म्यांमार में जातीय हिंसा का कुचक्र
१२ जून २०१२अमेरिकी विदेश मंत्री हिलेरी क्लिंटन ने म्यांमार में जारी जातीय हिंसा पर चिंता जताते हुए कहा कि इससे देश में लोकतांत्रिक और आर्थिक सुधारों में अड़चन होगी. क्लिंटन और यूरोपीय संघ ने हाल ही में म्यांमार पर लगाए गए आर्थिक प्रतिबंध हटाए हैं क्योंकि वहां लोकतांत्रिक प्रक्रिया शुरू हुई और सुधारों के लिए कदम उठाए गए हैं. उन्होंने देश में शांति और समझौते की अपील की है.
बौद्ध धर्म को मानने वाली एक महिला के सामूहिक बलात्कार और हत्या के बाद मुस्लिम रोहिंग्या और बौद्ध समुदाय के बीच हिंसा भड़क उठी जो अभी तक नहीं थमी है. क्लिंटन ने कहा, "राखिने राज्य की हालत दिखाती है कि सभी जाति और धर्म के लोगों को एक दूसरे लिए आदर दिखाने की जरूरत है और राष्ट्रीय एकता और मेल की भी. हम म्यामांर के लोगों से अपील करते हैं कि वह शांत, समृद्ध और लोकतांत्रिक देश के लिए साथ आएं और एक ऐसा देश बनें जो अपने विविध जातियों के अधिकारों का आदर करता हो."
नागरिकता कानून में कमी
म्यांमार के कानून के अनुसार रोहिंग्या मुसलमानों को नागरिकता नहीं दी जाती है क्योंकि उन्हें गैरकानूनी आप्रवासी माना जाता है. कई राज्यों में रोहिंग्या म्यामांर और बांग्लादेश के बीच आते जाते रहते हैं. म्यांमार की सरकार का कहना है कि 1814 से वह म्यांमार में नहीं हैं. म्यांमार में नागरिकता कानून में कमी है जिसे बदलने की जरूरत है. उधर बांग्लादेश का दावा है कि रोहिंग्या म्यांमार के हैं.
सप्ताहांत में दोनो समुदाय के लोगों ने सिटवे में आगजनी की. यह म्यामांर के पश्चिमी राखिने राज्य का सबसे बड़ा शहर है. कई सौ रोहिंग्या लोगों ने यहां से बांग्लादेश भागने की कोशिश की लेकिन उनकी नावों को लौटा दिया गया.
मानवीय संकट की आशंका
ब्रिटेन स्थित अरकान रोहिंग्या नेशनल ऑर्गनाइजेशन के अध्यक्ष नरूल इस्लाम का मानना है कि सुरक्षा कर्मियों ने खुद ही यह षडयंत्र किया है. उन्होंने यह भी दावा किया कि जल रहे घरों से भाग मुसलमानों पर सुरक्षा कर्मियों ने कर्फ्यू के दौरान गोलियां चलाई. डॉयचे वेले से बातचीत में इस्लाम ने कहा, "यह सब सुनियोजित है. राखिने राजनीतिक संगठन इसके पीछे है. मानवीय संकट की आशंका है. (रोहिंग्या) मुसलमानों की दुकानें लूट ली गई हैं और चावल सहित सारी चीजें बरामद कर ली गई हैं. लोग भूख का शिकार हो रहे हैं. मैं इसके लिए केंद्रीय सरकार को भी जिम्मेदार ठहराता हूं. वह सेना भेज के कुछ ही समय में इस पर काबू पा सकते हैं. वह अरकान की जातीय विविधता खत्म कर देना चाहते हैं. अगर ऐसा नहीं है तो फिर वह स्थिति को नियंत्रण में क्यों नहीं कर ला रहे."
तनाव की पुरानी परंपरा
वहीं जर्मनी में हैम्बर्ग यूनिवर्सिटी में म्यांमार के जानकार हांस बेर्न्ड ज्योल्नर कहते हैं, "सरकार की ताकत को ज्यादा आंका जा रहा है. उनके पास वह सब करने की ताकत नहीं है जो वह करना चाहते हैं. और यह उन सभी सीमाई राज्यों के लिए सही है जहां जातीय विवाद हैं, सिर्फ राखिने ही नहीं."
संयुक्त राष्ट्र के आंकड़े कहते हैं कि म्यांमार में आठ लाख रोहिंग्या रहते हैं. ज्योल्नर कहते हैं कि यह विवाद और हिंसा पुराने झगड़े का उभर कर आना है. ताजा हिंसा भी उसी तरीके से हो रही है, जैसे पहले होती रही है. इसमें यौन हिंसा या आरोपों के कारण जातीय हिंसा भड़क उठती है. ज्योल्नकर कहते हैं, "देश में बौद्ध और मुसलमान तनाव की परंपरा पुरानी है जो उपनिवेशवाद और 1930 में राष्ट्रीय आंदोलन के समय से चली आ रही है." वह बताते हैं कि उस समय ब्रिटिश सत्ता की जगह भारतीय मुसलमानों पर हमला किया जाता था क्योंकि वह कमजोर थे और अंग्रेजों पर वह हमला नहीं कर सकते थे, "समय समय पर कुछ न कुछ भड़क उठता है. यह कभी न खत्म होने वाली कहानी लगती है. यह कई कारणों पर आधारित है. जब तक म्यांमार की सरकार ऐसा कोई हल नहीं निकालती जिससे राखिने समुदाय संतुष्ट हो, बांग्लादेश के साथ बातचीत की जाए ताकि कोई विकास हो तब तक कुछ नहीं हो सकता."
यूरोपीय संघ सहित अमेरिका स्थिति मानवाधिकार संस्था ह्यूमन राइट्स वॉच ने म्यांमार के प्रधानमंत्री थाइन साइन की आलोचना की है.
उधर सरकारी आंकड़ों के हिसाब से हिंसा के दौरान मारे जाने वाले लोगों की संख्या 25 है. पर्यटन के लिए महत्वपूर्ण थांदवे, क्यॉकफ्यू सहित तीन शहरों में हिंसा फैल गई है.
रिपोर्टः आभा मोंढे (रॉयटर्स, एएफपी)
संपादनः ईशा भाटिया