दलितों में आत्मविश्वास बढ़ा, अधिकारों के लिए सचेत
२९ दिसम्बर २०१५दलितों के मसीहा माने जाने वाले भीमराव रामोजी अंबेडकर के प्रति अचानक सबका प्यार उमड़ आया है. जिन अंबेडकर ने 1935 में ही कह दिया था कि हालांकि उनका जन्म एक हिन्दू के रूप में हुआ है, पर वह एक हिन्दू के रूप में मरेंगे नहीं, उन्हीं अंबेडकर को आज वह हिंदुत्ववादी भारतीय जनता पार्टी हाथों-हाथ लिए हुए है जो अंबेडकर द्वारा बनाए धर्मनिरपेक्ष संविधान के प्रति शपथ लेने के बाद भी भारत को एक हिन्दू राष्ट्र मानती है और उसे हिन्दू राष्ट्र बनाने पर तुली हुई है. इसी तरह जिन अंबेडकर ने जीवन भर कांग्रेस और उसके सर्वोच्च नेता महात्मा गांधी का विरोध किया, उन्हीं अंबेडकर को आज कांग्रेस पार्टी गले लगाने के लिए बेचैन है. कांग्रेस ने तो अपने पार्टी संविधान में संशोधन करके सभी स्तर पर पचास प्रतिशत पद अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लिए आरक्षित कर दिये हैं. यही नहीं, पार्टी उपाध्यक्ष राहुल गांधी के निर्देश पर कांग्रेस की सभी राज्य इकाइयां दिसंबर 2015 से मार्च 2016 तक अंबेडकर की “असली विचारधारा” से अपने दलित एवं अन्य निचली जातियों के नेताओं को परिचित कराने के लिए सम्मेलन आयोजित कर रही हैं. आखिर अंबेडकर में ऐसा क्या है कि भाजपा हो या कांग्रेस, सभी उन्हें अपना बनाने यानी उनकी राजनीतिक विरासत को हथियाने के लिए अधीर हो रहे हैं?
इस बेचैनी और अधीरता के पीछे अंबेडकर के प्रति प्रेम या उनकी विचारधारण के प्रति निष्ठा नहीं, शुद्ध चुनावी गणित है. कांग्रेस का आकलन है कि उसे लोकसभा चुनाव में जो ग्यारह करोड़ वोट मिले, उनमें से लगभग एक-तिहाई दलितों और आदिवासियों के थे. उसकी कोशिश है कि यदि यह प्रतिशत बढ़े न, तो कम भी न हो. उत्तर प्रदेश में वर्ष 2017 के आरंभ में विधानसभा चुनाव होने हैं और वहां अंबेडकरवाद की प्रबल प्रचारक मायावती की बहुजन समाज पार्टी अन्य सभी पार्टियों के लिए बहुत बड़ी चुनौती है. भले ही अपने आचरण में मायावती अंबेडकर के सिद्धांतों पर चलती नजर न आती हों, लेकिन उनके विरोधी भी यह मानने के लिए मजबूर हैं कि बसपा के संस्थापक और मायावती के राजनीतिक गुरु कांशीराम और मायावती के प्रयासों के फलस्वरूप दलितों में एक नया आत्मविश्वास और उत्साह जगा है. दलित समाज अब किसी और की मदद का मोहताज नहीं. वह अपने पैरों पर खड़ा होना सीख रहा है. कांग्रेस को मायावती से यह खतरा है कि वह उसके और दलित वोटों को अपनी ओर खींच कर न ले जाएं. पिछले तीन दशकों में कांग्रेस का दलित वोट मायावती की ओर और मुस्लिम वोट मुलायम सिंह यादव की समाजवादी पार्टी की ओर खिंचा है जिसके कारण कभी उत्तर प्रदेश पर राज करने वाली कांग्रेस अब वहां तीसरे-चौथे नंबर की पार्टी बन कर रह गई है. उधर दिल्ली और बिहार में करारी हार के बाद भाजपा के लिए उत्तर प्रदेश का चुनाव जीवन-मरण का प्रश्न बन गया है. उसकी कोशिश है कि दलित उसे अपना हमदर्द समझें. इसीलिए वह अंबेडकर के हिन्दू धर्म और जातिप्रथा संबंधी कटु आलोचनात्मक विचारों को नजरंदाज करके उन्हें अपने प्रेरणास्रोतों में शामिल करती हुई दिखना चाहती है.
लेकिन इन दोनों पार्टियों की रणनीति के सफल होने की संभावना काफी कम है. अब अखबार, पत्रिकाएं, रेडियो, टेलिविजन और सामाजिक मीडिया के कारण अशिक्षित दलित भी अपनी स्थिति और अधिकारों के प्रति पहले की अपेक्षा बहुत अधिक सचेत हो गए हैं. उन्हें भरमाना उतना आसान नहीं रह गया था. फिर मायावती पर भ्रष्टाचार के चाहे जितने आरोप लगें, वह उनके अपने बीच से उभरी हुई नेता हैं और उनके एक बार फिर मुख्यमंत्री बनने की संभावना है. इसलिए उनका दलित जनाधार कम होने के बजाय बढ़ने की ज्यादा उम्मीद है. अन्य राज्यों में भी दलित वहीं कांग्रेस या भाजपा की ओर रुख करेगा जहां कोई दलित पार्टी या नेता नहीं है. इसके पीछे उसका लक्ष्य राजनीतिक संरक्षण प्राप्त करना होगा और उसे यह भ्रम कतई नहीं होगा कि ये पार्टियां मनुवादी नहीं, अंबेडकरवादी हो गई हैं. पार्टी में दलितों के लिए पद आरक्षित करने से आम दलित जन आकृष्ट होंगे, इसमें संदेह है. अब दलित सत्ता से संरक्षण, मदद या समर्थन नहीं, सत्ता में प्रत्यक्ष भागीदारी चाहते हैं. जब तक कांग्रेस और भाजपा जैसे दलों में राष्ट्रीय स्तर के प्रभावशाली दलित नेता नहीं होंगे, तब तक दलित वोट उनकी ओर आकृष्ट नहीं होगा.