भाजपा का कांग्रेस जैसा आचरण
२८ मार्च २०१६भारतीय जनता पार्टी का दावा हुआ करता था कि वह सबसे अलग किस्म की पार्टी है जिसकी चाल, चरित्र और चेहरा दूसरी सभी पार्टियों से भिन्न है. उसका यह दावा भी था कि वह सार्वजनिक जीवन में शुचिता और लोकतांत्रिक मूल्यों की समर्थक है क्योंकि जब जून 1975 में इंदिरा गांधी ने देश में इमरजेंसी लगाई थी, तो उसने उसका विरोध किया था. राज्यों के अधिकारों का सम्मान, देश के संघीय ढांचे की रक्षा और सरकारिया आयोग की सिफारिशों पर अमल की भी वह अक्सर चर्चा किया करती थी. लेकिन तब वह विपक्ष में थी.
मई 2014 में केंद्र में अपने बलबूते पर सरकार बनाने के बाद से भारतीय जनता पार्टी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े अन्य संगठनों ने कुछ इस तरह का आचरण करना शुरू कर दिया है जिससे लगता है कि लोकतांत्रिक संस्थाओं और मूल्यों को ध्वस्त करना ही उनका लक्ष्य है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ‘सहयोगपरक संघवाद' के आधार पर सरकार चलाने की बात की है लेकिन उनकी सरकार की करनी इसके ठीक उलट है. जिन मुद्दों पर कभी भाजपा कांग्रेस की आलोचना किया करती थी, उन पर वह कांग्रेस जैसा ही आचरण कर रही है. कांग्रेस ने लोकतांत्रिक तरीके से चुनी हुई राज्य सरकारों को बर्खास्त करके राष्ट्रपति शासन लगाने के लिए संविधान के अनुच्छेद 356 का जमकर दुरुपयोग किया था और तब भाजपा ने उसकी आलोचना की थी. लेकिन पिछले दो सालों के दौरान मोदी सरकार भी उसी के रास्ते पर चल निकली है.
उत्तराखंड के राज्यपाल के. के. पॉल ने 28 मार्च को विधानसभा में मुख्यमंत्री हरीश रावत के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार को अपना बहुमत सिद्ध करने का निर्देश दिया था. लेकिन रविवार को अचानक उन्होंने केंद्र सरकार को रिपोर्ट भेजकर राज्य में राष्ट्रपति शासन लगाए जाने की सिफ़ारिश कर डाली जिसे केन्द्रीय मंत्रिमंडल ने बिना कोई देर किए स्वीकार भी कर लिया और राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने इस संबंध में आदेश पर हस्ताक्षर भी कर दिये. राष्ट्रपति शासन लगाने के लिए राज्यपाल को इस निष्कर्ष पर पहुंचना होता है कि राज्य में कानून-व्यवस्था पूरी तरह से चरमरा चुकी है और संविधान के अनुसार शासन चलाना असंभव हो गया है. लेकिन उत्तराखंड में तो ऐसा कुछ नजर नहीं आया. राज्यपाल के इस कदम से एक बार फिर इस आरोप में जान पड़ गई है कि अक्सर राज्यपाल संवैधानिक पद की गरिमा के अनुरूप स्वतंत्र एवं निष्पक्ष ढंग से काम न करके केंद्र सरकार के एजेंट की तरह काम करते हैं.
दरअसल उत्तराखंड के राजनीतिक संकट के पीछे कांग्रेस के कुछ विधायकों का विद्रोह है. उन्हें भाजपा का समर्थन प्राप्त है. शनिवार को विधानसभा अध्यक्ष ने दलबदल-विरोधी कानून के तहत इन नौ विधायकों की सदस्यता समाप्त कर दी थी. भाजपा का कहना है कि रावत सरकार अल्पमत में आ चुकी थी. लेकिन सुप्रीम कोर्ट द्वारा बोम्मई केस में दी गई कानूनी व्यवस्था यह है कि सरकार के बहुमत का फैसला केवल विधानसभा में ही हो सकता है. सवाल यह है कि रावत सरकार को अपना बहुमत सिद्ध करने का मौका क्यों नहीं दिया गया? जनवरी में अरुणाचल प्रदेश में भी राष्ट्रपति शासन लगा कर कांग्रेस सरकार को हटाया गया था और उसके विद्रोही विधायक को भाजपा के समर्थन से मुख्यमंत्री बनाया गया था. अब उत्तराखंड में भी यही कहानी दुहराई जा रही है.
उत्तराखंड में यूं भी एक साल बाद चुनाव होने हैं. अचरज की बात यह है कि भाजपा तब तक भी इंतजार नहीं कर पायी और उसने कांग्रेस सरकार गिराकर उसे जनता की हमदर्दी हासिल करने का मौका दे दिया. रावत सरकार बहुत लोकप्रिय नहीं थी और अगले साल चुनाव में भाजपा उसे शिकस्त दे सकती थी. लेकिन उसने लोकतंत्रविरोधी रास्ता अपनाना बेहतर समझा. सत्ता में आने के तुरंत बाद ही उसने ओडीशा में नवीन पटनायक सरकार को भी अस्थिर करने की कोशिश की थी जो नाकाम रही थी. दिल्ली और बिहार की हार से भी लगता है उसने कोई सबक नहीं सीखा है. शायद उसे वित्त मंत्री अरुण जेटली के इस दावे पर ज्यादा भरोसा है कि भाजपा ने राष्ट्रवाद बनाम राष्ट्रद्रोह की बहस जीत ली है. लेकिन पिछला इतिहास बताता है कि भारत का मतदाता खामोशी से सब कुछ देखता-सहता रहता है और मतदान के जरिये अपने आक्रोश का इजहार करता है. पश्चिम बंगाल, असम, केरल, और उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में उसके फैसले पर भाजपा की इन कारगुजारियों का क्या असर पड़ता है, देखना दिलचस्प होगा.
ब्लॉग: कुलदीप कुमार