पवन चक्की फिर चल पड़ी
८ अगस्त २०१३सी पी एन एच जेड एक सौ सत्तानबे, 15 टन इस्पात से बनी पवन चक्की चलाने वाली मशीन है. पवन चक्की ना चलने की स्थिति में इस मशीन में प्रॉब्लम क्या है, यह पता लगाने के लिए कंपनी में पूरी टेस्टिंग होती है. कई बार उस पर तेज हवाओं का असर दिखाई देता है. गाड़ी की इंजिन में दांत वाले पहियों की तरह, मशीन के अंदर भी क्या हो रहा है कुछ दिखाई नहीं देता, सुनाई नहीं देता. लेकिन कुछ कुछ संकेत मिलते रहते हैं. सेंसर बजने लगते हैं. अकसर परेशानी पहचानने में देर हो जाती है, यह भी हो सकता है कि गरारी घिस गई हो.
कंपनी कहती है कि मशीन को सात से दस साल चलना चाहिए. इससे ज्यादा समय चलने से कई बार नट बोल्ट में जंग लग जाता है. फिर इन्हें सिर्फ हाइड्रोलिक तकनीक से निकाला जा सकता है. पवन चक्कियों की मरम्मत करने वाली कंपनी में जंग लग चुके नट बोल्ट को हाथ से निकाला जाता है लेकिन बहुत ज्यादा ताकत लगाकर. पहले उसे लौ से तपाकर लाल करना पड़ता है. बूढ़ी हो गई मशीनों के दोबारा सही होने की संभावना भी कम होती है. कई बार मरम्मत के दौरान पता नहीं होता कि फायदा होगा भी या नहीं. लेकिन इस पूरी प्रक्रिया के दौरान एक आदमी फोटो डॉक्यूमेंटेशन करता रहता है. क्योंकि नतीजा जो भी निकले, बिल पवनचक्की के मालिक को ही अदा करना होता है.
आइकहोफ कंपनी में इंजीनियर गिडी नीपेल ने बताया कि मरम्मत का काम सस्ता नहीं है. इसमें नए मशीन की कीमत का करीब दो तिहाई खर्च आता है. जर्मनी में अभी तक साढ़े पांच हजार पवन चक्कियां सुधारी गई हैं. मशीन के कई पुर्जे मरम्मत करने वाली कंपनियां खुद भी बनाती हैं, ऐसे में उन्हें बदलना और भी आसान हो जाता है. गरारी और बॉल बेयरिंग आदि सब कुछ सही साइज का होना चाहिए.
अकसर ऐसा भी होता है कि पवन चक्की का बाहर का हिस्सा सही है. बाकी के जो हिस्से खराब हो गए हैं दो से तान हफ्ते के समय में उनकी पूरी मरम्मत कर दी जाती है या उन्हें दोबारा धातु से बनाया गया. आखिर में इसकी टेस्टिंग होती है.
रिपोर्टः ओंकार सिंह जनौटी/एसएफ
संपादनः एन रंजन