतन्याहू ने कहा, "टेंपल माउंट से इस्राएल का कोई संबंध नहीं है, यह कहना बिल्कुल वैसा ही है जैसे कोई कहे कि ग्रेट वॉल का चीन से और पिरामिडों का मिस्र से कोई संबंध नहीं है." नेतन्याहू के मुताबिक यूनेस्को ने अपनी "रही सही साख" भी गंवा दी है.

इसके साल भर बाद 2017 में यूनेस्को के एक और प्रस्ताव ने इस्राएली अधिकारियों को नाराज किया. उस वक्त यूनेस्को ने पश्चिमी तट एक मकबरे को फलस्तीनी विश्व धरोहर करार दिया. यहूदी धर्म में उस मकबरे को माचपेला कहा जाता है. ऐसा विश्वास है कि उस पवित्र गुफा में यहूदी धर्म के पितामह अब्राहम को दफनाया गया. मुसलमान इस जगह को इब्राहिमी मस्जिद कहते हैं. इस जगह पर जाने के लिए दो अलग अलग गेट हैं, एक तरफ से मस्जिद का गेट है और दूसरी तरफ से यहूदी उपासना केंद्र सिनेगॉग का.

एक के बाद एक आए विवादास्पद प्रस्तावों के चलते अमेरिका ने यूनेस्को से बाहर निकलने का एलान कर दिया. वॉशिंगटन ने साफ कहा कि यूनेस्को की भाषा और कार्यवाही में इस्राएल के प्रति भेदभाव नजर आ रहा है. अमेरिका 1984 में भी यूनेस्को से बाहर निकल चुका है. उस वक्त राष्ट्रपति रॉनल्ड रीगन ने यह कदम उठाया था. 19 साल बाद 2003 में जॉर्ज डब्ल्यू बुश के नेतृत्व में अमेरिका फिर यूनेस्को को सदस्य बना. इराक पर हमले के दौरान बुश यह दिखाना चाहते थे कि अमेरिका "अंतरराष्ट्रीय सहयोग के प्रति" वचनबद्ध है.

नवंबर 2017 में ऑड्रे एजुले ने यूनेस्को के डायरेक्टर जनरल का पदभार संभाला. उनके आते ही कूटनीतिक विवाद कुछ शांत पड़ा. एजुले ने इस्राएल को यूनेस्को में बनाए रखने के लिए काफी कोशिशें की. येरुशलम पर आए दो छमाही प्रस्तावों की भाषा काफी हद तक काटी छांटी गई. यूनेस्को में उस वक्त तैनात इस्राएली दूत ने उन कोशिशों को "नई ऊर्जा" करार दिया और कहा कि सदस्यता छोड़ने का फैसला टाला जा सकता है. प्रगति जरूर हुई लेकिन प्रधानमंत्री नेतन्याहू की उम्मीदों से कहीं कम. सितंबर 2018 में नेतन्याहू ने यहूदी घृणा के विरुद्ध यूनेस्को की कॉन्फ्रेंस में हिस्सा लेने से इनकार कर दिया. संयुक्त राष्ट्र महासभा के साथ हो रही इस कॉन्फ्रेंस के बारे में इस्राएली प्रधानमंत्री ने कहा, "यदि और जब भी यूनेस्को इस्राएल के खिलाफ भेदभाव खत्म कर देगा, इतिहास को दुत्कारना बंद कर देगा और सच के साथ खड़ा रहना शुरू कर देगा उस दिन इस्राएल फिर से जुड़ने में सम्मानित महसूस करेगा."

(येरुशलम दीवारों के बगैर क्या होता?)

मिलन गागनॉन/ओएसजे