मुश्किल में हैं भारतीय हो चुके चीनी
१८ दिसम्बर २०१०पश्चिम बंगाल की राजधानी कोलकाता में रहनेवाले चीनी समुदाय के संगठन चाइनीज़ असोसिएशन ने दिल्ली स्थित चीनी दूतावास से गुहार लगाई है कि हम लोग चीनी भाषा पढ़ना भूल रहे हैं. कृपया चीन से कुछ शिक्षक भेजिए.
चीनी प्रधानमंत्री वेन जियाबाओ के भारत दौरे के मौके पर कोलकाता में बसे चीनी समुदाय के लोगों ने उनसे यह अपील की है. इस दौरे से यहां चीनी समुदाय के लोगों में उम्मीद की एक नई किरण पैदा हुई है. एसोसिएशन ने पाया है कि कोलकाता में रहनेवाले 70 प्रतिशत चीनी अपनी मातृभाषा लिख या पढ़ नहीं सकते. जियाबाओ भारत के तीन दिन के दौरे पर आए थे.
चीनी मूल के लोगों का यह संघ इंडो चाइना एसोसिएशन के नाम से जाना जाता है. यह समुदाय लंबे अरसे से भारत में बसा हुआ है इसलिए अब खुद को भारतीय मानता है. चीनी युवकों के अपनी भाषा भूलने के खुलासे ने यहां चीनी आबादी के वजूद पर ही संकट खड़ा कर दिया है. एसोसिएशन के सचिव सीजे चेन कहते हैं कि यहां चीनी समुदाय अजीब त्रासदी का शिकार है. वह सवाल करते हैं कि यह कैसी विडंबना है कि 70 फीसदी लोग अपनी मातृभाषा लिख या पढ़ नहीं सकते हैं.
आगमन
कोलकाता में चीनी समुदाय की जड़ें बहुत पुरानी हैं. ईस्ट इंडिया कंपनी के जमाने में चीनियों का पहला जत्था कोलकाता से लगभग 65 किलोमीटर दूर डायमंड हार्बर के पार उतरा था. उसके बाद रोज़गार की तलाश में धीरे-धीरे और लोग कोलकाता आए और फिर वे यहीं के होकर रह गए. किसी जमाने में यहां चीनियों की आबादी 50 हज़ार थी. कोलकाता का एक बड़ा इलाक़ा चाइना टाउन कहलाता है. चाइना टाउन अब भी है, लेकिन अब उसमें वो रौनक नहीं रही.
कू बताते हैं कि यहां चीनी स्कूल में उनके साथ पढ़नेवाले 30 लोगों में से सिर्फ़ तीन कोलकाता में हैं, बाकी सब कनाडा चले गए. कू कहते हैं कि अब तो यहां लोग ही नहीं रहते. लगभग पूरा चाइना टाउन ही कनाडा चला गया है. कू को दुख है कि चीनियों के हितों की ओर न तो राज्य सरकार ने कोई ध्यान दिया और न ही चीन सरकार ने. कोलकाता में पहले चीनी भाषा की पढ़ाई के लिए तीन स्कूल थे. इनमें से एक तो बंद हो चुका है और जो दो बचे हैं उनमें भी छात्रों की तादाद काफ़ी कम है. पहले यहां से तीन अख़बार निकलते थे. लेकिन उनमें से एक 'जेनरस ऑफ़ इंडिया' तो बंद हो चुका है.
एक बात पर चीनी समुदाय के सभी लोग सहमत हैं कि अपनी भाषा, संस्कृति और परंपरा को बचाए रखना जरूरी है. चेन कहते हैं कि इसके बिना तो हमारा वजूद ही ख़त्म हो जाएगा. चीनियों का कहना है कि 1962 में चीन युद्ध के दौरान उन पर अत्याचार भी हुए. सरकार ने हज़ारों लोगों को चीन भेज दिया. उसके बाद ही चीनियों का पलायन शुरू हुआ और लोग कनाडा और अमेरिका जाने लगे. अब हर घर का कम से कम एक व्यक्ति कनाडा में है.
किसी जमाने में ‘मिनी चीन' कहा जाने वाला ‘चाइना टाउन' अब संक्रमण के गहरे दौर से गुजर रहा है. कोलकाता के पूर्वी छोर पर स्थित इस बस्ती में कभी हमेशा चहल-पहल बनी रहती थी. लेकिन हाल के वर्षों में खासकर युवा लोगों के रोजगार की तलाश में पश्चिमी देशों में पलायन की प्रक्रिया तेज होने के कारण अब इसकी रौनक फीकी पड़ने लगी है. अब बचे-खुचे लोग भी बेहतर मौकों की तलाश में हैं.
युवा ली की कहानी
एक चीनी युवा जॉन ली कहते हैं, "अब तो इस मिनी चीन की रौनक लगभग उजड़ गई है. मेरे दादा 60 के दशक में यहां आए थे. तब मेरे पिताजी महज 16 साल के थे. पिताजी की शादी भी यहीं हुई. वह शादी के बाद एक बार चीन गए. लेकिन मैंने तो चीन को सिर्फ एटलस में ही देखा है."
कोलकाता में बसे इस समुदाय के लोगों के दिलों में अब भी प्यार है. उनका मानना है कि भारत और चीन के बीच बढ़ती मिठास ही उनके अच्छे भविष्य का रास्ता खोलेगी. लोग मानते हैं कि दोनों देशों के बीच पिछले कई महीने काफी तनाव भरे रहे हैं. इस तनाव को खत्म करने के नजरिए से वेन जियाबाओ की यह यात्रा मील का पत्थर साबित होगी. ये लोग मानते हैं कि अगर दोनों देश नजदीक आ जाएं तो महाशक्ति बन सकते हैं. लेकिन पुराने अनुभव को देखते हुए काफी मेहनत करने की जरूरत है.
राजनीतिक नजरिए से भी कोलकाता में रहने वाले चीनी समुदाय को प्रधानमंत्री वेन जियाबाओ की यात्रा से काफी उम्मीदें हैं. इनका कहना है कि अगर भारत चीन अपने विवादों को बैठकर निपटा ले तो इससे दोनों देशों का फायदा होगा.
इंडो चाइना एसोसिएशन के अध्यक्ष पॉल छंग कहते हैं, “भारत चीनी नागरिकों को लंबी अवधि के वीजा को इनकार करता है और चीन कश्मीर के लोगों को अलग से वीजा दे रहा है. लेकिन ये छोटी समस्याएं हैं जिनका समाधान निकाला जाना चाहिए.”
चीनी मूल के लोग पूरी तरह भारतीय रंग में रच बस गए हैं. लेकिन अपनी मिट्टी के लिए अब भी उनका मन तड़पता है. ली के पिता और दादा पहले यहां चीन से आए दूसरे लोगों की तरह चमड़े की टैनरी खोली थी. तब इतनी प्रतिद्वंद्विता नहीं थी बाजार में. लेकिन लगभग 10 साल पहले इस धंधे में पहले जैसी कमाई नहीं होने के कारण टैनरी बंद कर उसी जगह एक रेस्तरां खोल लिया गया. इससे खासी कमाई हो जाती है.
ली के दो भाई कनाडा में बस गए हैं और अच्छा-खासा पैसा कमा रहे हैं. कई रिश्तेदार भी वहीं हैं. वह कहते हैं, "मैं खुद भी जाना चाहता हूं लेकिन पिता जी वहां नहीं जाना चाहते. उनको इस उम्र में अकेला कैसे छोड़ सकता हूं. जहां तक चीन की संस्कृति का सवाल है, हम यहां उसे किसी तरह जिंदा रखे हुए हैं. लेकिन युवकों के पलायन ने अब इसकी रौनक भी छीन ली है."
सन्नाटे का माहौल
इस चाइना टाउन के जो क्लब युवाओं से भरे रहते थे, वहां सन्नाटा पसरा है. अब या तो उम्रदराज लोग यहां बच गए हैं या फिर बच्चे. बीच की पूरी पीढ़ी गायब हो रही है.
उदारीकरण व भूमंडलीकरण के इस दौर में चीनी अर्थव्यवस्था में भी काफी खुलापन आया है. शायद यही सोचकर ली की इच्छा होती है चीन जाने की. जहां उनके दादा व पिता का जन्म हुआ था. वह कहते हैं, "जाने का मन करता है लेकिन सोचता हूं कि क्यों न उसी पैसे से किसी पश्चिमी देश का रुख करूं! मेरी तरह बाकी युवा भी इसी ऊहापोह में फंसे हैं. वे न तो पूरी तरह चीनी बन पाए हैं और न ही भारतीय. वे लोग बांग्ला भी बोलते हैं और अंग्रेजी भी. लेकिन अपनी भाषा भूल गए हैं."
ली और उनके जैसे युवाओं से बातचीत के बाद यही लगता है भारत में बसे चीनी मूल के लोग और समाज गंभीर संक्रमण के दौर से गुज़र रहा है.
रिपोर्टः प्रभाकर, कोलकाता
संपादनः वी कुमार