मणिपुर में आम लोगों में चुनाव के प्रति उत्साह नदारद
२६ फ़रवरी २०२२पहले चरण में 28 मार्च को 38 सीटों पर और दूसरे चरण में 22 सीटों पर पांच मार्च को मतदान होना है. पहले चरण के लिए चुनाव प्रचार शनिवार को थम जाएगा. राजनीतिक दलों ने चुनाव अभियान में अपनी पूरी ताकत झोंक दी है. इस चरण के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से लेकर अमित शाह और राजनाथ सिंह के अलावा कांग्रेस नेता राहुल गांधी तक यहां चुनाव प्रचार कर चुके हैं. बावजूद इसके कोउ नृप होय हमें का हानि की तर्ज पर आम मतदाताओं में कोई उत्साह नहीं नजर आ रहा है.
राजधानी इंफाल में भी कहीं कोई चुनावी हलचल नहीं नजर आती. एयरपोर्ट से शहर में आते समय बीजेपी और कांग्रेस के इक्का-दुक्का बैनर और पोस्टर ही नजर आते हैं. स्थानीय लोग बताते हैं कि वह बैनर भी प्रधानमंत्री के दौरे के मौके पर लगाए गए थे.
यह राज्य जितना खूबसूरत है, इसके राजनीतिक और सामाजिक समीकरण उतने ही जटिल हैं. इसकी सीमा म्यांमार से भी सटी है. राज्य की करीब तीस लाख आबादी में से 53 फीसदी मैतेयी जनजाति के लोग हैं और 24 फीसदी नागा जनजातियां हैं. बाकी में से करीब 16 फीसदी कूकी-जो जनजाति के लोग हैं.
राज्य की मुख्य भाषा मैतेयी है जिसे मणिपुरी भी कहा जाता है. राज्य की अर्थव्यवस्था मुख्यतः कृषि, वन उत्पाद, कुटीर और हैंडलूम उद्योग पर निर्भर है. इसके अलावा पनबिजली परियोजनाओं पर आधारित कारोबार से भी कुछ आय होती है. राज्य की सीमा करीब सौ किलोमीटर दूर मोरे में म्यांमार से मिलती है वहां से सड़क मार्ग से म्यांमार जाया जा सकता है. हिंदू और ईसाई धर्म के लोग ही बहुतायत में हैं.
जातीय विभाजन काफी जटिल
राज्य में जातीय विभाजन बेहद जटिल है. पर्वतीय इलाकों में रहने वाली नागा जनजातियां ईसाई धर्म को मानती हैं जबकि गैर-आदिवासियों की बहुलता वाला घाटी इलाका हिंदू धर्म का अनुयायी है. राज्य की 60 विधानसभा सीटों में से 40 वैली या घाटी में हैं, पर्वतीय इलाकों की 20 में 19 सीटें आदिवासियों के लिए सुरक्षित हैं. बाकी एक सीट अनारक्षित है. अब वहां कूकी और नेपाली जनजाति के लोगों की आबादी ही सबसे ज्यादा है.
नागा जनजाति के लोग कोहिमा के नागा पीपुल्स फ्रंट (एनपीएफ) के समर्थक हैं. 2017 के चुनाव में उसने चार सीटें जीती थी.वह पार्टी अब 10 सीटों पर चुनाव लड़ रही है. आल मणिपुर वर्किंग जर्नलिस्ट यूनियन के महासचिव के. नाओबा बताते हैं, "इस बार नागा जनजाति के लोग संशय में हैं. कांग्रेस और बीजेपी ने तमाम सीटों पर अपने उम्मीदवार खड़े किए हैं. छोटी पार्टियां एक सीमित इलाके में ही प्रचार कर रही हैं जबकि दोनों बड़ी पार्टियां बड़े पैमाने पर प्रचार के जरिए चुनावी गणित को बदलने की कोशिश में जुटी हैं.”
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जातिगत भिन्नता के अलावा मणिपुर महिला और सिविल सोसाइटी आंदोलनों का भी गवाह रहा है. नाओबा कहते हैं कि चुनाव ताकतवर और पैसे वाले लोगों के लिए सत्ता पाने और अपनी संपत्ति बढ़ाने का जरिया बन गया है. यही वजह है कि राज्य में खरीद-फरोख्त की जमीन काफी मजबूत है. त्रिशंकु विधानसभा की स्थिति में खरीद-फरोख्त और दलबदल काफी तेज हो जाता है.
एक अन्य पत्रकार असीम भक्ता कहते हैं, "मणिपुर पहचान की राजनीति से परे है. यहां लोग अपने जीवन में किसी बदलाव की उम्मीद किए बिना मतदान करते हैं. कोई आदर्श या किसी पार्टी के प्रति मजबूत निष्ठा नहीं होने के कारण दलबदल आम है.”
दलबदल और गठबंधन का बोलबाला
राज्य में भले मुख्य मुकाबला सत्तारूढ़ बीजेपी और लंबे समय तक राज कर चुकी कांग्रेस के बीच हो, यहां उनकी किस्मत इलाके की छोटी राजनीतिक पार्टियों पर ही टिकी हैं. इसकी वजह है कि अब तक हुए तमाम सर्वेक्षणों में त्रिशंकु विधानसभा का अंदेशा जताया गया है. ऐसे में नेशनल पीपुल्स पार्टी (एनपीपी), नागा पीपुल्स फ्रंट (एनपीएफ) और जनता दल (यू) की भूमिका अगली सरकार के गठन में बेहद अहम होगी.
मणिपुर की राजनीति कई मायनों में पूर्वोत्तर के बाकी राज्यों से अलग है. यहां हाल के वर्षों में छोटी-छोटी पार्टियों की अहमियत और किंगमेकर के तौर पर उनकी भूमिका बढ़ी है.मिसाल के तौर पर वर्ष 2012 के विधानसभा चुनाव में आल इंडिया तृणमूल कांग्रेस ने 12 सीटें जीती थी हालांकि बाद में उसके तमाम विधायक या तो कांग्रेस में शामिल हो गए थे या फिर बीजेपी में.
इसी तरह वर्ष 2017 के चुनाव में एनपीपी ने चार और लोक जनशक्ति पार्टी (लोजपा) एक सीट जीती थी. तब कांग्रेस 28 सीटें जीत कर सबसे बड़ी पार्टी के तौर पर उभरी थी जबकि बीजेपी को 21 सीटें मिली थी. हालांकि राज्यपाल ने कांग्रेस की बजाय बीजेपी को सरकार बनाने का न्योता दिया था. इससे क्षेत्रीय दलों की अहमियत रातोंरात बढ़ गई. नतीजा यह हुआ कि बीजेपी को समर्थन के एवज में एनपीपी के चरों विधायकों और लोजपा के इकलौते विधायक को कैबिनेट पद मिल गया. चार सीटें जीतने वाली एनपीएफ दो कैबिनेट पद लेकर ही संतुष्ट हो गई.
अब इस बार 28 फरवरी और पांच मार्च को होने वाले चुनाव के भी अपवाद रहने के आसार कम ही हैं. इस बार सबकी निगाहें उस जद (यू) पर टिकी हैं जिसका पहले मणिपुर के ज्यादातर लोग नाम तक नहीं जानते थे. हाल के दिनों में कांग्रेस और बीजेपी के दो-दो प्रमुख नेता इस पार्टी का दामन थाम चुके हैं. पार्टी के प्रदेश महासचिव ने तो पहले ही एलान कर दिया है कि उनकी पार्टी किसी भी ऐसी राजनीतिक पार्टी का समर्थन करने को तैयार है जिसके सरकार बनाने की संभावना ज्यादा होगी.
इसी तरह एनपीपी और एनपीएफ को भी इस बार बेहतर प्रदर्शन की उम्मीद है. एनपीपी पूर्वोत्तर राज्यों में बीजेपी की सहयोगी रही है. वर्ष 2017 में उसने नौ सीटों पर लड़ कर चार जीती थी. इस बार उसने अकेले मैदान में उतरने का फैसला करते हुए 38 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारे हैं.
महिलाओं की भूमिका अहम
राज्य में महिला वोटरों की तादाद पुरुषों, के मुकाबले करीब 55 हजार ज्यादा है. विधानसभा चुनाव के लिए बने 2,968 मतदान केंद्रो में 487 केंद्रों का संचालन महिलाओं के जिम्मे है. उन केंद्रों की सुरक्षा का जिम्मा भी महिला सुरक्षा कर्मियों पर ही है. बावजूद इसके राजनीति में महिलाओं की तादाद अंगुलियों पर गिनी जा सकती है. 60 सीटों के लिए महज 17 महिलाएं ही मैदान में हैं. इस तबके को लुभाने के लिए सत्ता के दोनों दावेदारों यानी कांग्रेस और बीजेपी ने कई लुभावने वादे किए हैं. कांग्रेस ने जहां सरकारी नौकरियों में महिलाओं के लिए 33 फीसदी आरक्षण और मुफ्त परिवहन सुविधा देने का एलान किया है वहीं बीजेपी ने मेधावी छात्राओं को स्कूटी देने का वादा किया है. हालांकि छात्रा के.सिंह कहती है, "अगर मुझे एक नौकरी मिल जाए तो यह चीजों तो मैं खुद खरीद सकती हूं.”
एशिया में महिलाओं के सबसे बड़े बाजार इमा कैथल की करीब तीन हजार महिला दुकानदारों में भी चुनाव के प्रति कोई दिलचस्पी नहीं है. इस बाज़ार में साड़ी बेचने वाली कविता सिंह कहती है, "हमें सरकार से किसी मदद की उम्मीद नहीं है. हमारे लिए बीजेपी और कांग्रेस समान हैं. लॉकडाउन के दौरान हमें सरकार से कोई मदद नहीं मिली.” वह बताती है कि बाजार की महिला दुकानदारों में सरकार के प्रति भारी नाराजगी है और इस बार ये लोग किसी नई पार्टी को वोट देंगे.
पूजन सामग्री बेचने वाली एक अन्य महिला दुकानदार रंजना कहती है, "सत्ता में आने वाली तमाम पार्टियां एक जैसी ही हैं. इस बार मैं सोच-समझ कर वोट दूंगी. हमें सरकार से बहुत उम्मीद थी. लेकिन उसने हमको निराश ही किया है." इन दुकानदारों का कहना है कि लॉकडाउन के दौरान उनको भारी नुकसान हुआ है. मंदिर लंबे समय से बंद थे. ऐसे में बहुत सामान खराब हो गया.यह भी पढ़ेंः नाकाम रही लौह महिला की राजनीतिक पारी
क्या हैं चुनाव के मुद्दे
राज्य में इस बार सशस्त्र बल विशेषाधिकार अधिनियम यानी अफस्पा ही सबसे प्रमुख मुद्दे के तौर पर उभरा है. .कांग्रेस और एनपीपी जैसे दलों ने भी इसे अपना प्रमुख मुद्दा बनाया है. लेकिन बीजेपी के घोषणापत्र में यह मुद्दा गायब है. असीम भक्ता का कहना है कि बीजेपी जमीनी हालत में 80 फीसदी सुधार का दावा तो करती है. लेकिन वैसी स्थिति में आखिर इस अधिनियम और सेना की क्या जरूरत है, इस सवाल पर वह चुप्पी साधे बैठी है.
इस चुनाव में हर बार की तरह नशीली वस्तुओं की तस्करी का मुद्दा भी सबसे अहम है. म्यांमार से तस्करी के जरिए दशकों से यह चीजें पूर्वोत्तर में पहुंचती रही हैं. अबकी चुनाव में कुछ ऐसे लोग भी मैदान में है जिन पर तस्करी में शामिल होने के आरोप लगते रहे हैं. कांग्रेस और एनपीएफ ने अपने चुनावी घोषणापत्र में नशीली वस्तुओं की तस्करी के मुद्दे को शामिल किया है. इसके अलावा कृषि, बेरोजगारी और भ्रष्टाचार का मुद्दा भी अहम है.