शहरी पड़ोस का बदलता स्वरूप
२५ जुलाई २०२०शहरीकरण के नए प्रयोगों के लिहाज से बेंगलुरु शायद हिंदुस्तान का सबसे उन्नत शहर है. एक चालू हेलीकॉप्टर टैक्सी सेवा अभी भी शायद पूरे भारत में सिर्फ इसी एक शहर में है. एक ऐप के जरिए एक व्यक्ति को कहीं भी भेजकर अपने लिए कोई भी सामान मंगवाने की सेवा के बारे में भी मैंने सबसे पहले बेंगलुरु में ही जाना था. सुविधाओं के अलावा बढ़ते शहरीकरण के और भी पहलू हैं. बेंगलुरु की आधुनिक और सभी सुविधाओं से सुसज्जित रिहाइशी सोसाइटियों में तेजी से फैल रहे एक नए ट्रेंड ने हाल ही में मेरा ध्यान अपनी तरफ खींचा. इसी तरह की एक सोसाइटी में मेरी पत्नी के भाई का एक फ्लैट है जिससे जुड़े सारे अपडेट उसे सोसाइटी के व्हाट्सऐप ग्रुप पर दिल्ली में बैठे बैठे मिलते रहते हैं.
उसी ग्रुप पर हाल ही में आया एक अपडेट उसने मुझे दिखाया. सोसाइटी के ही किसी फ्लैट में रहने वाली एक महिला ने सोसाइटी में रहने वाले सभी लोगों के नाम ग्रुप पर एक संदेश भेजा था, "सब को हेलो! हमारी वीकेंड रसोई में आप सबका स्वागत है. शनिवार के डिनर के लिए मैं बना रही हूं: चिकेन अफगानी-250 रुपए प्रति प्लेट (पांच पीस), चपाती-50 रुपए की पांच, परांठे-50 रुपए के चार पीस. जिन्हें इसमें रूचि है वो कृपया मुझे व्यक्तिगत रूप से संदेश भेज कर शाम पांच बजे से पहले अपना आर्डर दे दें. आप अपना आर्डर शाम आठ बजे प्राप्त कर सकते हैं (स्माइली)."
आम है पड़ोसियों से ऑर्डर लेना
पता चला ऐसा संदेश ग्रुप पर पहली बार नहीं आया है. हर वीकेंड पर कोई ना कोई ग्रुप पर विशेष खाना बनाने की जानकारी देता है और सोसाइटी में रहने वाले अपनी ही पड़ोसियों से खाने के आर्डर की अपेक्षा करता है. आर्डर मिल भी जाते हैं. खाना पकाने वाले की पांचों उंगलियां घी में. स्वादिष्ट खाना खुद तो पका कर खाना ही था, पड़ोसियों से पैसे लेकर थोड़ा अतिरिक्त पका दिया. पड़ोसियों को भी बिना पकाने की मेहनत किए और बिना महंगे रेस्तरां गए कम दाम में स्वादिष्ट भोजन मिल गया. सबके फायदे की बात.
जाने क्यों मुझे ही इसमें फायदा नजर नहीं आया. याद आ गई उन दिनों की जब अचानक घर में शक्कर खत्म होने पर बेझिझक पड़ोसियों से मांग ली जाती थी. जब अपने प्रांत का कोई विशेष व्यंजन घर में पकाया तो थोड़ा किसी प्रिय पड़ोसी के साथ भी साझा किया जाता था. व्यंजनों की अदला-बदली के बीच कुछ बर्तन पड़ोसियों के घरों के बीच घूमते रहते थे. किचन में पड़ा पड़ोसी का खाली भगोना याद दिलाता था कि उनके घर से आई स्वादिष्ट पीली दाल भगोना पोंछ-पोंछ कर खा ली थी और अब उनके घर कुछ स्वादिष्ट बना कर भेजने का समय हो गया है.
नई हकीकत और पुरानी यादें
बेंगलुरु की 'आर्डर' संस्कृति के इस उदाहरण ने मेरी स्मृति में बसे पकवानों की अदला-बदली की बुनियाद पर बने पड़ोस के रिश्तों की कुछ मीठी, कुछ नमकीन यादों का स्वाद खट्टा कर दिया. मुझे यूं लगा जैसे किसी ने आपसी रिश्तों के मीठे से हल्वे में पूंजीवाद की तीखी मिर्च मिला दी हो. 'आर्डर' संस्कृति के पनपने का मतलब है कि शायद अब पड़ोसियों से पकवान साझा नहीं किए जाते, उनसे स्विग्गी या जोमैटो की तरह 'आर्डर' लिया जाता है और पक जाने पर 'पैक' करके बेच दिया जाता है. जो कभी पड़ोस का फ्लैट था वो अब बाजार हो गया है और जो कभी पड़ोसी थे वो अब ग्राहक हो गए हैं.
शहर वैसे भी अकेलेपन का अड्डा होते है. रिश्ते-नाते तो हमलोग गांव में ही छोड़ आए. शुरू में पड़ोसियों को ही रिश्तेदार बनाया था. अब ग्राहक बना रहे हैं. हां, गिलास को आधा भरा देखने वाली दृष्टि से देखें तो यह स्थिति फिर भी बेहतर है. आम तौर पर आज का शहरी पड़ोस किसी बस या लोकल ट्रेन जैसा ही होता है जिसमें लोग एक साथ होने के बावजूद एक दूसरे को जानते नहीं हैं. इस लिहाज से अगर देखें तो पड़ोसी अजनबी हो, इससे बेहतर है कि वो 'ग्राहक' ही हो जाए. कम से कम हम एक-दूसरे से अंजान तो नहीं रहेंगे.
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