चीफ़ जस्टिस को भी देनी होंगी सूचनाएं
१२ जनवरी २०१०दिल्ली हाई कोर्ट का यह ऐतिहासिक फ़ैसला भारत के चीफ़ जस्टिस केजी बालाकृष्णन के लिए एक निजी झटका समझा जा रहा है, जो इस बात की हिमायत करते आए हैं कि जजों से जुड़ी जानकारी सूचना के अधिकार क़ानून के दायरे में नहीं आनी चाहिए.
दिल्ली हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश केपी शाह, जस्टिस विक्रमजीत सेन और जस्टिस एस मुरलीधर की सदस्यता वाली तीन जजों की बेंच ने 88 पन्नों का फ़ैसला सुनाया. सुप्रीम कोर्ट की याचिका में दलील दी गई थी कि अगर चीफ़ जस्टिस कार्यालय को सूचना के क़ानून के दायरे में लाया गया, तो इससे न्यायिक स्वतंत्रता बाधित होगी.
न्यायिक मामलों में पारदर्शिता बढ़ाने में एक कदम आगे चलते हुए दिल्ली उच्च न्यायालय ने कहा कि उनके जज एक सप्ताह के अंदर अपनी संपत्ति का ब्यौरा देंगे. भारत के चीफ़ जस्टिस बालाकृष्णन का कहना है कि कि उनका कार्यालय सूचना के अधिकार के क़ानून यानी आरटीआई के अंतर्गत नहीं आता और इसिलिए उनके जजों की सूचना और संपत्ति के ब्यौरे को सार्वजनिक नहीं किया जा सकता. वह इसे ग़ैरज़रूरी और अतार्किक बताते हैं.
हाई कोर्ट ने 2 सितंबर 2009 को अपने फ़ैसले में कहा था कि सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस का दफ़्तर आरटीआई के दायरे में आता है तो जजों की संपत्ति का ब्यौरा सार्वजनिक किया जाना चाहिए. हाई कोर्ट की एक सदस्यीय पीठ के उस फ़ैसले को सुप्रीम कोर्ट ने हाई कोर्ट की स्पेशल बेंच के सामने चुनौती दी थी.
हाई कोर्ट की स्पेशल बेंच के सामने सुप्रीम कोर्ट का पक्ष रखते हुए अटॉर्नी जनरल गुलाम ई वाहनवती ने कहा कि हम अपने जजों के बारे में सूचनाएं सार्वजनिक नहीं कर सकते क्योंकि इससे न्यायिक प्रक्रिया और स्वतंत्रता बाधित होगी.
इस मामले पर विवाद के बीच पिछले साल ही चीफ़ जस्टिस और सुप्रीम कोर्ट के दूसरे जजों ने 2 नवंबर, 2009 को अपनी संपत्ति का ब्यौरा दे दिया था. लेकिन अपनी अपील में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि न्यायपालिका की स्वतंत्रता ज़रूरी है.
दिल्ली हाई कोर्ट ने अपने फ़ैसले में कहा कि ख़ुद सुप्रीम कोर्ट ने 1997 में प्रस्ताव पास कर कहा था कि संपत्ति की घोषणा होगी और उस पर अब सवाल नहीं उठाए जा सकते. जजों ने उस वक्त अपनी संपत्ति सार्वजनिक करने का फ़ैसला किया था.
रिपोर्टः पीटीआई/आभा मोंढे
संपादनः ए जमाल