पूर्वोत्तर में ढहा कांग्रेस का आखिरी किला
११ दिसम्बर २०१८इलाके के सात राज्यों में से तीन तो ईसाई-बहुल हैं, लेकिन वहां भी पार्टी की सरकारें रहीं. इस साल की शुरुआत में उसे नागालैंड और मेघालय में सत्ता से हाथ धोना पड़ा था. मिजोरम में कांग्रेस और उसके मुख्यमंत्री ललथनहवला को हैट्रिक की उम्मीद थी. लेकिन वहां उसे अपने पारंपरिक प्रतिद्वंद्वी (एमएनएफ) के हाथों करारी हार का सामना करना पड़ा है. खुद ललथनहवला दोनों सीटों से चुनाव हार गए. वैसे, बीजेपी ने लगभग तीन साल पहले ही पूर्वोत्तर को कांग्रेसमुक्त करने का नारा दिया था. लेकिन मिजोरम में वह कुछ खास नहीं कर सकी.
अंत की शुरुआत
दरअसल, आजादी के बाद से ज्यादातर समय तक सभी सातों राज्यों पर राज करने वाली कांग्रेस के पैरों तले जमीन खिसकने का सिलसिला लगभग एक दशक पहले ही शुरू हो गया था. अरुणाचल प्रदेश और इलाके के कुछ अन्य राज्यों में क्षेत्रीय दलों के बढ़ते वर्चस्व और पूरी सरकार के पाला बदलने (अरुणाचल प्रदेश के मामले में) की वजह से कांग्रेस धीरे-धीरे हाशिए पर जाने लगी थी. बावजूद इसके उसने इलाके के सबसे बड़े राज्य असम के अलावा पड़ोसी मेघालय और नागालैंड पर अपनी पकड़ बनाए रखी थी. लेकिन दो साल पहले हुए विधानसभा चुनावों में पहले असम उसके हाथों से निकला और फिर इस साल मेघालय और नागालैंड.
दरअसल इलाके में कांग्रेस के पतन की कई ठोस वजहें हैं और यह कोई एक दिन में नहीं बनीं. लेकिन शीर्ष नेतृत्व और स्थानीय नेता इन वजहों पर ध्यान देकर उनको दूर करने की बजाय अपनी जेबें भरने में ही ज्यादा मशगूल रहे. कांग्रेस के लंबे शासन के दौरान इलाके के ज्यादातर राज्यों में विकास के नाम पर कोई काम नहीं हुआ. न तो आधारभूत ढांचे को मजबूत करने की दिशा में कोई काम हुआ और न ही उग्रवाद पर काबू पाने की दिशा में. इसके अलावा इस दौरान बड़े पैमाने पर भाई-भतीजावाद और भ्रष्टाचार का पनपना भी उसकी लुटिया डुबने की प्रमुख वजह रही. असम समेत तमाम राज्य आजादी के बाद से ही पिछड़ेपन के शिकार रहे हैं.
इन राज्यों के साथ लंबे अरसे तक केंद्र में भी पार्टी की सरकार रहने के बावजूद इस इलाके को हमेशा उपेक्षित ही रखा गया. नतीजतन बेरोजगारी, घुसपैठ और गरीबी बढ़ती रही. नतीजतन युवकों में पनपी हताशा और आक्रोश ने उग्रवाद की शक्ल ले ली. उग्रवाद की वजह से इलाके में अब तक न तो कोई उद्योग-धंधा लगा और न ही विकास परियोजनाओं पर अमल किया गया. उग्रवाद की आड़ में कांग्रेस सरकारों की तमाम नाकामियां छिपती रहीं. मिजोरम में तो लोग दस-दस साल के अंतराल पर कांग्रेस को मौका देते रहे. लेकिन वहां भी विकास के नाम पर कोई काम नहीं हुआ. नतीजा अबकी कांग्रेस की पराजय के तौर पर सामने आया है.
उपेक्षित रहा इलाका
दरअसल, आजादी के बाद से ही पूरा पूर्वोत्तर इलाका उपेक्षित रहा है. कांग्रेस के केंद्रीय नेतृत्व ने भी कभी इलाके के विकास में खास दिलचस्पी नहीं ली थी. राजनीतिक पर्यवेक्षक टीआर साइलो कहते हैं, "केंद्रीय परियोजनाओं के नाम पर आने वाली करोड़ों के रकम भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ती रही. इलाके के दुर्गम होने और विभिन्न एजेंसियों की उपेक्षा के साथ मुख्यधारा की मीडिया की कोई दिलचस्पी नहीं होने की वजह से पूर्वोत्तर में बड़े पैमाने पर होने वाले भ्रष्टाचार की ओर देश के बाकी हिस्से का ध्यान नहीं गया था.” लगातार उपेक्षा, पिछड़ेपन, नौकरी व रोजगार के अवसरों की भारी कमी औऱ अमीरों और गरीबों के बीच बढ़ती खाई की वजह से धीरे-धीरे आम लोगों का इस राष्ट्रीय पार्टी से मोहभंग होने लगा.
चुनाव दर चुनाव लगातार होने वाली दुर्गति के बावजूद केंद्रीय नेतृत्व की नींद नहीं टूटी. इसका नतीजा अब सामने है. साइलो कहते हैं, "केंद्र और राज्य में शासन चलाने वाली कांग्रेस के उपेक्षित रवैये की वजह से पूर्वोत्तर और देश के बाकी हिस्सों के बीच की खाई लगातार बढ़ती रही. देश के दूसरे हिस्सों में पढ़ाई या रोजगार के लिए जाने वाले लोगों के साथ सौतेले व्यवहार ने भी कांग्रेस से आम लोगों को दूर करने में अहम भूमिका निभाई.” वह कहते हैं कि इलाके के लोग खुद को अलग-थलग महसूस करते रहे. लेकिन कांग्रेस ने कभी इस खाई को पाटने का प्रयास नहीं किया.
क्षेत्रीय दलों का उदय
राजनीतिक पर्यवेक्षकों का कहना है कि कांग्रेस के रवैये की वजह से ही इलाके के तमाम राज्यों में क्षेत्रीय पार्टियों का उदय हुआ और वह कांग्रेस को चुनौती देने की स्थिति में पहुंच गए. इन दलों की स्थापना करने वाले नेता वही थे जो पहले कांग्रेस में थे. लेकिन लोगों का मूड भांप कर उन्होंने कांग्रेस से अलग होकर नई पार्टियां बनाई और सत्ता तक पहुंचे.
इस मामले में मेघालय और नागालैंड की मिसाल सामने है. दूसरी ओर, बीजेपी ने भी जनता का मूड भांपते हुए ज्यादातर राज्यों में स्थानीय दलों के साथ हाथ मिलाया और उसका नतीजा सामने है. मेघालय से लेकर अरुणाचल प्रदेश, मणिपुर, असम और त्रिपुरा तक उसके साथ स्थानीय दल भी सरकार में साझीदार हैं.
मिजोरम विश्वविद्यालय के पूर्व वाइस-चांसलर आर.लालथनलुआंगा कहते हैं, "मिजोरम में अपने आखिरी किले के ढहने के बाद पूर्वोत्तर में कांग्रेस अब ऐसी स्थिति में पहुंच गई है जहां से उसके लिए निकट भविष्य में वापसी संभव नहीं है. उसके पास अब पहले की तरह करिश्माई नेता भी नहीं बचे हैं. ऐसे में कांग्रेस अब अपने पुराने दिनों को याद कर ही संतोष कर सकती है.