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दवाई की भेंट चढ़ती भारत की छिपकलियां

२६ अक्टूबर २०१२

उत्तर पूर्वी भारत से छिपकलियों का दक्षिण पूर्वी एशिया में बेचने का सिलसिला तेज हो गया है. एशिया के कई देशों में लोग इन्हें न सिर्फ खाते हैं बल्कि दवाई बनाने का भी दावा करते हैं जो एड्स जैसी बीमारियां ठीक कर सकती हैं.

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तस्वीर: by-Roberto Verzo

उत्तरपूर्वी भारत के मणिपुर में टोंगथांग आजकल छिपकलियां पकड़ कर बेचते हैं. वह चुराचंदपुर जिले में पहले कोयला बेचता थे. वह अपने गांव के पास के जंगल में गायब हो जाते हैं और तीन चार दिन बाद छिपकलियां पकड़ कर लौटते हैं. उनका धंधा अच्छा चल रहा है. ”एक साल में पहाड़ियों के जंगल से मैंने 28 छिपकलियां पकड़ीं. मैंने 14 और छिपकलियां अपने गांव के लोगों से खरीदी और फिर जा कर उन्हें बेच आया. मुझे इसके लिए करीब ढाई लाख रुपये मिले. यह कोयले की कमाई से होने वाली कमाई से तीन चार गुना ज्यादा है.”

टोंगथांग कुकी जनजाती के हैं. उन्होंने डॉयचे वेले से बातचीत में कहा कि छिपकली पकड़ना आसान काम नहीं है. सामान्य तौर पर मैं छोटी छिपकलियां पकड़ता हूं. मैं दूसरे लोगों से भी छिपकलियों के बच्चे ही लेता हूं. मैं उन्हें कुछ महीनों के लिए घर पर रखता हूं और फिर वे जब बड़ी होती हैं तो उन्हें बेचता हूं.

टोंगथांग से छिपकलियां खरीदने वाले व्यापारी इसे सीमाई शहर मोरेह में लेते हैं. फिर यहां से दूसरे तस्कर म्यांमार में बेचते हैं अंतरराष्ट्रीय लक्ष्य के लिए. ”कई सौ लोग फिलहाल उत्तर पूर्वी भारत में छिपकली बेचने का धंधा कर रहे हैं.”
बढ़ता धंधा

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तस्वीर: picture-alliance/dpa

भारत में सामान्य तौर पर वन्यजीवों पर निगाह रखने वाले लोग बाघ, गैंडे और उनके शरीर के अंगों की तस्करी पर ही ध्यान देते हैं. क्योंकि इन्हें भी चीन और दूसरे पूर्वी एशियाई देशों में दवाई के लिए बेचा जाता है.

वहीं वन्यजीव मामलों के जानकारों का कहना है कि एक साल पहले उत्तर पूर्वी भारत के मणिपुर, मिजोरम, नागालैंड और असम में छिपकलियों के तस्करों की संख्या तेजी से बढ़ी. म्यांमार में रहने वाले व्यापारी इस चेन के बीच में हैं. वे इन्हें चीन, इंडोनेशिया, फिलीपीन्स और दूसरे दक्षिण पूर्वी एशियाई देशों को बेचते हैं.

जुलाई में मणिपुर के स्थानीय मीडिया में छिपकलियों की म्यांमार में तस्करी के मामले दिखाए गए थे. भारतीय अधिकारियों ने छिपकली पकड़ने वाले और इनका धंधा करने वाले लोगों को पकड़ना शुरू किया. पिछले चार महीनों में वन विभाग के अधिकारियों ने करीब दो राज्यों से 100 छिपकलियां जब्त की.

अंधविश्वास

मणिपुर के जंगलों में संरक्षण करने वाले उपप्रमुख एल जॉयकुमार सिंह ने डॉयचे वेले को बताया कि छिपकलियों की अधिक मांग का मुख्य कारण लोगों का अंधविश्वास है. जिन लोगों को छिपकलियों की तस्करी के लिए पकड़ा गया वह कहते हैं कि इनसे एचआईवी संक्रमण, कैंसर, नपुंसकता, मधुमेह और कुछ दूसरी बीमारियों की दवाइयां बनाई जाती हैं. लेकिन यह सिद्ध हो चुका है कि छिपकली के मांस से बनी दवाई ऐसी कोई बीमारी ठीक नहीं कर सकती.

टोके छिपकली जिसका रंग नीला ग्रे जैसा होता है और जिसके शरीर पर हल्के पीले से गहरे लाल रंग के चकत्ते होते हैं वह 50 सेंटीमीटर तक बढ़ सकती है और इसका वजन 400 ग्राम तक हो सकता है. तस्करों का कहना है कि एक किलो टोके के मांस से बनी दवाई की कीमत अंतरराष्ट्रीय बाजार में 10 हजार यूरो तक हो सकती है.

विलुप्त होती छिपकलियां

इम्फाल में पीपल फॉर एनिमल नाम के संगठन प्रमुख बिस्वजीत ने डॉयचे वेले को बताया कि अगर तस्करी और तस्करों को रोकने के कड़े नियम नहीं बनाए गए तो छिपकलियां विलुप्त हो जाएंगी. "अधिकारिक रूप से छिपकलियां खतरे में पड़ी प्रजातियों में शामिल नहीं हैं. लेकिन अगर इन्हें इस श्रेणी में शामिल कर लिया जाए तो तस्करों और छिपकली पकड़ने वालों को सजा का थोड़ा डर लगेगा. म्यांमार और कई पूर्वी एशियाई देशों से छिपकलियां करीब करीब विलुप्त हो चुकी हैं क्योंकि कई साल लोग उन्हें मारने के लिए पकड़ते रहे. अब अंतरराष्ट्रीय तस्करों की नजर भारत पर है." बिस्वजीत का कहना है कि अगर भारतीय सरकार ने जल्द ही इस पर कानून नहीं बनाया तो यह भारत से भी खत्म हो जाएंगी.

रिपोर्टः अजीज/एएम

संपादनः एन रंजन

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