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विवाद

बंगाल मॉडल दिखा सकता है माओवाद से निपटने की राह

प्रभाकर मणि तिवारी
१३ मई २०१७

सुकमा में माओवादी हमले में दो दर्जन से ज्यादा सीआरपीएफ जवानों की मौत के बाद माओवाद की समस्या एक बार फिर सुर्खियों में हैं. इस बीच, ममता बनर्जी ने दावा किया है कि इस मामले में केंद्र सरकार बंगाल मॉडल से सीख ले सकती है.

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Indien Maoisten
तस्वीर: picture-alliance/AP Photo/M. Quraishi

इस मुद्दे पर केंद्र ने दिल्ली में तमाम माओवाद-प्रबावित राज्यों के मुख्यमंत्रियों की बैठक बुलाई ताकि माओवादियों से निपटने की कोई ठोस रणनीति ईजाद की जा सके. लेकिन इस बैठक से भी कोई ठोस रणनीति सामने नहीं आई.

केंद्र में सरकार चाहे कांग्रेस की रही हो या बीजेपी की, माओवाद की समस्या जस की तस ही रही है. खासकर छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र और आंध्र प्रदेश की सीमा पर बसे बस्तर इलाके में तो तमाम कोशिशों के बावजूद अब तक इस समस्या पर कोई अंकुश नहीं लग सका है. इस बीच छत्तीसगढ़ में भी सरकारें तो बदलीं, लेकिन किसी ने माओवाद की समस्या पर अंकुश लगाने के लिए कोई असरदार रणनीति नहीं अपनाई. नतीजा सामने है. माओवादी जब चाहे तब सुरक्षा बल के जवानों को घेर कर गोलियों से भुन देते हैं. लेकिन जवाबी कार्रवाई में सुरक्षा बलों को अब तक कोई बड़ी कामयाबी हाथ नहीं लगी है. सुरक्षा बल के जवान मुठभेड़ में जिन माओवादियों को मार गिराने का दावा करते हैं उन पर भी अक्सर विवाद खड़ा हो जाता है. कई मामलों में इस लड़ाई में बेकसूर गांव वालों को ही जान से हाथ धोना पड़ता है. कल की बैठक में भी सबसे ज्यादा चर्चा छत्तीसगढ़ की ही हुई. बीते दिनों हुए हमलों से साफ है कि देश में फिलहाल यही राज्य इस समस्या से सबसे ज्यादा प्रभावित है. अब केंद्र ने दूसरे राज्यों में तैनात सुरक्षा बलों को भी माओवादियों से निपटने के लिए छत्तीसगढ़ भेजने का फैसला किया है.

छत्तीसगढ़ के हमलों से खुफिया एजंसियों की नाकामी और राज्य पुलिस और केंद्रीय बलों के बीच तालमेल की कमी का मुद्दा भी सामने आया है. केंद्रीय गृह मंत्री राजनाथ सिंह भी यह बात कबूल करते हैं. वह कहते हैं, "सुकमा में जिस पैमाने पर हमला हुआ उसकी पहले से कल्पना तक नहीं थी." सिंह मानते हैं कि बस्तर और सुकमा इलाकों से खुफिया सूचनाएं नहीं मिल पातीं. उन्होंने बैठक में खुफिया सूचनाएं जुटाने और सुरक्षा बलों के बीच आपसी तालमेल बढ़ाने के साथ संचार प्रणाली को और उन्नत करने का भी प्रस्ताव दिया है. केंद्रीय गृह मंत्री का दावा है कि नोटबंदी के बाद माओवादियों को हथियार खरीदने के लिए पैसे जुटाने में भारी दिक्कत हो रही है. हथियार जुटाने के लिए ही सुरक्षा बलों पर इस बड़े पैमाने पर सुनियोजित तरीके से हमले किए जा रहे हैं.

बंगाल मॉडल

पश्चिम बंगाल में भी खासकर झारखंड से सटे तीन जिलों में वर्ष 2010 तक माओवाद की समस्या काफी गंभीर थी. स्थानीय लोगों की सहानुभूति और समर्थन की वजह से सुरक्षा बलों को माओवादी गतिविधियों की कोई सूचना नहीं मिल पाती थी और किसी बड़ी वारदात के बाद वह लोग सीमा पार कर झारखंड के जंगल में स्थित शिविरों में छिप जाते थे. ममता बनर्जी ने वर्ष 2011 में सत्ता में आने के बाद इलाके में शांति बहाल करने की रणनीति के तहत पहले माओवादियों का जनाधार खत्म करने की मुहिम शुरू की. इसके तहत विकास से कोसों दूर रहे ग्रामीण इलाकों में एकमुश्त सैकड़ों परियोजनाएं शुरू की गईं. इलाके में आधारभूत ढांचा भी नहीं के बराबर था. सरकार ने वहां आधारभूत ढांचा विकसित करने के लिए तमाम परियोजनाएं शुरू कीं. इसके साथ ही हथियार डालने वाले माओवादियों को मुख्यधारा में शामिल करने के लिए सरकार ने पुनर्वास पैकेज का एलान किया. इसके तहत ऐसे काडरों को पुलिस और होमगार्ड में नौकरियां दी गईं. ममता कहती हैं, "माओवाद पिछड़ेपन की गोद में ही फलता-फूलता है. इसलिए सरकार ने पहले इलाके में आधारभूत ढांचा विकसित करने पर जोर दिया. उसके बाद बेहतर पुनर्वास पैकेज की वजह से सैकड़ों माओवादियों ने हथियार डाल दिए." वह कहती हैं कि इस मॉडल को अपना कर दूसरे राज्यों में भी इस समस्या पर काफी हद तक अंकुश लगाया जा सकता है.

दूसरे राज्यों की समस्या

लेकिन बंगाल में इस रणनीति से माओवादियों के खिलाफ मिली कामयाबी के बावजूद दूसरे राज्य इस मॉडल को क्यों नहीं अपना रहे हैं और वहां इस समस्या से निपटने में कामयाबी क्यों नहीं मिल रही है. राजनीतिक पर्यवेक्षकों का कहना है कि बंगाल मॉडल की कामयाबी के लिए राजनीतिक इच्छाशक्ति के साथ ही कई मोर्चों पर एक साथ काम करने की रणनीति जरूरी है. माओवादी स्थानीय लोगों के सहयोग और समर्थन के चलते ही सुरक्षा बलों की निगाहों से बचे रहते हैं. पहले उनको गांव वालों से काटना जरूरी है. राजनीतिक पर्यवेक्षक अनिल मरांडी कहते हैं, "बंगाल के माओवाद प्रभावित इलाकों में विकास योजनाओं के जरिए ममता बनर्जी ने पहले गांव वालों को माओवादियों से दूर किया. उसके बाद ही सरकार को इस समस्या से निपटने में कामयाबी मिली." वह कहते हैं कि गांव वालों को काटने के बाद बड़े पैमाने पर आधारभूत ढांचा मुहैया कराने और खुफिया सूचनाओं का आदान-प्रदान बढ़ा कर माओवादियों के खिलाफ लड़ाई में जीत हासिल की जा सकती है. इसके साथ ही राज्य पुलिस और केंद्रीय बलों के बीच बेहतर तालमेल जरूरी है. पर्यवेक्षकों का कहना है कि केंद्रीय बलों पर स्थानीय लोगों पर अत्याचार के आरोप भी लगते रहे हैं. उसके जवानों को अपनी यह छवि सुधारनी होगी. उसके बाद ही गांव वालों का भरोसा हासिल किया जा सकता है. खासकर छत्तीसगढ़ जैसे जंगल से भरे इलाके में सड़कों, स्कूलों और अस्पतालों का बड़े पैमाने पर निर्माण जरूरी है.

लेकिन इसके लिए सबसे पहले जरूरी है एक ठोस रणनीति और केंद्र व संबंधित राज्य सरकारों की इच्छाशक्ति. महज सुरक्षा बलों की तादाद बढ़ा कर इस समस्या से निपटना संभव नहीं है. दिलचस्प बात यह है कि तमाम सरकारें और शीर्ष नेता भी मानते हैं कि माओवाद के खिलाफ जारी जंग को हथियारों से नहीं जीता जा सकता. इसे एक सामाजिक-आर्थिक समस्या के तौर पर देखते हुए इससे निपटने की सही रणनीति तैयार करनी चाहिए. लेकिन हकीकत में होता इसका ठीक उल्टा है. यही वजह है कि देश के विभिन्न राज्यों में यह समस्या कम होने की बजाय लगातार बढ़ती जा रही है.

(बारूदी सुरंगों की विरासत कब होगी खत्म)

 

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