भारत में उड़ानें बढ़ीं, सुरक्षा घटी
२८ मई २०१०भारत को 14 वषों की अपनी सबसे भीषण विमान दुर्घटना पर आंसू बहाने पड़े हैं. दुर्घटना का सही कारण अभी एक पहेली है. बर्लिन के दैनिक डेअ टागेसश्पीगल का ध्यान भारत के उड्डयन मंत्री प्रफुल पटेल की इस अटकल पर गया कि विमान का विदेशी चालक रनवे पर की सही जगह पर उतरना शायद चूक गया और विमान दुबारा उठाने के प्रयास में उस पर नियंत्रण खो बैठा. पत्र का कहना थाः
"भारतीय विमान चालकों की यूनियन इस बात की आलोचना करती है कि अधिकारीगण दु्र्घटना का दोष अपनी जान खो चुके चालक के मत्थे मढ़ कर आपना काम आसान बना रहे हैं. भारत के सुरक्षा मानक ही ठीक नहीं हैं. इस उभरती हुई आर्थिक शक्ति वाले देश में हवाई यातायात वर्षों से हर साल दोहरे अंको वाली दर से बढ़ रहा है. विमान सेवाओं के बीच सस्ते टिकटों की होड़ चल रही है, जबकि हवाई यातायात संभालने की क्षमता पूरी नहीं पड़ रही है. सरकारी एयर इंडिया की सस्ती शाखा एयर इंडिया एक्सप्रेस भी बचत करने के भारी दबाव में है, हालांकि उसका सुरक्षा रेकॉर्ड अब तक बहुत अच्छा रहा है."
एड्स की रोकथाम
स्विट्ज़रलैंड में ज़्यूरिच के नोए त्स्युइरिषर त्साइटुंग का मानना है कि भारत सरकार रोकथाम के उपायों और मुफ्त उपचार की सुविधाओं के द्वारा एड्स रोग के फैलाव को प्रभावकारी ढंग से रोकने में सफल रही है. लेकिन, समाज में वह अब भी जिस तरह चुप्पी और बदनामी का विषय है, उस के कारण बीमारों की सहायता में बाधा पहुंचती है. पत्र ने लिखाः
"शीघ्र ही भारत को एक नयी समस्या से दो-चार होना पड़ेगा. एड्स के वायरस वाले उन रोगियों को, जिनका एंटी-रिट्रोवायरल उपचार होता रहा है, आजीवन ये दवाएं लेनी पड़ती हैं. लेकिन, औसतन छह से सात साल बाद इन दवाओं का उन पर कोई असर नहीं पड़ेगा, और तब उन्हें इन दवाओं की एक नयी पीढ़ी की गोलियां लेनी पड़ेंगी. इस का मतलब है कि भारत में जल्द ही दसियों हज़ार एड़्स रोगियों को एक ऐसे नये उपचार की ज़रूरत पड़ेगी, जो देश में फ़िलहाल बहुत कम जगहों पर ही उपलब्ध है. इस समय कई भारतीय कंपनियां इन दवाओं की जेनरिक कहलाने वाली सस्ती नकलें बनाती हैं, जिन के कारण हर रोगी पर हर महीने केवल साढ़े चार सौ रूपयों का ख़र्च आता है. लेकिन, उनकी दूसरी पीढ़ी की दवाओं पर हर महीने दस हज़ार रूपये लगेंगे."
हिंदूजा बंधु
भारत के चार हिंदूजा बंधुओं की भी गिनती देश के सबसे बड़े औद्योगिक घरानों में होती है. अब उन्होंने जर्मनी में म्यूनिख के मेर्क फ़िंक बैंक का भी अधिग्रहण कर लिया है. हिंदूजा बंधु उद्योगपति ही नहीं हैं, कला, संस्कृति और खेलों के संरक्षक भी हैं. फ़्रैंकफ़र्ट के फ़्रांकफ़ुर्टर अल्गेमाइने त्साइटुंग ने हिंदूजा बंधुओं को संपन्नता और उदारता का अनोखा मिश्रण बताते हुए लिखाः
"इसी कारण ये भाई एक तरफ़ तो दीन-दुखियारों के आंसू पोछते हैं और दूसरी तरफ़ 60 कमरों और 6000 वर्गमीटर जगह वाली महलों जैसी लंदन की एक सबसे आलीशान हवेली के मालिक हैं. यह हवेली अत्यंत मंहगे इलाके में महारानी का एक पुराना निवास स्थान हुआ करती थी. जैसाकि भारत में आम तौर पर होता है, हिंदूजा बंधु भी पर्दे के पीछे रह कर राजनीति के सूत्र खींचना बखूबी जानते हैं. 90 वाले दशक में उन पर बाक़ायदा आरोप लगते थे कि बोफ़ोर्स तोपों वाले सौदे की दलाली में उन्होंने 70 लाख डॉलर कमाये हैं. अतः, ज़रूरी नहीं कि हिंदूजा बंधु जो कुछ करते हैं, वह सब म्यूनिख के बहुत ही रूढ़िवादी निजी बैंक के चरित्र से मेल खाये."
मुशर्रफ़ का नया सपना
पाकिस्तान के दो-दो प्रधानमंत्रियों को देशनिकाला देने वाले और अब स्वयं निर्वासन में रह रहे पूर्व राष्ट्रपति परवेज़ मुशर्रफ़ को पाकिस्तानी राजनीति की बहुत याद आ रही है. सीएनएन के साथ एक भेंटवार्ती में जब से उन्होंने ऐसा कहा है, पाकिस्तान में खलबली मच गयी है. म्यूनिख के ज़्युइडडोएचे त्साइटुंग ने आतंकवाद के विरुद्ध लड़ाई में उनकी भूमिका को याद करते हुए लिखाः
" मुशर्रफ़ ने अमेरिका का दामन थामने का फ़ैसला किया और चालू हो गया उनका दोहरा खेल. एक तरफ़ वे अमेरिका के ऐसे परम मित्र थे, जिस की सेना के लिए बुश सरकार अरबों लुटा रही थी, दूसरी तरफ़ जनरल साहब ने इस्लामी कट्टरपंथियों के साथ मिलीभगत कर रखी थी... देश के सर्वोच्च जज ने सेना और सरकार का प्रमुख होने की उनकी दोहरी भूमिका पर उंगली उठायी, तो मुशर्रफ़ ने इमर्जेंसी लगा दी. लेकिन सत्ता से अपने पतन को वे फिर भी रोक नहीं पाये."
इसी विषय पर बर्लिनर त्साइटुंग ने लिखाः
"उन्हीं के बनाये उस क्षमादान क़ानून को, जो आसिफ़ अली ज़रदारी को और उन्हें भी सज़ा से बचने की गारंटी देता था, देश के सर्वोच्च न्यायालय ने ठुकरा दिया है. इसके अलावा, ऐसे पाकिस्तानियों ने, जिनके परिजन मुशर्रफ़ के शासन काल में ग़ायब हो गये, उनके विरुद्ध शिकायतें दर्ज करायी हैं... मुशर्रफ़ के लिए 2013 तक कोई नई पार्टी बनाना भी मुश्किल ही होगा. लेकिन, वे असैनिक राजनीतिज्ञों से पाकिस्तानियों की उसी ऊब को भुना सकने की अटकल लगा रहे हैं, जिसने 1999 में तत्कालीन प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ़ का तख्ता पलटने के बाद शुरु-शुरू में उन्हें भी लोकप्रिय बनाया था."
संकलन: प्रिया एसेलबॉर्न/राम यादव
संपादन: महेश झा