माओवाद की समस्या
३० मई २०१३इस हमले में राज्य के लगभग समूचे कांग्रेस नेतृत्व का सफाया हो गया है और यह भी स्पष्ट हो गया है कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह द्वारा बार बार माओवादी हिंसक आंदोलन को देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा बताए जाने के बावजूद केंद्र अथवा राज्य सरकारों के पास इस चुनौती का सामना करने के लिए कोई कारगर रणनीति नहीं है.
इस खतरे की भयावहता का अंदाज इसी तथ्य से लगाया जा सकता है कि इस समय भारत के 28 राज्यों में से 21 राज्य माओवादी हिंसा से प्रभावित हैं, दक्षिण में आंध्र प्रदेश से लेकर पूर्व में पश्चिम बंगाल तक माओवादी एक प्रकार का ‘लाल गलियारा' बनाने में सफल हो गए हैं और सरकारी आंकड़ों के मुताबिक 2001 से लेकर 2012 तक माओवादी हिंसा में मरने वालों की संख्या लगभग आठ हजार थी. कई राज्यों में छत्तीसगढ़ के बस्तर जैसे अनेक इलाके ऐसे हैं जहां राज्य प्रशासन लगभग अनुपस्थित है.
अभी तक केंद्र और राज्य सरकारें माओवादी हिंसा को अधिकांश रूप से कानून व्यवस्था की समस्या मानती रही हैं. हालांकि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कुछ अवसरों पर यह भी स्वीकार किया है कि इसके मूल में गंभीर सामाजिक आर्थिक कारण हैं, लेकिन अभी तक उन्हें दूर करने की दिशा में केंद्र या राज्य सरकारों की ओर से किसी भी तरह का कदम नहीं उठाया गया है. माओवाद प्रभावित अधिकतर इलाके आदिवासी बहुल हैं और यहां जीवनयापन की बुनियादी सुविधाएं तक उपलब्ध नहीं हैं. लेकिन इन इलाकों की प्राकृतिक संपदा के दोहन में सार्वजनिक एवं निजी क्षेत्र की कंपनियों ने कोई कसर नहीं छोड़ी है. यहां न सड़कें हैं, न पीने के पानी की व्यवस्था, न शिक्षा एवं स्वास्थ्य संबंधी सुविधाएं, न रोजगार के अवसर.
परेशान आदिवासी
लोकतांत्रित व्यवस्था का कोई भी लाभ इन आदिवासियों को नहीं मिला है. इसलिए यदि इनके मन में गहरा आक्रोश और असंतोष है, तो उसे अस्वाभाविक नहीं माना जा सकता. माओवादी, जिनका अंतिम लक्ष्य सशस्त्र क्रान्ति द्वारा राजसत्ता पर कब्जा करना है, उन्हें हथियार चलाने की शिक्षा देकर और उनमें अपने अधिकारों के प्रति चेतना जगाकर आत्मविश्वास भरते हैं. क्योंकि यूं ही उनका जीवन जीने लायक नहीं है, इसलिए वे आसानी से क्रान्ति के महान लक्ष्य के लिए जान देने के लिए तैयार हो जाते हैं.
लेकिन कई दशकों के दौरान माओवादी आंदोलन का चरित्र भी बदला है, कुछ कुछ उसी तरह जैसे श्रीलंका में लिट्टे का चरित्र बदला था. जो आदिवासी माओवादियों से सहमत नहीं, उन्हें शत्रु समझा जाता है और उन्हें पुलिस का मुखबिर बता कर उनका सफाया कर दिया जाता है. गरीब और असहाय आदिवासी माओवादी आतंक और पुलिस एवं अर्धसैनिक बलों की ज्यादतियों के बीच पिसते रहते हैं.
2005 में सरकारी सहयोग से विधानसभा में विपक्ष के नेता महेंद्र कर्मा ने माओवादियों का विरोध करने के लिए आदिवासियों की एक सशस्त्र सेना सलवा जुडूम के नाम से खड़ी की. इसने भी आदिवासियों पर बहुत जुल्म ढाये. 25 मई को हुए हमले में महेंद्र कर्मा की बहुत ही नृशंस तरीके से हत्या की गई और उन्हें मारने से पहले 78 बार चाकुओं से गोदा गया. एक विडम्बना यह भी है कि माओवादियों के प्रभाव वाले इलाकों में जो थोड़ा बहुत विकास हुआ भी है, वे उसे राजसत्ता का प्रतीक समझकर नष्ट करने में तनिक भी सोच विचार नहीं करते. पिछले कुछ वर्षों में वे अनेक स्कूल, सड़कें और टेलीफोन के टावर ध्वस्त कर चुके हैं.
कैसी हो नीति
स्थिति इतनी गंभीर होने के बावजूद छत्तीसगढ़ कांग्रेस के शीर्षस्थ नेताओं द्वारा बेहद संवेदनशील इलाके में निकाली गई परिवर्तन यात्रा को पर्याप्त सुरक्षा उपलब्ध नहीं कराई गई. शुरुआती ना नुकुर के बाद मुख्यमंत्री रमण सिंह को भी प्रशासन की यह चूक स्वीकार करनी पड़ी. राज्य में दिसंबर में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं. 2008 में हुए चुनाव में सत्ताधारी बीजेपी और विपक्षी कांग्रेस को मिले वोटों के बीच सिर्फ दो प्रतिशत का और सीटों के बीच सिर्फ 12 सीटों का अंतर था. रमण सिंह की सरकार सलवा जुडूम जैसे माओवाद विरोधी हिंसक आंदोलनों को समर्थन देने के बावजूद माओवादी खतरे को कम करने में पूरी तरह विफल रही है. अब उनका कहना है कि इस चुनौती से निपटने के लिए एक राष्ट्रीय नीति बनाई जानी चाहिए. लेकिन असलियत यह है कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की सरकार ने जबानी जमा खर्च के सिवा इस समस्या का समाधान करने की दिशा में एक भी ठोस कदम नहीं उठाया.
इस समय स्थिति यह है कि पुलिस के पास पुरानी राइफलें हैं तो माओवादी स्वचालित हथियारों से लैस हैं. उनके पास रॉकेटलांचर तथा अन्य अत्याधुनिक उपकरण भी हैं. सरकार का खुफिया तंत्र इनकी सप्लाई के स्रोत का पता लगा कर उसे रोकने में पूरी तरह से नाकाम रहा है. शायद बहुत अधिक लोगों को पता न हो कि बस्तर का इलाका पूरे केरल राज्य से भी बड़ा है. अब सुरक्षा बल ड्रोन यानों और सेना की सहायता की मांग कर रहे हैं. लेकिन माओवादी हिंसा की समस्या मूल रूप से आदिवासियों के अधिकारों और विकास की समस्या है. उनके अधिकारों के संरक्षण और विकास को सुनिश्चित किए बिना इस समस्या का हल खोजा जाना कठिन ही नहीं, असंभव है.
ब्लॉगः कुलदीप कुमार
संपादनः ए जमाल