मोक्ष पाने की चाह गंगा में घोल रही है राख
२४ नवम्बर २०१८लकड़ियों से भरे नाव लगातार वाराणसी के घाट पर पहुंचते रहते हैं. भारत की मोक्ष नगरी कहे जाने वाले बनारस में गंगा के घाट पर हर दिन कम से कम 200 लोगों का अंतिम संस्कार होता है. हर चिता में 200 से 400 किलो लकड़ी की जरूरत होती है. इसका मतलब है कि उत्तर भारत के इस सबसे पवित्र कहे जाने वाले शहर में हर दिन 80 टन लकड़ी केवल चिता में जल जाती है.
इतनी बड़ी मात्रा में जल रही लकड़ी को घटाने के साथ ही जल और वायु प्रदूषण को रोकने के लिए अधिकारियों ने गाय के गोबर से बने उपलों का विकल्प सुझाया है. हालांकि अब तक इसमें कोई खास सफलता नहीं मिली है. सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट के प्रदूषण विशेषज्ञ विवेक चट्टोपाध्याय का कहना है, "लोगों को लकड़ी जलने से होने वाले उत्सर्जन के बारे में संवेदनशील बनाना होगा. तभी इस समस्या से निबटा जा सकेगा."
सदियों से हिंदू वाराणसी में अंतिम संस्कार करते हैं ताकि मरने वाले को "मोक्ष" मिल सके. मोक्ष का मतलब है जन्म और मृत्यु के चक्र से बाहर निकलना. सफेद कफन और फूलों की पखुड़ियों से ढके शव राख में बदल जाते हैं और इन्हें अस्थियों के साथ नदी में बहा दिया जाता है. घाटों पर श्मशान के व्यवस्थापक यानी डोम मरने वालों के परिजन को आग देते हैं जिससे चिता में आग जलाई जाती है. इन परंपराओं में मामूली सा परिवर्तन भी बवाल मचा देता है.
गंगा नदी को साफ रखने की योजना के तहत 1989 में विद्युत शवदाहगृह बनाए गए. यह कम प्रदूषण फैलाता है और इसमें खर्च भी कम होता है, लेकिन फिर भी इसे अपनाने वाले लोगों की भारी कमी है. वाराणसी के विद्युत शवदाह गृह में हर दिन महज पांच से सात शव जलाए जाते हैं. वाराणसी के म्युनिसिपल कमिश्नर नितिन बंसल का कहना है, "वाराणसी एक पवित्र नगरी है, लोग यहां धार्मिक रीतियों से जुड़े रहना चाहते हैं और विद्युत शवदाह जैसे तरीकों को नहीं अपनाना चाहते."
एनआर/एमजे (एएफपी)