पंचायती राजः दुर्दशा के 20 साल
१३ मई २०१३मानो दिख गया तो शर्मसार किया जाएगा, हिकारत से देखा जाएगा. इन दो दशकों में मुक्त बाजार के फैलाव में भारत की ग्राम अवधारणा को ही उखड़ते नहीं देखा गया, बल्कि उस अवधारणा के विकास से जुड़े पहलुओं को भी छिन्न भिन्न होते देखा गया. पंचायती राज कानून ऐसा ही एक पहलू था. इसे गांव की तरक्की का आधार, लोकतंत्र की पहली पगडंडी, देहात को जिलाए रखने की ऑक्सीजन माना गया था.
गांधी के ग्राम स्वराज की संकल्पना को मूर्त रूप देने के लिए यूं तो दो अक्टूबर 1959 को राजस्थान के नागौर जिले में देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने पंचायती राज के फ्रेमवर्क की नींव रखी, लेकिन 73वें संविधान संशोधन के तहत इसे संवैधानिक दर्जा मिल पाया 1993 में. पंचायती राज संस्थाओं को जीवन और गति मिली और इस तरह 20 साल पूरे हुए. गांव की अपनी सरकार, अपनी पंचायत बनी तो विकास के दरवाजे भी खुले. लोकतंत्र की प्रक्रिया में तेजी आई और लोग बुनियादी अधिकारों के प्रति और सचेत हुए.
कितना पाया पंचायती राज से
इन बदलावों के बावजूद ये मानने में हिचक होती है कि हमारे गांव पूरी तरह अधिकार संपन्न, कृषि संपन्न और स्वास्थ्य संपन्न हो गए हैं. हमारे ग्रामीणों के पास हल, बैल, बीज, खेत, खलिहान, घर, जमीन, अन्न पशु सब हैं, हमारे गांवों के बच्चे स्कूल जाते हैं, उनके पास किताबें हैं, उन्हें जमीन पर नहीं बैठना होता, उन्हें पीने का पानी मयस्सर है, बिजली उपलब्ध है, सड़कें बन गई हैं, हमारे गांवों की महिलाओं को चूल्हे चौके में ही नहीं खटना पड़ता, उनकी कमर रोजमर्रा के कामों में टूट नहीं जाती, वे बीमारियों और कुपोषण से नहीं घिरी हैं और उनकी जिंदगियों और खुशियों पर कभी काली छाया नहीं मंडराती- हमें ये सारी बातें मान लेने में हिचक होती है.
हिचक क्या, इनमें से कई बातें ऐसी हैं, जो जस की तस हैं. आजादी के बाद से कमोबेश कुछ भी नहीं बदला है. और इन 20 सालों में तो लोकल सरकार के नाम पर गांवों में एक अजीब किस्म की चुनावी हवा चल पड़ी हैं. वहां सरोकार और चिंताएं नहीं हैं, त्वरित लाभ और दीर्घ स्वार्थों की लालसाएं हैं. ये आखिर कैसा पंचायती राज कायम हुआ है, जहां हमने महिला भागीदारी की बात की तो गांव प्रधान के रूप में महिलाएं बेशक आ गईं लेकिन उनके साथ “प्रधान पति” चले आए, हमने ग्रामीणों के चौतरफा विकास की बात की लेकिन वो सिकुड़ सा गया, हमने बजट तो बनाया लेकिन उसे खर्च करने में हमारे पसीने छूट गए, और जो खर्च किए, उसका कोई अता पता नहीं.
राज पर राजनीति भारी
क्या 20 साल का यही निचोड़ हमारे पास है कि हमने पंचायती राज को सरपंच राज बना डाला और 150 से ज्यादा केंद्र पोषित योजनाओं को कमीशनखोरी की चक्की में बदल दिया. बीस साल पूरे होने के बाद केंद्र में कांग्रेस की अगुवाई वाली यूपीए सरकार के नुमाइंदों ने पंचायती राज को कानूनी जामा पहनाने वाले अपने नेता और देश के पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी का तो खूब स्मरण किया लेकिन इस राज का क्या हश्र होता जा रहा है इसे याद रखने की फुर्सत फिलहाल लगता नहीं उनके पास है. कहने को 2011 में इसके लिए एक वर्किंग ग्रुप भी बन चुका है. “राजीव गांधी पंचायत सशक्तीकरण अभियान” भी चल पड़ा है. लेकिन गांव पंचायतें क्या चुनाव लड़ने, वोट देने और नेता चुनने के लिए ही बची हैं या उनके कुछ और भी दायित्व हैं. नीचे से ऊपर की विकास की अवधारणा के लिए ग्राम पंचायतों पर जोर दिया गया लेकिन राजनैतिक दबंगई और स्वार्थ और अवसरवादिता के जोर ने ये प्रक्रिया ही उलट दी.
ऊपर से नीचे की ओर विकास के वादे, खुराफातें और चालाकियां की जा रही हैं. नौकरशाही ने “पावर टू द पीपुल” की इस बहुत सहज और पारदर्शी प्रक्रिया में अंधकार उड़ेल दिया है. आप अपना गांव अपने गांव का हक अपने गांव का भूगोल और अपने गांव का प्रधान खोजते रहिए. गांव सिमटता जा रहा है, हक छिनता जा रहा है, भूगोल बदलता जा रहा है और प्रधान एक चमकती हुई मोटर में बैठ कर शहरों को रवाना हो चुका है.
गायब होते गांव
इन हालात में धीरे धीरे परिदृश्य से गायब होते हैं खेत, पशु, बीज, खाद, पानी और किसान. और तब धूल उड़ाता हुआ प्रकट होता है मनरेगा, महात्मा गांधी ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना का पूरा अमला, फाइलें, बैठकें, सेमिनार और उद्घाटन भाषण तालियां- किसान के हाथ में बीज और खाद देने के बजाय गैंती फावड़ा और इस तरह गांव के विस्थापन की प्रक्रिया का एक प्रमुख चरण पूरा हो जाता है- किसान को मजदूर बनाकर- फिर अगला चरण शुरू होता है बेकारी, तंगहाली और भ्रष्टाचार और अपराध की मार का. क्या हम बता सकते हैं कि तीन स्तरों वाली पंचायती राज व्यवस्था में ये धूल कैसे पड़ी और कैसे मनरेगा जैसी बहुत जनहितकारी सी दिखने वाली योजना घोटाले की जमीन में जा धंसी.
आंकड़े कितने सुनहरे हैं. भारत की करीब दो तिहाई आबादी करीब 41,000 गांवों में रहती है. दो लाख 47 हजार पंचायतें हैं और पंचायती राज संस्थाओं में सीधे चुनाव से आने वाले 30 लाख प्रतिनिधि हैं. राजनैतिक चेतना, सामाजिक न्याय, आर्थिक शैक्षिक सांस्कृतिक विकास, स्वास्थ्य सुरक्षा, पोषण, खेत खलिहान की सुरक्षा, बीज की उपलब्धता, पर्याप्त राशन- ये कुछ बातें हैं जो इन लाखों पंचायत प्रतिनिधियों और उन संस्थाओं के हवाले हैं. लेकिन इन आंकड़ों के सामने विस्थापन, पलायन, भुखमरी, बेकारी, बीमारी, अशिक्षा, कुपोषण, शोषण और हिंसा के आंकड़े लगातार टकरा रहे हैं और इन आंकड़ों का सुनहरा वर्क झड़ता जा रहा है. क्या एक दिन हमें आंकड़ों का कंकाल दिख जाने वाला है जिसकी आड़ में वहीं कहीं गांव और पंचायती राज के कंकाल होंगे.
ब्लॉगः शिवप्रसाद जोशी
संपादनः अनवर जे अशरफ