बिहार में गैंगरेप पीड़िता ही भेज दी गई जेल
१७ जुलाई २०२०इस मामले को लेकर देश के जाने-माने 376 वकीलों एवं कई सामाजिक संस्थाओं व कार्यकर्ताओं ने पटना हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश को पत्र लिखकर मामले में हस्तक्षेप करने को कहा है. इन पर संज्ञान लेते हुए हाईकोर्ट ने इन पत्रों को जनहित याचिका (पीआइएल) में बदल दिया है. ऐसा शायद ही सुनने में आया हो कि किसी दुष्कर्म पीड़िता को न्याय दिलाने के बजाए उसे ही जेल भेज दिया गया हो. अररिया जिले में यह घटना उस समय हुई जब सामूहिक बलात्कार की शिकार 22 वर्षीया युवती धारा 164 का बयान दर्ज कराने आई थी. पीड़िता के साथ जनजागरण शक्ति संगठन की दो सहयोगियों को भी जेल भेजा गया है. अब इन्हें जेल से रिहा कराने के लिए देशभर के सामाजिक संगठनों व जाने-माने अधिवक्ताओं ने पहल की है. अररिया नगर थाना क्षेत्र में सामूहिक बलात्कार की यह घटना छह जुलाई को हुई.
पीड़ित युवती ने अगले दिन यानी सात जुलाई को अररिया महिला थाने में कांड संख्या 59/2020 के तहत एफआइआर दर्ज कराई, जिसमें कहा गया है कि साहिल नामक एक युवक से उसकी पुरानी जान-पहचान थी. उसने छह जुलाई को बाइक सिखाने के बहाने सुनसान जगह में ले जाकर तीन अन्य दोस्तों के साथ उससे सामूहिक बलात्कार किया. इसके बाद साहिल ने उसे एक नहर के पास अकेला छोड़ दिया. इसके बाद उसने सात जुलाई को इसकी एफआइआर दर्ज कराई. पुलिस ने त्वरित कार्रवाई करते हुए मुख्य आरोपी को गिरफ्तार कर जेल भी भेज दिया. इसी मामले में 10 जुलाई को वह स्थानीय अदालत में जन जागरण शक्ति संगठन की दो सहयोगियों के साथ अपना बयान दर्ज कराने आई थी.
पीड़िता और साथी भेजे गए 240 किमी दूर की जेल
पटना हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश व अन्य जजों को 15 जुलाई, 2020 को भेजे गए पत्र में देशभर के 376 अधिवक्ताओं ने कहा है कि हमें बिहार के अररिया जिले में छह जुलाई को बलात्कार की शिकार हुई 22 वर्षीया युवती व उसके दो मददगारों के संबंध में बहुत ही विचलित करने वाला समाचार प्राप्त हुआ है जिसके अनुसार धारा 164 के तहत बयान दर्ज कराने आई पीड़ित युवती व उसके दो सहयोगियों को उसकी मनोदशा को संवेदनशीलता के साथ देखे बिना अदालत की अवमानना के आरोप में माननीय विद्वान मजिस्ट्रेट द्वारा न्यायिक हिरासत में लेने का निर्देश जारी किया गया. तीनों को न्यायिक हिरासत में लेकर वहां से 240 किलोमीटर दूर दलसिंहसराय जेल भेज दिया गया.
पत्र में वकीलों ने कहा है कि 10 जुलाई को बयान दर्ज कराने के दिन पीड़ित युवती मानसिक तौर पर बहुत तनाव में थी. उस दिन उसने सबेरे से कुछ खाया-पीया भी नहीं था. दुष्कर्म की पीड़ा के कारण वह कुछ दिनों से सो भी नहीं पा रही थी. इसी दौरान उसे बार-बार पुलिस व अन्य लोगों को अपने साथ हुई घटना को बताना पड़ रहा था. उसकी इस नाजुक स्थिति को संवेदनशीलता के साथ देखने की जरूरत थी. इनकी मनोदशा को समझने के बजाए तीनों को जेल भेज दिया गया. यह भी उल्लेखनीय है कि सामूहिक बलात्कार का शिकार होने के बावजूद पीड़ित युवती का कोरोना टेस्ट नहीं कराया गया. न्यायिक कार्रवाई के घंटे भर के अंदर पिता के नाम के साथ पीड़िता का विवरण व पूरा पता भी इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को बता दिया गया. ऐसी ही एक रिपोर्ट में रिपोर्टर कोर्ट क्लर्क के साथ फाइलिंग सेक्शन में बैठा दिखाई दिया.
आम लोगों के लिए कठिन भारत की न्याय व्यवस्था
11 जुलाई की सुबह तक किसी स्थानीय समाचार पत्र में प्रकाशित खबर में अदालत की अवमानना में एफआइआर दर्ज होने का जिक्र नहीं था लेकिन 11 जुलाई की दोपहर 12.30 बजे दो गवाहों से ब्लैंक फार्म (मेमो) पर हस्ताक्षर ले लिया जाता है और फिर अदालत की अवमानना के आरोप में अररिया महिला थाना में कांड संख्या 61/2020 दर्ज कर दिया जाता है. एफआइआर में धारा 353 का भी जिक्र है जबकि पीड़िता का केवल यही कहना था कि धारा 164 के तहत दिया गया उसका बयान उसके दो मददगारों द्वारा पढ़ा जाए क्योंकि उसे अदालत की बातें समझ में नहीं आ रहीं. एफआइआर में धारा 228 व धारा 188 भी लगाई गई हैं. दोनों ही धाराएं जमानती हैं. लेकिन तीनों को अदालत में पेश किया गया और न्यायिक हिरासत में लेकर 240 किलोमीटर दूर दलसिंहसराय जेल भेज दिया गया.
अधिवक्ताओं ने कहा है कि हम मानते हैं कि जिस मनोदशा में उन्हें जेल भेजा गया वह ज्यादती है. इनकी स्थिति को संवेदनशीलता से नहीं देखा गया. हमें डर है कि अपने मददगारों से अलग होना और जेल भेजा जाना पीड़िता के स्वास्थ्य पर कहीं प्रतिकूल प्रभाव न डाले. यह भी देखा गया है कि सामूहिक बलात्कार के मूल मामले (59/2020) की जगह अदालत की अवमानना के मामले पर ही ध्यान दिया जा रहा है. इसलिए हम सबों की माननीय उच्च न्यायालय से दरख्वास्त है कि इस मामले में हस्तक्षेप किया जाए जिसमें संवेदनशीलता को पूर्णतया दरकिनार कर दिया गया है. इस पत्र पर सुप्रीम कोर्ट की वरिष्ठ अधिवक्ता इंदिरा जयसिंह, अधिवक्ता प्रशांत भूषण, वृंदा ग्रोवर, रेबेका जॉन, मुंबई हाईकोर्ट की वरीय अधिवक्ता गायत्री सिंह व पटना हाईकोर्ट के वरिष्ठ अधिवक्ता बसंत कुमार चौधरी समेत 376 वकीलों के हस्ताक्षर हैं.
हाईकोर्ट लिया संज्ञान, पत्र पीआइएल में तब्दील
देशभर के अधिवक्ताओं व अन्य सामाजिक संगठनों व कार्यकर्ताओं के पत्र पर संज्ञान लेते हुए पटना हाईकोर्ट ने इसे जनहित याचिका में तब्दील कर दिया है. मुख्य न्यायाधीश संजय करोल ने अररिया के जिला व सत्र न्यायाधीश से पूरे प्रकरण की रपट तलब करते हुए बीते गुरुवार को सुनवाई का निर्देश जारी कर दिया. इस मामले पर न्यायाधीश दिनेश कुमार सिंह की अध्यक्षता वाली दो सदस्यीय खंडपीठ को सुनवाई करनी थी लेकिन इस खंडपीठ के स्थगित रहने के कारण इसे न्यायाधीश हेमंत कुमार श्रीवास्तव की बेंच में भेजा गया. किंतु गुरुवार को सुनवाई नहीं हो सकी. इसके बाद शुक्रवार को सुनवाई तय की गई लेकिन शुक्रवार को भी सुनवाई टल गई. वहीं निचली अदालतें कोरोना व लॉकडाउन के कारण बंद हैं इसलिए अररिया में भी इस मामले में सुनवाई नहीं हो सकी है.
इस पूरे प्रकरण पर अररिया की सामाजिक संस्था जन जागरण शक्ति संगठन के सचिव आशीष रंजन झा ने न्यूज एजेंसियों से कहा,"छह जुलाई को मोटरसाइकिल सीखने गई युवती के साथ सामूहिक दुष्कर्म की घटना हुई और उसके एक दिन बाद एफआइआर दर्ज हुआ. संस्थान के कार्यकर्ता उसके घर पहुंचे और उसके अभिभावकों को न्याय के लिए लड़ने के दौरान साथ देने का भरोसा दिलाया. दस जुलाई को हमारी सहयोगी कल्याणी बडोला और तन्मय निवेदिता पीड़ित युवती के साथ मजिस्ट्रेट के समक्ष उसका बयान दर्ज कराने गईं. बयान दर्ज कराने के दौरान कुछ गलतफहमी व संवादहीनता के कारण थोड़ी असहज स्थिति उत्पन्न हो गई." वहीं पुलिस सूत्रों के अनुसार तीनों के खिलाफ दर्ज अदालत की अवमानना संबंधी एफआइआर में कहा गया है कि कोर्ट में दर्ज कराए गए बयान पर हस्ताक्षर करने समय पीड़िता उत्तेजित हो गई और कल्याणी एवं निवेदिता को बुलाने और उनसे बयान पढ़वाने की जिद करने लगी. उन दोनों ने भी बयान की प्रतिलिपि मांगी लेकिन कानूनी पाबंदी के चलते ऐसा करना संभव नहीं हो सका. इसी दौरान कहासुनी हुई और मजिस्ट्रेट ने कोर्ट स्टाफ को अदालत की अवमानना और आइपीसी की धारा के तहत कार्य में बाधा डालने संबंधी प्राथमिकी दर्ज करने का निर्देश दिया.
महिला आयोग ने भी किया हस्तक्षेप
इसके बाद पेशकार राजीव रंजन सिन्हा ने अररिया महिला थाना में मामला (61/2020) दर्ज कराया. इसके बाद तीनों को समस्तीपुर जिले की दलसिंहसराय जेल भेज दिया गया. इस संबंध में जन जागरण शक्ति संगठन की कामायनी स्वामी कहती हैं, "देशभर की 63 संस्थाओं समेत करीब सात हजार गणमान्य लोगों ने पटना हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश को पत्र लिखकर पीडि़ता व उसकी दोनों मददगारों को जेल से रिहा करने और त्वरित गति से न्यायिक प्रक्रिया संचालित कर दुष्कर्म पीड़िता को न्याय दिलाने की गुहार लगाई है.
राष्ट्रीय महिला आयोग ने भी मामले का संज्ञान लेते हुए पीड़ितों की सुरक्षा के प्रति चिंता जाहिर की है. इस संबंध में आयोग ने पटना उच्च न्यायालय के रजिस्ट्रार जनरल को भी पत्र लिखा है." उन्होंने कहा, "हमें देश की न्यायिक व्यवस्था पर पूरा भरोसा है. उम्मीद है कि तीनों को न्याय मिलेगा और अदालत उन्हें सभी आरोपों से बरी करेगी. हालांकि हमारी कोशिश होगी कि यथोचित फोरम पर बातों को संज्ञान में लाया जाए ताकि बलात्कार जैसे जघन्य अपराध से पीड़ित महिलाओं के प्रति संवेदना के साथ न्याय किया जा सके." वहीं बिहार राज्य महिला आयोग की अध्यक्ष दिलमणी मिश्रा ने भी इस मामले का संज्ञान लेते हुए कहा, "यह दुखद है. आखिर पीड़िता व उसके मददगारों ने ऐसा क्या कह दिया कि उन्हें जेल भेजने की नौबत आ गई. पूरे प्रकरण पर जानकारी तलब की गई है."
नहीं रुक रहे भारत में महिलाओं के खिलाफ अपराध
यह तो जांच का विषय है कि सामूहिक दुष्कर्म पीड़िता पर कथित आरोप सत्य है या नहीं. अगर यह सत्य भी है तो इतना तो परिहार्य है कि पीड़िता की मनोदशा को देखते हुए संवेदना के साथ कोई निर्णय लिया जाना चाहिए. हो सकता है कि कानून के जानकारों में अदालती निर्देश को लेकर विवाद हो. किंतु इस सच्चाई से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि पुलिसिया जांच प्रणाली और न्यायिक व्यवस्था की कतिपय खामियों के चलते पीड़िता न्याय मिलने तक सशंकित व प्रताड़ित महसूस करती हैं.
भारत के नेशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो के अनुसार भारत में हर पंद्रह मिनट पर बलात्कार की घटना होती है. महिलाओं के सशक्तिकरण के कई अभियानों के बावजूद 2018 में महिलाओं के खिलाफ होने वाले अपराधों में 2017 के मुकाबले काफी वृद्धि हुई है. प्रति 10,000 महिलाओं के साथ हुए अपराध की दर 2017 के 57.9 फीसदी के मुकाबले बढ़कर 58.8 फीसदी हो गई. नेशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो के अनुसार 2017 में बलात्कार के 32,500 मामले दर्ज हुए थे जिसका मतलब हर दिन 90 बलात्कार है. अदालतों ने उस साल सिर्फ 18,300 मामलों में फैसला सुनाया. साल के अंत में 127,800 मामले लंबित थे. बलात्कारों के मामले में पुलिस जांच में खामियों और अदालती फैसले न होने की वजह समाज की पितृसत्तात्मक संरचना को माना जाता है.
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