मैरीटल रेप पर जस्टिस राजीव शकधर ने क्या कहा
१३ मई २०२२इस बयान को लेकर कई तरह की गलतफहमियां भी पैदा हो रही हैं. गलतफहमी से बचने और स्पष्टता के लिए हम जस्टिस राजीव शकधर के उस बयान के पूरे हिस्से को संदर्भ के साथ आपके सामने रख रहे हैं.
दिल्ली हाईकोर्ट की तरफ से जारी 393 पन्नों के फैसले में पृष्ठ संख्या 136 पर आर्टिकल 14 के संदर्भ में इस बात का जिक्र है कि पीड़ित और दोषी के संबंध के आधार पर वर्गीकरण संवैधानिक रूप से उचित है या नहीं. जस्टिस राजीव शकधर ने कहा है इसमें कोई संदेह नहीं है कि कानून बलात्कार करने वाले को सजा देना चाहता है और भारतीय दंड विधान यानी आईपीसी की धारा 375 की यही आधारशिला है.
जस्टिस शकधर के मुताबिक इसके साथ ही शायद इसमें भी कोई संदेह नहीं है कि शादीशुदा, अलग हो चुके और अविवाहित जोड़ों के बीच फर्क किया जाना चाहिये. जब यह फर्क स्वीकार हो जाता है तो यह देखा जाना चाहिए कि विवाहित और अविवाहित जोड़ों के बीच जो फर्क किया गया है उसका संबंध उस उद्देश्य के साथ है या नहीं जो कानून का प्रावधान हासिल करना चाहता है.
यहां यह उद्देश्य है महिला को उसकी इच्छा या सहमति के बगैर यौन संबंध से बचाना. मैरीटल रेप में शादी के आधार पर जो अपवाद बनाया गया है वह यहां नाकाम हो जाता है क्योंकि इसमें दोषी को पीड़ित के साथ रिश्ता होने की वजह से छूट मिल जाती है. दूसरे शब्दों में कहें तो सिर्फ शादीशुदा होने की वजह से यह ऐसी हरकत के लिए छूट दे देता है जो अन्यथा बलात्कार के मुख्य प्रावधान (धारा 375) के अंतर्गत आती है.
जस्टिस शकधर का मानना है कि शादीशुदा महिला को भी अपने पति से ना कहने का अधिकार होना चाहिए और इसी अधिकार को समझाने के लिहाज से उन्होंने कुछ बातें कही. फैसले के पृ्ष्ठ संख्या 137-138 पर पैराग्राफ 137.1 में उनकी कही बात का शब्दशः हिंदी अनुवाद कुछ इस तरह से है:
यह वर्गीकरण मेरी राय में अनुचित है और स्पष्ट रूप से मनमाना है क्योंकि इससे व्यक्त होता है कि शादी के बाहर जबरन सेक्स "वास्तविक बलात्कार" है और यही काम शादी के अंदर और कुछ भले हो लेकिन बलात्कार नहीं है. एक "पवित्र महिला" या एक युवा लड़की को तो 'पीड़ित' माना जा सकता है लेकिन शादीशुदा महिला को नहीं. पहले के यौन संबंध को एक उचित बचाव माना जाता है क्योंकि सहमति ली गई है, लेकिन शादीशुदा महिला के मामले में इस बारे में पूछा भी नहीं जाता. सेक्स वर्कर को "ना" कहने का कानून के तहत अधिकार है लेकिन शादीशुदा महिला को नहीं. सामूहिक बलात्कार में अगर पीड़ित का पति भी शामिल हो तो सह अभियुक्त तो बलात्कार के कानून का दंश झेलेंगे, लेकिन पीड़ित के साथ रिश्ते की वजह से इसी कानून का उल्लंघन करने वाला पति नहीं. वर्तमान बलात्कार कानून के दायरे में एक शादीशुदा महिला को अपने पति के साथ यौन संबंध के लिए ना कहने की गुंजाइश तब भी नहीं है जबकि पति किसी संक्रामक बीमारी से पीड़ित हो या फिर महिला खुद बीमार महसूस कर रही हो. इसलिए बलात्कार कानून आज जिस रूप में है, वह जहां तक विवाहित महिलाओं की बात है, तो पूरी तरह से एक तरफ झुका हुआ है. किसी महिला को जो अपने पति के जरिये यौन दुर्व्यवहार के सबसे घृणित स्वरूप को झेलती है उसे यह जवाब नहीं दिया जा सकता कि कानून उसे दूसरे उपाय मुहैया कराता है. जब शादी उत्पीड़न बन जाए, तो उसे बचाने में स्टेट का कोई सुखद वैध हित नहीं है.
साफ है कि संदर्भ के साथ देखने पर गलतफहमी की कोई गुंजाइश नहीं रह जाती. जस्टिस राजीव शकधर की बात पर लोगों की राय अलग अलग हो सकती है लेकिन उनकी बात का गलत संदर्भ में मतलब नहीं निकाला जाना चाहिए.