भारत चीन हमारी बात तो सुनें: सू ची
१६ दिसम्बर २०१०आजकल आपकी दिनचर्या क्या रहती है?
मेरा दिन तो बहुत बहुत व्यस्त रहता है. आज ही की बात करें तो सुबह मेरी दो तीन अपॉइंटमेंट्स थीं. फिर दोपहर में भी दो जगह जाना था. और देखिए रात हो गई है लेकिन अब भी मेरा काम खत्म नहीं हुआ है.
कैसी अपॉइंटमेंट्स होती हैं?
मैं राजनयिकों से मिल रही हूं. राजनीतिक दलों से और बाकी लोगों से मिल रही हूं. फिर हमारी पार्टी नेशनल लीग ऑफ डेमोक्रैसी की बैठकें भी होती हैं. फोन पर भी लोगों से बात होती है. उन पत्रकारों से भी मिलना होता है जो बर्मा आने में कामयाब हो गए हैं.
नजरबंदी से रिहा होने के बाद आपने शहर में सबसे बड़ा बदलाव क्या पाया?
मुझे लगता है कि मोबाइल फोन की तादाद. जैसे ही मैं बाहर निकली मैंने देखा कि लोग मोबाइल फोन से तस्वीरें ले रहे थे. इसका मतलब है कम्यूनिकेशन में सुधार हुआ है.
और बर्मा का समाज? उसमें आपने कुछ बदलाव पाए?
महंगाई बहुत बढ़ गई है और लोग इस बात को लेकर बहुत परेशान हैं. हर आदमी बढ़ती कीमतों की बात करता है. नौजवानों के नजरिए में भी काफी सुधार हुआ है. वे राजनीति प्रक्रिया का हिस्सा बनना चाहते हैं. और वे पहले से बहुत ज्यादा तेज और सक्रिय हैं.
जब आप रिहा हुईं तो बहुत सारे नौजवान आपसे मिलने आए. बर्मा के नौजवानों से आपकी क्या उम्मीदें हैं?
उन्हें समझना होगा कि देश में बदलाव उन्हीं को लाना है और उन्हें मुझ पर या एनएलडी पर निर्भर नहीं रहना है. हम अपनी तरफ से पूरी कोशिश करेंगे. लेकिन मैं चाहती हूं कि उनके अंदर इतना आत्मविश्वास पैदा हो कि वे खुद यह सब कर सकें.
आप अपनी पार्टी एनएलडी का क्या भविष्य देखती हैं?
हमारे साथ लोगों का पूरा समर्थन है इसलिए हम राजनीतिक ताकत के रूप में खड़े रहेंगे. अधिकारी हमारी पार्टी का रजिस्ट्रेशन रद्द करने की कोशिश कर रहे हैं और इसके खिलाफ मैं अदालत में भी लड़ रही हूं. लेकिन वह कानूनी मसला है. राजनीतिक सच्चाई यही है कि हमें खुद पर भरोसा है, लोग हमारे साथ हैं और यही हमें बर्मा की सबसे बड़ी विपक्षी ताकत बनाता है.
क्या आपने रिहा होने के बाद सरकार से संपर्क किया है?
नहीं, अभी तो नहीं. हालांकि अपने हर भाषण में मैं उन्हें संदेश तो दे ही रही हूं. हर इंटरव्यू में मैंने यह बात कही है कि मैं बातचीत चाहती हूं. मुझे लगता है कि हमें मतभेदों पर बात करनी चाहिए और एक समझौते पर पहुंचना चाहिए.
लेकिन आपने बातचीत को शुरू करने के लिए कोई ठोस कदम क्यों नहीं उठाया?
हम सही वक्त का इंतजार कर रहे हैं जो ज्यादा दूर नहीं है.
बर्मा में कई नस्ली अल्पसंख्यक समुदाय हैं जिनके बहुसंख्यकों से संबंध तनावपूर्ण रहे हैं. आप उन समुदायों तक कैसे पहुंचना चाहती हैं?
उनसे संपर्क की हमारी कोशिश सालों से चल रही है और मैं दावा कर सकती हूं कि हमें कामयाबी मिली है. 1990 में चुनाव लड़ने वाली पार्टियों से हमारे मजबूत संबंध हैं.
चीन के लिऊ शियाओबो को मिला शांति का नोबेल एक बड़ा विवाद बन गया है. आप खुद नोबेल जीत चुकी हैं. आप इस बारे में क्या कहेंगी?
नॉर्वे की नोबेल कमेटी की मैं इज्जत करती हूं और मुझे यकीन है कि लिऊ को पुरस्कार के लिए चुनने के पीछे अहम वजह रही होंगी. मैं तो लिऊ के बारे में ज्यादा नहीं जानती क्योंकि पिछले सात साल से मैं नजरबंद थी. जितना भी मैं जानती हूं बस रेडियो पर ही सुना है. लेकिन नोबेल कमेटी ने उन्हें चुना है तो उसके कारण होंगे.
यूरोप में लोग सोच रहे हैं कि बर्मा की मदद के लिए क्या करें. आपकी उन्हें क्या सलाह है?
पहले तो बड़ी मदद यही होगी कि सारे यूरोपीय देश एक सुर में बात करें. यूरोपीय संघ में ही अलग अलग आवाजें सुनाई देती हैं और मुझे लगता है कि इससे बर्मा का विपक्ष कमजोर होता है. अगर यूरोपीय देश मिलकर कुछ कदम उठाने के लिए मांग करें, मसलन राजनीतिक कैदियों की रिहाई, राजनीतिक प्रक्रिया में दूसरों को शामिल किया जाना और बातचीत वगैरह, तो बड़ी मदद होगी.
क्या किसी खास देश को आप ज्यादा सक्रिय देखना चाहेंगी?
आप जर्मनी से मुझसे बात कर रहे हैं तो मैं चाहूंगी कि जर्मनी ही ज्यादा सक्रिय हो.
बर्मा पर लगे प्रतिबंधों की बात करें, तो आपने कहा है कि इनके बारे में राय बनाने के लिए आपको वक्त चाहिए. आप क्या सोच रही हैं?
अब तक मुझे नहीं पता है कि अंतरराष्ट्रीय आर्थिक प्रतिबंधों ने लोगों की जिंदगी पर कितना असर डाला है. लेकिन आवाजें उठ रही हैं जिन्हें सुना जाना चाहिए. इसलिए अभी हमें सच का पता लगाना है. अभी मुझे रिहा हुए एक महीना ही हुआ है और इस मुद्दे पर मैं ज्यादा नहीं जान पाई हूं. मैं आईएमएफ और एडीबी की ताजा रिपोर्ट पढ़ने का इंतजार कर रही हूं.
बर्मा में पश्चिम का कितना असर है? और इससे तुलना करें तो आप भारत और चीन की भूमिका को कैसे देखती हैं?
मुझे लगता है कि चीन और भारत और पश्चिम की भूमिकाएं अलग अलग हैं. मैं नहीं चाहती कि इनमें प्रभाव डालने के लिए किसी तरह का मुकाबला हो. ऐसा नहीं है कि अपना भाग्य हम खुद नहीं बना सकते. लेकिन भारत और चीन हमारे नजदीकी पड़ोसी हैं, तो उन्हें बाकी देशों के मुकाबले कुछ फायदे तो हैं.
यानी पश्चिम की तरफ से बर्मा के लिए जो किया जाता है वह ज्यादा महत्वपूर्ण नहीं है?
नहीं, बिल्कुल महत्वपूर्ण है. लेकिन यह निर्भर करता है कि पश्चिम की तरफ से क्या कदम उठाए जा रहे हैं. इसीलिए मैंने पहले कहा कि पश्चिमी देश अपनी कोशिशों में समन्वय लाएं. उससे हमें ज्यादा मदद मिलेगी.
भारत और चीन से आपकी क्या उम्मीदें हैं?
हम चाहेंगे कि वे हमें प्रक्रिया का हिस्सा बनाएं. मसलन हम चाहेंगे कि भारत और चीन सबसे पहले तो हमें अपनी बात कहने का मौका दें. दोनों के साथ हमारा संपर्क बहुत सीमित है. चीन के मुकाबले भारत सरकार से हमारा संपर्क ज्यादा है. असल में चीन की सरकार से तो कोई संपर्क है ही नहीं. हम चाहते हैं कि उनसे संपर्क हो और वे हमारी बात सुनें कि हम उन्हें पड़ोसी के तौर पर कैसे देखते हैं और उनसे दोस्ती करना चाहते हैं.
आने वाले हफ्ते में आपकी क्या योजनाएं हैं?
एक इंसान है जिससे दुनिया में मुझे सबसे ज्यादा डर लगता है. वह है मेरी अपॉइंटमेंट बुक रखने वाला. बस वही बताएगा कि क्या करना है.
इंटरव्यू: थॉमस बैर्थलाइन
संपादनः वी कुमार